INS विक्रांत: जानिए 75 वर्षों में कितना बदला भारतीय नौसेना का ध्वज, कैसे मिला नया नाम, पढ़ें पूरा इतिहास

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भारतीय नौसेना के खेमे में शुक्रवार (2 सितंबर) को पहला स्वदेशी विमानवाहक युद्धपोत आईएनएस विक्रांत शामिल हुआ. पीएम नरेंद्र मोदी ने आईएनएस विक्रांत को भारतीय नौसेना को सौंप दिया है. साथ ही पीएम मोदी ने शुक्रवार को सेना के ध्वज के नए प्रतीक चिन्ह का अनावरण कर राष्ट्र को समर्पित किया. नौसेना का नया निशान औपनिवेशिक अतीत से दूर और भारतीय मैरिटाइम हैरिटेज से लैस है. नौसेना के ध्वज से रेड जॉर्ज क्रॉस हटा दिया गया है. इसके अलावा, नौसेना के चिन्ह में अशोक स्तंभ को दिखाया गया है. इसमें संस्कृत के मंत्र को भी शामिल किया गया है.

जानिए कब-कब बदला नौसेना का ध्वज…

26 जनवरी, 1950 को रॉयल इंडियन नेवी में से रॉयल शब्द को हटाया गया. इसे केवल इंडियन नेवी के नाम से जाना जाने लगा. आजादी के पहले तक नौसेना के ध्वज में ऊपरी कोने में ब्रिटिश झंडा बना रहता था. जिसकी जगह तिरंगे को जगह दी गई. इसके अलावा क्रॉस का चिन्ह भी था. ध्वज में बना क्रॉस सेंट जार्ज का प्रतीक था.

दूसरी बार भारतीय नौसेना के ध्वज को साल 2001 में बदला गया था. उस वक्त सफेद झंडे के बीच में जॉर्ज क्रॉस को हटाकर नौसेना के एंकर को जगह दी गई थी. ऊपरी बाएं कोने पर तिरंगे को बरकार रखा गया था. नौसेना के ध्वज में बदलाव की मांग लंबे समय से लंबित थी, जिसमें बदलाव के लिए मूल सुझाव वाइस एडमिरल वीईसी बारबोजा की ओर से आया था.

हालांकि, साल 2004 में ध्वज और निशान में फिर से बदलाव किया गया. ध्वज में फिर से रेड जॉर्ज क्रॉस को शामिल कर लिया गया. तब कहा गया कि नीले रंग के कारण निशान स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहा था. नए बदलाव में लाल जॉर्ज क्रॉस के बीच में राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ को शामिल किया गया था.

साल 2014 में फिर से इसमें बदलाव हुआ. तब देवनागरी भाषा में राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे सत्यमेव जयते लिखा गया.

अब इसमें फिर से बदलाव किया गया है. एक बार फिर से ध्वज से रेड जॉर्ज क्रॉस (लाल रंग की दो पट्टियां) को हटा दिया गया है. इसके साथ ही नेवी का चिह्न इसमें शामिल किया गया है. नए चिह्न में राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ को शामिल किया गया है. इसमें शेर को दहाड़ते हुए दिखाया गया है. नीचे ‘शं नो वरुण:’ लिखा गया है. इसका मतलब है जल के देवता वरुण हमारे लिए मंगलकारी रहें.

ऐसे मिला नया नाम…

बॉम्बे मरीन ने मराठा, सिंधि युद्ध के साथ-साथ साल 1824 में बर्मा युद्ध में भी हिस्सा लिया. साल 1830 में बॉम्बे मरीन का नाम बदलकर महामहिम भारतीय नौसेना रखा गया.

साल 1863 से 1877 तक इसका नाम बदलकर फिर से बॉम्बे मरीन कर दिया गया. साल 1877 में ये फिर महामहिम इंडियन मरीन कर दिया गया.

इसके बाद साल 1892 में इसे रॉयल इंडियन मरीन कर दिया गया. उस समय तक इसमें 50 से अधिक पोत शामिल हो गए थे. प्रथम विश्व युद्ध में जब बॉम्बे और अदन को खदानों के बारे में जानकारी मिली तो रॉयल इंडियन मरीन इस दौरान खदानों, गश्ती जहाजों और टुकड़ी वाहकों के एक बेड़े के साथ कार्रवाई में चली गई. इसका उपयोग मुख्य रूप से गश्त लगाने, सैनिकों को फेरी लगाने और युद्ध के भंडार को इराक, मिस्र और पूर्वी अफ्रीका तक पहुंचाने में किया जाता था.

पहला भारतीय जिसे रॉयल इंडियन मरीन में कमीशन दिया गया था, वह थे लेफ्टिनेंट डीएन मुखर्जी. वह साल 1928 में एक इंजीनियर अधिकारी के रूप में रॉयल इंडियन मरीन में शामिल हुए.

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कब हुआ रॉयल इंडियन नेवी…

साल 1934 में रॉयल इंडियन मरीन को रॉयल इंडियन नेवी के रूप में संगठित किया गया. दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत में रॉयल इंडियन नेवी में आठ युद्धपोत थे. युद्ध के अंत तक इसकी क्षमता कई गुना बढ़ गई. अब तक रॉयल इंडियन नेवी में 117 लड़ाकू जहाज और 30,000 कर्मचारी शामिल को चुके थे.

आजादी के समय भारत के पास रॉयल इंडियन नेवी के नाम पर केवल तटीय गश्त के लिए उपयोगी 32 बूढ़े जहाज और 11,000 अधिकारी और कर्मी बचे थे.

26 जनवरी, 1950 को भारत गणतंत्र बना, जिसके बाद उपसर्ग ‘रॉयल’ को हटा दिया गया. भारतीय नौसेना के पहले कमांडर-इन-चीफ एड्म सर एडवर्ड पैरी, केसीबी थे, जिन्होंने साल 1951 में अपना कार्यभार एडम सर मार्क पिज़े, केबीई, सीबी, डीएसओ को सौंप दिया था.

नेवी का फुल फॉर्म…

Nautical Army of Volunteer Yeoman

N- नॉटिकल
A- आर्मी ऑफ
V- वॉलेंटीयर
Y- योमेन

जानें नौसना का इतिहास…

वैसे तो भारतीय नौसेना का इतिहास 8 हजार साल से भी पुराना है. इसका उल्लेख वेदों में भी मिलता है. दुनिया की पहली ज्वार गोदी का निर्माण हड़प्पा सभ्यता के दौरान 2300 ई.पू. के आसपास लोथल में माना जाता है, जो इस समय गुजरात के तट पर मौजूद मंगरोल बंदरगाह के निकट है.

साल 1612 में कैप्टन बेस्ट ने पुर्तगालियों का सामना किया और उन्हें हराया भी. ये समुद्री लुटेरों द्वारा की गई पहली घटना थी, जिसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सूरत के पास एक बेड़ा बनाने के लिए मजबूर कर दिया.

5 सितंबर, 1612 को लड़ाकू जहाजों का पहला दस्ता आया, इसे उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी मरीन कहा जाता था. ये कैम्बे की खाड़ी और ताप्ती और नर्मदा के मुहाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार था.

बॉम्बे अंग्रेजों को साल 1662 में सौंप दिया गया था. उन्होंने साल 1665 में आधिकारिक तौर से इस पर अधिकार स्थापित किया. इसके बाद 20 सितंबर, 1668 को ईस्ट इंडिया कंपनी मरीन को बॉम्बे के व्यापार की देखभाल की जिम्मेदारी भी दे दी गई.

साल 1686 तक ब्रिटिश व्यापार पूरी तरह से बॉम्बे में स्थानांतरित हो गया. इसके बाद इस दस्ते का नाम ईस्ट इंडिया मरीन से बदलकर बॉम्बे मरीन कर दिया गया.

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