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चिपको आंदोलन: जब महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर किया पर्यावरण संरक्षण आंदोलन

चिपको आंदोलन भारत में शुरू हुआ एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय आंदोलन था, जिसका मुख्य उद्देश्य वनों की कटाई को रोकना और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देना था. यह आंदोलन उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले से शुरू हुआ और बाद में पूरे देश में फैल गया. इसकी खास बात यह थी कि इसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाने का अनूठा तरीका अपनाया, जिससे इसे ‘चिपको’ नाम दिया गया.इस आंदोलन की शुरुआत चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने की थी, जबकि बाद में इसे भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे बढ़ाया.

कैसे हुई चिपको आंदोलन की शुरुआत?

भारत में औद्योगीकरण और बढ़ती लकड़ी की मांग के कारण वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही थी, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ रहा था. अप्रैल 1973 में उत्तराखंड के मंडल गांव (चमोली जिला) में जब सरकार ने एक ठेकेदार को जंगल की लकड़ी काटने का आदेश दिया, तब चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर विरोध जताया. यही घटना चिपको आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है.
इसके एक साल बाद, 1974 में, जब रैंणी गांव में जंगल विभाग ने पेड़ों की कटाई की अनुमति दी, तब गौरा देवी के नेतृत्व में स्थानीय महिलाओं ने इसका विरोध किया और पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.

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महिलाओं की भागीदारी

इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका बेहद अहम थी. पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं की आजीविका काफी हद तक जंगलों पर निर्भर थी. वे लकड़ी, चारा और पानी के लिए जंगलों पर निर्भर थीं. जब उन्हें पता चला कि जंगल काटे जा रहे हैं, तो उन्होंने एकजुट होकर इसका विरोध किया. गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों को रोक दिया, जिससे चिपको आंदोलन एक बड़ा जनांदोलन बन गया.

आंदोलन का प्रभाव

चिपको आंदोलन का व्यापक प्रभाव पड़ा. इसके चलते सरकार को वनों की कटाई पर पुनर्विचार करना पड़ा. 1980 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के हिमालयी क्षेत्रों में व्यावसायिक लकड़ी कटाई पर 15 साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया. इसके अलावा, यह आंदोलन देशभर में अन्य पर्यावरणीय आंदोलनों की प्रेरणा बना.

अप्पिको आंदोलन और वैश्विक प्रभाव

चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले में ‘अप्पिको आंदोलन’ शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य वनों की रक्षा करना था. इस आंदोलन का नेतृत्व पर्यावरणविद् पांडुरंग हेगड़े ने किया. उन्होंने स्थानीय समुदायों को संगठित कर पेड़ों से चिपककर उनकी कटाई का विरोध किया. महिलाएं भी विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुईं और पर्यावरण संरक्षण के संदेश को फैलाने में मदद की.
अप्पिको आंदोलन ने लोक नृत्य, नुक्कड़ नाटक, पैदल यात्राएँ और स्लाइड शो के जरिए जागरूकता फैलाई. इसका मुख्य नारा था “उलीसू, बेलासू, बालूसू” (जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ, उनका तर्कसंगत उपयोग करो).
इस आंदोलन के कारण कर्नाटक सरकार ने हरे पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी, जिससे वनों की रक्षा हुई और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा मिला.

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चिपको आंदोलन ने न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक नई सोच विकसित की. इससे प्रेरित होकर कई अन्य देशों में भी वनों की रक्षा के लिए आंदोलन हुए.
यह आंदोलन आज भी एक मिसाल है कि आम लोग, खासकर महिलाएं, पर्यावरण संरक्षण में कितनी अहम भूमिका निभा सकते हैं. चिपको आंदोलन ने यह साबित किया कि अगर समाज एकजुट होकर किसी नेक उद्देश्य के लिए खड़ा हो जाए, तो बदलाव संभव है.

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