जानें कैसे, महाराष्ट्र के ये गांव सूखे को दे रहे मात?

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महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र सूखा और किसानों की खुदकुशी को लेकर अक्सर सुर्खियों में रहता है, लेकिन इसी क्षेत्र के तीन ऐसे गांव भी हैं, जहां के किसानों को पानी के लिए आसमान की ओर नजरें नहीं टिकानी पड़तीं, साथ ही उनकी कृषि आमदनी में दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से इजाफा हो रहा है।

एक वाटरशेड (जलागम) परियोजना ने किसानों को बारिश के लिए हर मौसम में आसमान की ओर निहारने से मुक्ति दिला दी है। तीन गांवों -कदवांची, नंदापुर तथा वाघरुल के 1,888 हेक्टेयर इलाके में वर्ष 1990 के मध्य से ही पर्याप्त मात्रा में पानी मौजूद है।

यह परियोजना कदवांची मॉडल के रूप में तब प्रसिद्ध हुई, जब इसने अंगूर की फसल उगाने में किसानों की मदद की, क्योंकि अंगूर की खेती के लिए काफी मात्रा में पानी की जरूरत होती है।

कदवांची गांव के किसान तथा सरपंच चंद्रकांत शिरसागर (45) ने मीडिया से कहा, “20 वर्ष पहले तक शायद ही कोई अंगूर के बारे में जानता था। अब, इलाके के 90 फीसदी किसान अंगूर की खेती कर रहे हैं। हमारा गांव भी सूखे की चपेट में आता था। लेकिन परियोजना के क्रियान्वयन के बाद हमें पानी की कमी का कभी सामना नहीं करना पड़ता। यहां के किसान अब लखपति हो गए हैं।”

उन्होंने कहा कि अपनी 15 एकड़ जमीन पर अंगूर की खेती कर वह बढ़िया लाभ कमा रहे हैं, वह भी बारिश की चिंता किए बिना जो सूखे की अवधि में सामान्य से 50 फीसदी कम रहा था। तीनों गांवों के 355 परिवार खेती के काम में लगे हैं।

परियोजना के तहत पहाड़ी इलाकों में लगातार घेरा तथा पानी के अवशोषण करने के लिए खाइयों का निर्माण करना तथा भूजल को बढ़ाने तथा मृदा अपरदन को रोकने के लिए खेतों की सीमाओं पर बांध बनाना शामिल है। साथ ही, भारी मात्रा में पानी का संग्रह करने के लिए जगह-जगह चेकडैम भी बनाए गए हैं। बाद में, अलग से सरकारी योजना के तहत खेतों में कई छोटे-छोटे तालाब खोदे गए, जिसने जल प्रबंधन कार्यक्रम को बढ़ावा दिया।

परियोजना की अवधारणा देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता विजय बोरादे ने कहा, “इससे पहले, हम मॉनसून के जल का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, क्योंकि सारा पानी बह जाता था। इसके अतिरिक्त, मृदा अपरदन होता था, जिससे मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती थी। अगर मृदा संरक्षण होता है, तो पानी स्वत: इकट्ठा हो जाता है। जलविभाजन परियोजना के तहत, हमने मृदा अपरदन को रोकने तथा भूजल स्तर को फिर से बढ़ाने के लिए कई उपाय किए।”

इंडो जर्मन वाटरशेड परियोजना के तहत साल 1996 से 2002 में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) द्वारा परियोजना का क्रियान्वयन किया गया।

महाराष्ट्र कृषि भूषण पुरस्कार से सम्मानित बोरादे ने कहा कि उनका उपाय काम कर गया। उन्होंने कहा, “इस इलाके के किसानों को पानी की कमी की शिकायत नहीं है, यहां तक कि गर्मी के मौसम में भी नहीं। वे भरपूर जल की मांग करने वाली फसलों की भी खेती कर रहे हैं और बेहतर मुनाफा कमा रहे हैं।”

सेंटर रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राइलैंड एग्रीकल्चर (सीआरआईडीए) के मुताबिक, परियोजना के क्रियान्वयन के बाद अंगूर की खेती में कई गुना बढ़ोतरी हुई है।

जालना केवीके में कृषि अभियंता व वाटरशेड परियोजना का हिस्सा रहे पंडित वासरे ने कहा कि यह सूखे की आशंका वाला क्षेत्र है। इसके बावजूद यहां के किसानों को सालों भर पानी मिलता है, जिससे उन्हें साल में तीन फसलें उगाने में सहूलियत मिलती है।

वासर ने कहा, “आठ दिनों के दौरान केवल 97 मिलीमीटर बारिश हुई है और अब तक सारे चेकडैम पानी से लबालब भर चुके हैं। मेडबंदी के कारण पानी खेतों में भी देखा जा सकता है। परियोजना के कारण फसलों के आंशिक तौर पर खराब होने की संभावना कम हो गई है।”

उन्होंने कहा कि कदवांची मॉडल मराठवाड़ा क्षेत्र में किसानों को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बना सकता है।

इलाके में अंगूर की खेती करने वाले एक किसान भगवान शिरसागर ने कहा कि उनकी योजना निर्यात के लायक अंगूर की खेती करने की है, जिससे उनके मुनाफे में और बढ़ोतरी होगी। उन्होंने कहा, “प्रारंभिक निवेश थोड़ा अधिक है। लेकिन पानी की उपलब्धता के कारण हम मुनाफे के प्रति आश्वस्त हैं।”

शिरसागर ने कहा कि मराठवाड़ा क्षेत्र पिछले कुछ वर्षो से किसानों की खुदकुशी को लेकर सुर्खियों में है, लेकिन वाटरशेड इलाके के लोगों को कभी भी वित्तीय तनाव का सामना नहीं करना पड़ा है। साल 2016 में क्षेत्र के 900 किसानों ने खुदकुशी की।

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केवीके के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2012-13 में वाटरशेड इलाके से आय 12 करोड़ रुपये थी, तब बारिश सालाना औसत का मात्र 29 फीसदी थी। साल 2015-16 में आय बढ़कर 42 करोड़ रुपये हो गई, जब बारिश सालाना औसत का 60 फीसदी हुई। वाटरशेड परियोजना से पहले गांवों की सालाना औसत आमदनी 77 लाख रुपये थी।

स्थानीय किसानों का कहना है कि हर साल 12 से 15 टन के बीच अंगूर का उत्पादन होता है, जबकि कभी-कभी 20 टन भी हो जाता है। वे कपास, मटर, हरा चना, चारा और मक्का भी उगाते हैं।

बोरादे ने कहा कि कदवांची मॉडल निकटवर्ती इलाकों में भी अपनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, “भूमि के विभिन्न इस्तेमाल तथा जलवायु की स्थिति को लेकर मॉडल बिल्कुल एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन लोग इस मॉडल से प्रेरणा ले सकते हैं और अपना माॉडल तैयार कर सकते हैं।”

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