क्रांतिकारी से बने थे भगवान… बिरसा मुंडा! नाम सुनकर कांप जाते थे अंग्रेज

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9 जून 1900… ये वो तारीख थी जब भारत के इतिहास के पन्नों में एक नाम बिरसा मुंडा का भी दर्ज हो गया। महज 25 साल के इस युवक से अंग्रेज इतना डर गए थे कि जेल में ज़हर देकर मार दिया था। मरने के बाद भी बिरसा मुंडा का खौफ़ इतना था कि अंग्रेजों ने रातों-रात उनके शव को दफना दिया था। वहीं, इस नौजवान की वीरगाथा की बात करें तो आदिवासियों के लिए बिरसा मुंडा भगवान थे। आदिवासी बंधुओं के उत्थान के लिए बिरसा मुंडा ने अपना पूरा यौवन अंग्रेजो के विरद्ध झोंक दिया था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को आंदोलन करने को प्रेरित करने के लिए नारा दिया था…  ‘अबुआ देश में अबुआ राज ‘ इस नारे के बाद सभी आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की क्रांति शुरू कर दी। धीरे-धीरे बिरसा मुंडा एक क्रांतिकारी से भगवान बिरसा मुंडा बन गए। 

117 साल बाद भी आज बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान की तरह पूजे जाते हैं। भगवान बिरसा मुंडा की मूर्ति कई जगहों पर देखने को मिलती है। बिरसा का पूरा जीवन आदिवासी बंधुओं के उत्थान के लिए समर्पित था। अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध निरंतर आंदोलन किए। साल 1895 में पहली बार और साल 1900 में दूसरी बार अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार किया था। 9 जून 1900 को इस महामानव की रांची जेल में रहस्यमय तरीके से मौत हो गयी थी। हर वर्ष 9 जून को शहादत दिवस मनाया जाता है।

बिरसा मुंडा का जन्म

भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खुटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। बिरसा मुंडा जनजाति के गरीब परिवार से थे। इनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी मुंडा था।

9 जून को बिरसा मुंडा ने ली थी आखिरी सांस

9 जून 1900, आज ही के दिन बिरसा मुंडा ने आखिरी सांस ली थी। गोलियों और बम की शक्तियों से लैस अंग्रेजी राजसत्ता इस 25 वर्षीय नौजवान आदिवासी से खौफ खाती थी। अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को दो बार गिरफ्तार किया था। बिरसा मुंडा पहली बार 1895 अंग्रेजों के हाथ लगे थे, लेकिन क्रांतिकारी स्वाभाव के चलते जेल से फरार हो गए थे। उसके बाद दूसरी बार बिरसा मुंडा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिए गए थे। अंग्रेजों ने बिरसा को रांची की जेल में बंद किया था। यहां कोर्ट हाजत में उनकी तबीयत बिगड़ गई थी। बताया जाता है कि बिरसा ने खुद ही अपना इलाज कर लिया था और 20 मई 1900 को वह ठीक हो गए थे। मगर फिर अंग्रेजों ने उनको ज़हर दे दिया था। जिसके बाद बिरसा को काफी खून की उल्टियां हुई थीं। जिससे रांची की ही जेल में रहते हुए 9 जून को उनकी मौत हो गई।

अंग्रेजों ने बिरसा को रातों-रात दफना दिया था 

बिरसा मुंडा की मौत के बाद भी अंग्रेजों को आदिवासियों की बगावत का डर सता रहा था। इसलिए अंग्रेजों ने रातों रात डिस्टिलरी पुल के पास उसका दाह संस्कार कर दिया। अंग्रेजों ने बिरसा के परिवार तक को सूचना नही दी थी। बाद में अंग्रेजों ने ये खबर फैला दी थी कि बिरसा मुंडा की हैजा से मौत हो गई है। जेल में बिरसा को अंग्रेजी सत्ता ने बीमार कर दिया और इस बीमारी से लड़ते हुए बिरसा शहीद हो गए, लेकिन लड़ाई कभी खत्म नहीं हुई।

21 की उम्र में अंग्रेजों से लड़ी थी जंग

बिरसा मुंडा का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में सबसे प्रमुख जनजातीय विद्रोहों में से एक है। भले ही अंत अनुकूल नहीं था, लेकिन इसने सीमाओं के पार एक संदेश दिया कि आदिवासी लोग जानते हैं कि कैसे और किस हद तक अपनी आवाज उठानी है।बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार इसलिए उठाया क्योंकि आदिवासियों का शोषण हो रहा था। एक तरफ अभाव व गरीबी थी तो दूसरी तरफ इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 जिसके कारण जंगल के दावेदार ही जंगल से बेदखल किए जा रहे थे। बिरसा मुंडा ने इसके लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तौर पर विरोध शुरु किया और छापेमार लड़ाई की। कम उम्र में ही बिरसा मुंडा की अंग्रेजों के खिलाफ जंग छिड़ गई थी। लेकिन उन्होंने एक लंबी लड़ाई 1897 से 1900 के बीच लड़ी थी।

बिरसा मुंडा के उपदेश

बिरसा मुंडा कीर्तन के पश्चात् वे धर्म की भी चर्चा किया करते थे। उन्होंने लोगों को परंपरागत एवं रूढ़िवादी रीति-रिवाजों से मुक्त होकर ईश्वर पर आस्था रखने के लिए प्रेरिता किया था। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार एवं एकेश्वरवाद का उपदेश दिया।

बिरसा मुंडा ने किया था धर्म परिवर्तन

भगवान बिरसा मुंडा ने एक समय ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। तब उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया था। बाद में वह बिरसा दाउद के नाम से मशहूर हुए। आगे चलकर बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके बड़े चाचा कानू पौलुस ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। उनके पिता सुगना और उनके छोटे भाई ने भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था. यहां तक कि उनके पिता धर्म प्रचारक भी बन गए।

झारखण्ड के युवाओं के लिए आदर्श हैं बिरसा

बिरसा मुंडा, वो नाम है जिसे झारखंड के युवा आज भी अपना आदर्श मानते हैं। अंग्रेजों के सामने कभी न झुकने वाले बिरसा मुंडा ने लगान वापस लेने जैसी बातों को लेकर अंग्रेज़ी हुकूमत से आंख से आंख मिलाई थी। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष खड़ा किया था। बिरसा मुंडा के प्रवचन सुनने दूर-दूर से लोग आते चित्र 12.5 बिरसा मुंडा थे। किसी ने उनकी शिकायत अंग्रेजों से कर दी । उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर दो वर्ष के लिए कारावास की सजा सुनाई। वहीं से उनके मन में क्रांति का भाव आया।

क्रांतिकारी से बने भगवान बिरसा

आदिवासियों के उत्थान के लिए बिरसा मुंडा ने अपना पूरा जीवन दे दिया। इसी त्याग को देखकर पूरे इलाके के आदिवासी उन्हें भगवान के रूप में देखने लगे थे। बिरसा मुंडा आदिवासी गांवों में घुम-घूम कर धार्मिक-राजनैतिक प्रवचन देते हुए मुंडाओं का राजनैतिक सैनिक संगठन खड़ा करने में सफल हुए। इसके बाद बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश नौकरशाही का जवाब देने के लिए एक आन्दोलन की नींव डाली। ऐसे में 1895 में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की लागू की गई जमींदार प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ दी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया। बता दें कि, यह एक विद्रोह ही नहीं था बल्कि सम्मान और संस्कृति को बचाने की लड़ाई भी थी। आज भी उनके इस बलिदान के लिए लोग उन्हें पूजते हैं।

 

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