हर किसी को चैन देने वाला  ‘कुंवर’ बेचैन कर गया

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कोरोना काल में मौतों का सिलसिला आम है. हर रोज किसी न  किसी अपने किसी न किसी खास की ‘खबर’ आ ही जा रही हैं. ये खबरें बेचैन करती हैं. बेचैन करने वाली इन तमाम खबरों में एक खबर डॉ बेचैन की भी थी. हिन्‍दी काव्‍य गंगा की एक अविरल धारा जो खुद संमदर होने का माद्दा रखती थी अनंत में विलीन हो गयी. जी हां हिन्‍दी कविता के सशक्‍त हस्‍ताक्ष्रर  डॉ कुंवर सिंह बेचैन का 29 अप्रैल को नोएडा के एक अस्‍पताल में निधन हो गया. कोरोना का राक्षस हिन्‍दी कविता के  इस कुंवर को लील गया. डॉ कुंवर जैसे लोगों की मृत्‍यु को सिर्फ व्‍यक्ति की मौत का नजरिया नहीं दिया जा सकता. यह एक विचार परंपरा के खत्‍म हो जाने जैसा है. एक विधा के खत्‍म होने जैसा होता है.

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रचनाओं के ज़रिये हुई मुलाकात

हिंदी ग़ज़ल और गीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कुंवर बेचैन का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के उमरी गांव में हुआ था. मुरादाबाद से उनका विशेष लगाव था. बेचैन’ उनका तख़ल्लुस था. असल में उनका नाम डॉ. कुंवर बहादुर सक्सेना था. डॉ बेचैन गाजियाबाद के एम.एम.एच. महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष रहे. डॉ बेचैन से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई पर उनकी रचनाओं के जरिये उनसे अक्‍सर मिलना होता था और हर मुलाकात खास. जितनी बार भी उनके लिखे को पढ़ा अलग मायने सामने आया. हर शब्‍द का अपना अर्थ होता है और शब्‍द की सार्थकता भी इसी में है कि वो सुनने, पढ़ने, लिखने वाले की भावनाओं को अर्थ दे सकें. कवि शायर या लेखक शब्‍दों को कुछ ऐसे संजोता है कि अक्षरों के छोटे से छोटा समूह भाव व्‍यंजना के विस्‍तृत आकाश का दृश्‍य उपस्थित करते हैं. डॉ बेचैन ऐसे ही रचनाकार थे. जापानी कविता की विधा हाइकु में कुछ अक्षरों के संयोजन से उन्‍होंने अपने विचार भावों को कुछ ऐसी ही व्‍यंजना की.

तटों के पास

नौकाएं तो हैं, किन्‍तु

पांव कहां है.

जमीन पर

बच्‍चों ने लिखा ‘घर’

रहे बेघर.

चिडि़या उड़ी

किन्तु मैं पिंजरे में

वहीं का वहीं

हर लाइन जीवन से भरी हुई

डॉ बेचैन खुद कितने जीवंत थे इसका अंदाजा उनकी रचनाओं से हो जाता है. हिन्‍दी कविताओं के साथ उन्‍होंने जिस खासियत के साथ हिन्‍दी गजल लिखीं वो उनकी लेखनी को एक विशिष्‍ट काव्‍य परंपरा में आगे का स्‍थान देता है. उनकी रचनाओं में लोक भी आया. काव्‍य गोष्ठियों के मंच पर अपनी कुछ लाइनें पढ़ देने के अलावा भी उनकी लेखनी ने हजारों ऐसी रचनाएं भी की हैं जो उन्‍हें सिर्फ मंच का कवि नहीं रहने देती. ये ठीक है कि मौत तो आनी ही है पर जिंदगी को भरपूर जीने का जज्‍बा उनकी कविताओं की खासियत थी. हताशा और निराशा जैसे शब्‍दों को उन्‍होंने कभी भी अपनी लेखनी से कागज पर नहीं उतारा.

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिन्दगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ

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जिदंगी को लेकर उनका नजरिया बड़ा ही स्‍प्‍ष्‍ट था. उन्‍होंने जिंदगी को बड़े ही सकारात्‍मक तरीके से लिया. अपनी इन लाइनों में उन्‍होंने जिंदगी का मकसद बताया है.

मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल.
तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी ‘कुँअर’
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल.
 
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
 
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
 

डॉ कुंवर बेचैन सिंह का रचना संसार

पिन बहुत सारे’, ‘भीतर साँकलः बाहर साँकल’, ‘उर्वशी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख’, ‘एक दीप चौमुखी, नदी पसीने की’, ‘दिन दिवंगत हुए’, ‘ग़ज़ल-संग्रह: शामियाने काँच के’, ‘महावर इंतज़ारों का’, ‘रस्सियाँ पानी की’, ‘पत्थर की बाँसुरी’, ‘दीवारों पर दस्तक ‘, ‘नाव बनता हुआ काग़ज़’, ‘आग पर कंदील’, जैसे उनके कई और गीत संग्रह हैं, ‘नदी तुम रुक क्यों गई’, ‘शब्दः एक लालटेन’, पाँचाली (महाकाव्य) कविता संग्रह हैं.

डॉ कुंवर ने अपनी रचानओं से सुनने पढ़ने वालों में खूब चैन बांटा पर उनका जाना चाहने वालों को बेचैन कर गया. ये बेचैनी शायद अब कभी खत्‍म नहीं होगी. क्‍योंकि कुंवर बेचैन जिस सफर पर निकले हैं उसका कोई अंत नहीं है.

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