लखनऊ: हिन्दी संस्थान में धूमधाम से मनाया गया ‘हिन्दी दिवस’
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन 14 सितम्बर को पूर्वाह्न 11 बजे से यशपाल सभागार में किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ दीप प्रज्वलन व माँ सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पांजलि के उपरान्त प्रारम्भ हुए कार्यक्रम में वाणी वन्दना की प्रस्तुति रंजना मिश्रा द्वारा की गयी। मंचासीन अतिथियों का उत्तरीय द्वारा स्वागत शिशिर, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने किया।
मुख्य वक्ता डाॅ0 कुमुद शर्मा दिल्ली ने कहा-आज हम संचार युग में हैं। भूमण्डलीकरण ने राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित किया है। भाषा एवं संस्कृति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हिन्दी भाषा पर आज मनन-चिन्तन की आवश्यकता है। आज हिन्दी भाषा के साथ संख्या बल तो है लेकिन उसके पास स्वाभिमान की कमी दिखायी पड़ती है। हिन्दी भाषा के पास स्वाभिमान होना आवश्यक है। मीडिया की ताकत से हिन्दी नहीं बल्कि हिन्दी से मीडिया बढ़ी है। स्थानीय भाषाओं को सम्मान व संरक्षण की आवश्यकता है। विडम्बना यह है कि आज हिन्दी भाषा में अच्छे अनुवादक नहीं हैं।
विशिष्ट अतिथि डाॅ रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में कहा, महात्मा गांधी जी ने हिन्दी के लिए जो इच्छा प्रकट की थी, उसकी पूर्ति राजनैतिक कारणों से आज तक पूरी नहीं हो सकी। वर्तमान में तकनीकी युग ने हिन्दी को प्रभावित किया है। हिन्दी के पुराने शब्दों में आज सुधार हुआ है। हमने हिन्दी को बाजारी काज के रूप में नहीं देखा। चुनौतियों को स्वीकार नहीं किया। विदेशों में भी हिन्दी भाषा पर काम हो रहा है। वैज्ञानिकों ने भी हिन्दी में काम किया है। आज बहुत बड़ी चुनौती यह है कि स्वाध्याय की प्रवृत्ति कम हो रही है। हिन्दी देश की प्राण वायु है। हिन्दी मन की हिन्दी जन-जन की भाषा है।
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भोपाल से पधारे डाॅ आनन्द कुमार सिंह ने कहा-‘कविता को परम्परा की वस्तु माना गया है। समाज में परम्परा जोड़ने का काम करती है। साहित्य के लिए दुनियाँ छोटी होती जा रही है। शाह जी कविता के अद्वितीय लेखक हैं। कवि एक बौद्धिक प्राणी होता है। साहित्य समाज का आन्तरिक कार्य में सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है। मौन कविता भी अर्थपूर्ण व मुखरित होती है। शाह जी की कविता शोर गुल व मौन दोनों रास्तों पर जाती है। कविता में जीवन के अर्थ को प्रकट करने की क्षमता होनी चाहिए। कविताएं उत्पे्रेरक का काम करती हैं।‘
डाॅ0 रमेश चन्द्र शाह ने ‘शब्द का बताओ कहना क्या है शब्द बताओ कहना क्यूँ है‘। बहुरूपिया पर लिखी एक कविता- ‘एक जनम काटना भारी हो रहा महाराज‘। ‘खुला है घर, एक सांकल भर लगी है‘। जागते रहो कविता में पढ़ा- जैसी कद काठी हो वैसी ही लाठी हो, वासुदेव, वासुदेव……‘। तुलसी एक्सप्रेस में उन्होंने पढ़ा- ‘उतरा कोई न चढ़ा कोई‘, चित्रकूट करीब है उतरोगे क्या‘, कितना सुहावना जंगल है, बेमानी लगती है दुनियाँ की चहल-पहल‘। नाम काट दो कविता पढ़ी-‘कक्षा में रहकर भी यही लगता है कि मैं बाहर खड़ा हूं, सुना है कि मेरा बाप भी इसी स्कूल में पढ़ता था, उसका नाम रहने दो मेरा नाम काट दो‘। ‘बेमतलब रोने से बेमतलब हँसने से, धूल होगी आरम्भ में, धूल होगी अन्त में‘ जैसी कविताओं का पाठ किया।
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अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ सदानन्दप्रसाद गुप्त, कार्यकारी अध्यक्ष, उप्र हिन्दी संस्थान ने कहा – हम हिन्दी के उन मनीषियों को याद करने का दिन है, जिन्होंने हिन्दी भाषा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, दुर्गा प्रसाद मिश्र उनमें अग्रणी हैं। दुर्गा प्रसाद ने हिन्दी के लिए काफी संघर्ष किया। आज हमारे भीतर हिन्दी के प्रति स्वाभिमान नहीं जाग पा रहा है। हिन्दी भाषा के प्रति हीनता ग्रन्थि के कारण हम पीछे होते चले जा रहे हैं, जो कि विचारणीय है। स्वत्व ही स्वाभिमान का प्रण है। हमें अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान जगाना होगा। संवेदना की भाषा हिन्दी ही होनी चाहिए।
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