यहां विधवा के वेष में रहती हैं सुहागिन महिलाएं, सफेद साड़ी में आती है नई बहू

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किसी महिला की शादी होती है तो हम उसे सुहागिनों के श्रृंगार में देखते हैं, महिला रंगीन साड़ी पहनती है, सिंदूर लगाती है, लेकिन क्या आपने कभी किसी विवाहिता महिला को शादी के बाद विधवा के परिधान में देखा है? हम आपको ऐसी ही महिलाओं के बारे में बताने जा रहा है, जो शादी के बाद सुहागन के नहीं, बल्कि विधवा के वेष में रहती हैं।

आपको जानकर और भी ज्यादा हैरानी होगी कि ऐसा करने वाली कोई एक महिला नहीं बल्कि एक पूरा का पूरा परिवार है, जिसकी दस पीढ़ियों से सुहागन महिलाएं विधवा के वेष में रहती हैं। यह परिवार छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के कोसमी गांव में रहता है।

14 महिलाएं हैं-

कोसमी गांव में पुजारी परिवार के नाम से पहचाने जाने वाले इस परिवार में कुल 14 महिलाएं हैं, जो न ही किसी प्रकार का साज-श्रृंगार करती हैं और न ही मांग में सिंदूर लगाती हैं। परिवार की ये महिलाएं एक-दो नहीं बल्कि दस पीढ़ियों से इस परंपरा को निभा रही हैं।

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तीन विधवा हैं-

इस परिवार में 3 विधवा और 11 सुहागन महिलाएं हैं। मगर सभी एक जैसी सफेद साड़ी ही पहनती हैं। कही बाहर जाना हो या घर में कोई कार्यक्रम हो या आम दिनचर्या इनका लिबास कभी नहीं बदलता। ये सभी महिलाएं हमेशा इसी पहनावे में ही नजर आती हैं।

चूड़ियों से पता चलता है कौन है सुहागन-

इस परिवार की एक बहू रजमंत बाई ने बताया कि इस परिवार की सुहागन महिलाएं जीवनभर न मांग में सिंदूर लगाती हैं और ना श्रृंगार करती हैं। इनमें कौन विधवा है और कौन सुहागन इसका पता सिर्फ इनकी चूड़ियां देखकर लगाया जा सकता है। दरअसल, सुहागन महिलाएं कांसे की चूड़ियां पहनती हैं और विधवा चांदी की चूड़िया पहनती हैं।

बेटियां पहन सकती हैं रंगीन कपड़े-

बिना श्रृंगार के रहने की ये परंपरा इस परिवार की महिलाएं पिछली 10 पीढ़ियों से निभा रही हैं। हालांकि, इस परिवार की बेटियां रंगीन कपड़े भी पहन सकती हैं और श्रृंगार भी कर सकती हैं। सादे लिबास में रहने की परंपरा केवल घर की बहुओं के लिए हैं।

इन महिलाओं को बेशक इतना कठिन जीवन जीना पड़ता है, उसके बावजूद भी लोग अपनी बेटी को इस घर की बहू बनाना अपना शौभाग्य समझते हैं। घर में एक साल पहले ही ग्रेजुएट पास नई बहू फिरंतन बाई आई है, पर उसे भी सादे लिबास में रहने से परहेज नहीं है।

पढ़ा-लिखा परिवार है-

ऐसा नहीं है कि इस परिवार के लोग पढ़े-लिखे नहीं है या फिर उन्होंने इस परम्परा को तोड़ने की कभी कोशिश नहीं की। तीर्थराम ने बताया कि 1995 में परिवार के एक सदस्य लोक सिंह की पत्नी ने इस परम्परा को तोड़ते हुए श्रृंगार करना शुरू किया था। जिसके परिणाम बहुत भयानक रहे।

दो साल में ही उसकी दोनों बेटियों एक बेटे, पति और खुद उस महिला की भी मौत हो गई। कुछ दिनों से परिवार की एक और महिला इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश कर रही है, मगर जब से उसने इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश शुरू की है, तब से वह शारीरिक कष्ट झेल रही है।

परिवार का सम्मान करते हैं लोग-

कौसमी के इस पुजारी परिवार को इलाके में बहुत सम्मान प्राप्त है। इस परिवार को इलाके के 22 गांव के पुजारी होने का दर्जा भी प्राप्त है। गांव के किसी भी घर में कोई खुशी का मौका हो या फिर नई फसल की बात हो लोग पुजारी परिवार को नहीं भूलते।

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