हरीश शर्मा
बचपन से कहावत सुनता आ रहा था ‘बहती गंगा Ganga में हाथ धोना’। बहुतों को ऐसा करते देखा-सुना गया। लेकिन खुद को इस पुण्य का लाभ नहीं मिल रहा था। भला हो कोरोना का, जिसके चलते लॉक डाउन हुआ और मुझे भी यह सुअवसर मिल गया कि पुरानी कहावत ‘बहती Ganga…’को अपने जीवन में स्वयं चरितार्थ कर सकूं। फिर इस कार्य के लिए सभी आवश्यक गुण भी तो मेरे पास थे ही।
मसलन कट-पेस्ट करने में मुझे महारत हासिल थी ही, जिसके चलते मैं अपने को महाज्ञानी साबित करने का महा प्रयास गाहे-बगाहे करता ही रहता था और पंडितों में महा पंडित तो मैं जन्मजात हूं ही। खैर जाने दीजिए अब अपना कितना गुणगान करूं, वैसे भी मेरे स्वयं के गुणगान पर लोग मन ही मन हंसते हैं लेकिन कुछ खुलकर सामने से विरोध करने का साहस नहीं दिखा पाते क्योंकि मैं ‘महा’ जो ठहरा। एकाध ने हिम्मत दिखाई तो अपनी कुटिलता से मैंने उलटी वाहवाही बटोरने का काम किया और उसे कथित औकात बता दी साथ ही सामने आने पर अपनी भुजाओं का जौहर दिखाने तक की भभकी एकाध जगह दे डाली, बस क्या था वो ‘सुटक’ गया और मैं अपने ‘डैने खर’ करता रहा।
अब आया जाय कहावत ‘बहती Ganga…’ चरितार्थ की राम कहानी पर। आप सभी जानते हैं कोरोना काल में असहायों की मदद को सरकारी-गैर सरकारी कई हाथ उठे। इस अवसर का लाभ और कथित सहानुभूति बटोरने के साथ ही अपनी तथा अपने दोनों कुल चिरागों की ‘ब्रांडिंग’ करने में भी मैं पीछे नहीं रहा यानी बहती Ganga के जल से आचमन कर ही लिया लेकिन कसक तो थी हाथ धोने की। जहां चाह वहां राह, आखिर वो अवसर भी आ ही गया।
मुझे एकदिन पूर्व ही ज्ञात हो गया था कि कल मेरे मोहल्ले में एक सरकारी टीम राहत पैकेट जरूरतमंद लोगों के बीच वितरण करने का कार्य करेगी। बस मैं इतना सक्रिय हो गया कि रातभर सो नहीं पाया और अपनी ब्रांडिंग की योजना बनाते हुए रात बिता दी। अगले दिन जैसे ही टीम आयी और राहत पैकेट उतार कर एक स्थान पर रखकर वितरण करने लगी, मैंने अपने रसूख का परिचय पत्र दिखाते हुए टीम का विश्वास प्राप्त किया और बांटने के नाम पर आठ-दस पैकेट खिसका लिए। टीम अपना काम कर लौट गई और अब मेरा काम शुरू हुआ।
अपनी प्रियतमा के साथ हम पहले से खिसकाये पैकेट अपने घर पर लोगों को बुलाकर बांटने लगे और फोटो शूट करवा लिया। हालांकि पैकेट देखकर लोग समझ गये कि ये पैकेट हमारी ओर से बनाये नहीं हैं बल्कि सरकारी टीम के ही हैं। एकाध ने टिप्पणी भी की लेकिन हें हें करके मैं झेंप गया।
मेरा मकसद तो सपत्नीक दान देते की ‘फोटो’ खिंचवाने मात्र से ही पूरा हो गया। बस क्या था, तुरन्त सोशल मीडिया पर फोटो मय कैप्शन पोस्ट की और ‘लाइक’ तथा ‘कमेन्ट’ की वर्षा होने के साथ ही मोबाइल पर बधाइयों का तांता लग गया। सोचिये अस्पताल में 5-5 आदमी मरीज को एक केला देते हुए फोटो पोस्ट कर सकते हैं तो मैंने कुछ भी तो गलत नहीं किया और बहती Ganga में हाथ धोने वाली कहावत को चरितार्थ कर दिखाया। अरे भई जब मौका मिला तो उसे छोड़ना किसी साधारण मनुष्य के लिए कोई बुद्धिमानी तो हो नहीं सकती, फिर मैं तो मैं ही ठहरा।*
इस व्यंग्य के लेखक हैं, पंडित हरीश शर्मा। आप उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं व दैनिक जागरण सहित अनेक पत्र—पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।
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(नोट: इस कथानक से किसी का कोई लेना-देना नहीं है और पूरी पटकथा काल्पनिक है। फिर भी यदि किसी के क्रियाकलापों से मेल खाती हो तो यह संयोग मात्र ही होगा और लेखक उसके लिए कहीं से भी जिम्मेदार नहीं है।)
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