भारत की पहली मिठाई का इतिहास, समय के साथ बदला रंग-ढंग और स्वाद

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[bs-quote quote=”लेखक मिर्ची रेडियो में नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर होने के साथ ही विभिन्न विषयों के जानकार हैं।” style=”default” align=”center” author_name=”विपुल कृष्ण नागर ” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2021/09/Vipul-Krishna-Nagar.jpg”][/bs-quote]

भारत की पहली मिठाई उर्फ़ मालपुआ पुराण!

कोयले की धीमी-धीमी आंच पर रखी कढ़ाई में से आने वाली देसी घी की सुगंध महसूस की है कभी आपने?

अगर नहीं तो आप ईश्वर की अनुभूति नहीं कर सकते। क्योंकि भगवद गीता के सातवें अध्याय के नौवें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं कि “पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्र्चास्मि विभावसौ”, यानी मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूं।

और आपने अगर इस सुगंध को महसूस नहीं किया है तो आप मालपुए के असली महत्व को नहीं समझ सकते।

अब ज़रा फिर से कल्पना कीजिए। कोयले की धीमे धीमी आंच पर रखी कढ़ाई में रखे देसी घी में धीरे धीरे सुनहरा होने तक पक रहे मालपुए। खाने से पहले ही अंतरात्मा को स्वाद दिला देने वाली अप्रतिम सुगंध। इसके बाद चासनी में डाल कर चीनी में लिपटे हुए मालपुए के बनने की प्रक्रिया ही जितनी आनंददायक है उसका स्वाद कैसा अद्भुत होगा ये सोच कर ही मन मिठास से भर जाता है।

मालपुआ संभवतः भारतवर्ष की पहली मिठाई है। अब ये कैसे, इसका पता करने के लिए आपको मेरे साथ वैदिक युग की यात्रा पर चलना होगा।

कल्पना के घोड़े दौड़ाने पर आपको वैदिक काल में हो रहे यज्ञ के दौरान पढ़े जा रहे मंत्र सुनाई दे रहे होंगे। ये मंत्र ऋग्वेद के हैं।

कई नव्यताओं के सर्जक विश्वामित्र पहली बार ऋग्वेद के तीसरे मंडल के बावनवें सूत्र के पहले श्लोक में इन्द्र को अर्पित करते हुये गाते हैं-

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धा॒नाव॑न्तं कर॒म्भिण॑मपू॒पव॑न्तमु॒क्थिन॑म् । इन्द्र॑ प्रा॒तर्जु॑षस्व नः ॥

यानी हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के धारण करनेवाले ! आप जैसे (प्रातः) प्रातःकाल में (धानावन्तम्) बहुत भूँजे हुए यव विद्यमान जिसके उस (करम्भिणम्) बहुत पुरुषार्थ अर्थात् परिश्रम से शुद्ध किये गये दधि आदि पदार्थों से युक्त (अपूपवन्तम्) उत्तम पूवा विद्यमान जिसके उस (उक्थिनम्) बहुत कहने योग्य वेद के स्तोत्र विद्यमान जिसके उसका (प्रातः) प्रातःकाल सेवन करते हो वैसे (नः) हम लोगों का (जुषस्व) सेवन करो ॥१॥

सरल शब्दों में कहें तो इंद्र को घृत में डूबे “अपूप” के माध्यम से आहुति दी जा रही है।

ऋग्वेद की ऋचा में आने वाला ये शब्द “अपूप” ही पुआ, गुलगुला और पूड़ा प्रजाति का पूर्वज है।

इसके बाद ऋग्वेद के ही तीसरे मंडल के बावनवें सूक्त के सातवें श्लोक में ऋषि इन्द्र को न्योता देते हैं,

पू॒ष॒ण्वते॑ ते चकृमा कर॒म्भं हरि॑वते॒ हर्य॑श्वाय धा॒नाः।

अ॒पू॒पम॑द्धि॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्॥

यानी “मरुतों के साथ आओ, अपूप खाओ।”

उस समय अपूप को बनाने करने के लिए जौ का इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि जौ ही वैदिक काल में खाया जाने वाला मुख्य अनाज था। इस अपूप को घी में तला जाता था और उसके बाद मिठास के लिए पहले नैचरल स्वीटनर शहद में डुबाया जाता था

प्रारंभिक मालपुआ समय के साथ विकसित हुआ और ऋग्वैदिक काल से गुप्त काल तक इसके रूप बदलने के बहुत से संदर्भ हैं। ऋग्वेद के अलावा अथर्ववेद में, महाभारत के अनुशासन पर्व में और सुश्रुत एवं चरक संहिता में भी ‘अपूप’ का ज़िक्र है।

इस अपूप का जातक कथाओं में भी खूब वर्णन है। आज का पुआ यही ‘अपूप’ है।

इस अवधि के दौरान अपुपा का उल्लेख मेहमानों के स्वागत के लिए एक स्वादिष्ट मिठाई के रूप में किया जाता है।

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समय के साथ इस मिठाई ने अपना रूप बदला। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इसे पुपालिक के नाम से जाना जाने लगा। तब तक इसके बनाने की विधि में भी बदलाव हो गया था। उस दौरान जौ की जगह गेहूं के आटे या फिर चावल के आटे से इसे बनाया जाता था। स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें दूध, इलायची आदि मिलाने की शुरुआत भी उसी दौर में होने के प्रमाण मिलते हैं। उस दौर में आटे का केक बनाकर इसे गुड़ की चासनी में डुबाया जाता था। बहुत कुछ इसी रूप में आज भी यह आम घरों में बनाया जाता है। इस दौरान भरवां अपूप भी बनते थे।

समय के साथ बदलते बदलते अपुपा ने विभिन्न सांस्कृतिक परिवर्तन देखे और अंत में आधुनिक मालपुआ का रूप ले लिया।

मेरी बनारसी बुद्धि के अनुसार रबड़ी, खोया या मलाई के साथ खाये जाने के कारण बाद में पुआ के साथ ‘माल’ जुड़ गया होगा जिसके कारण रईसी और चकाचक कैलोरी जुड़ जाने के कारण इसका नाम पड़ा होगा – ‘मालपुआ’।

अब तो ये मालपुआ पूरे भारत ख़ास कर राजस्थान, बंगाल, बिहार, उड़ीसा के साथ साथ पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में विभिन्न उत्सवों का अभिन्न अंग है।

विविधता के देश भारत में मालपुआ के भी विविध रंग हैं।

ओडिशा में 16 वीं शताब्दी की शुरुआत से ही ये पुरी के जगन्नाथ मंदिर के छप्पन भोग का हिस्सा है। “मालपुआ को जगन्नाथ मंदिर की शब्दावली में अमलू कहा जाता है। यहां मालपुआ भगवान जगन्नाथ को सबसे पहले या सुबह-सुबह चढ़ाया जाता है।

पश्चिम बंगाल में परम्परागत रूप से  सर्दियों के महीनों पौष या मकर संक्रांति समारोह में पिट्ठी (बंगाली मिठाई) के साथ मालपुआ बनाया जाता है।

इसे बिहार और नेपाल के लोग होली के त्योहार में जम कर खाते हैं।

मालपुआ ईद में भी जम कर खाया जाता है। मुंबई में, बोहरी समुदाय के लोग अंडे के इस्तेमाल से मालपुआ बनाते हैं, जो केवल रमजान के महीने में उपलब्ध होता है।

बांग्लादेश और भारत के भी कुछ हिस्से में मालपुआ बनाने में फल विशेषकर केले का प्रयोग किया जाता है। आटा व दूध के साथ केला मिलाकर मालुपए का बैटर बनाया जाता है। कई तैयारियों में बैटर में कुचले हुए पके केले, या अनानास का इस्तेमाल किया जाता है। कुछ लोग अक्सर अपने मालपुए के ऊपर कंडेंस्ड मिल्क, मेवा और इलायची डालते हैं। ओडिशा में, मालपुआ को तलने के बाद चाशनी में डुबोया जाता है। जबकि बिहार में इसे तलने से पहले घोल में चीनी मिला दी जाती है। ओडिशा के तटीय इलाकों में केले की जगह पर नारियल का उपयोग भी किया जाता है,

सबसे विचित्र  और ग़ैर परपंपरागत मालपुआ भुवनेश्वर में मिलता है जहां इसे मसालेदार और तीखे आलूदम के साथ परोसा जाता है।

मालपुआ उत्सव की मिठाई है। इस पर रबड़ी डाल कर श्रिंगार कर देने से इसका रूप और स्वाद और भी निखर जाता है। आइए कल्पना में धीमे धीमी आँच पर देसी घी से भरी बड़ी सी कढ़ाई में कुरकुरा होने तक तले जाने के इलायची और केसर के स्वाद वाली चाशनी में डुबो कर और फिर उसपर एक चम्मच रबड़ी डाल कर मानसिक सुख की प्राप्ति करें।

इंद्र को आहुति दें।

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