व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा, जानें क्यों है अहम?

व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा

Vladimir Putin India visit: रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जल्द ही भारत आने वाले हैं. पुतिन की भारत यात्रा को लेकर आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने जानकारी दी कि पुतिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया है. हालांकि, इस यात्रा की तारीख़ अभी तय नहीं हुई हैं.
यह दौरा कई मायनों में बेहद अहम है- चाहे वह भारत-रूस के कूटनीतिक संबंध हों, व्यापारिक साझेदारी हो, या फिर वैश्विक भू-राजनीति! आइए जानते हैं इस दौरे की खास बातें…

यूक्रेन युद्ध के बाद पहली भारत यात्रा

इस यात्रा की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि यह यूक्रेन युद्ध के बाद व्लादिमीर पुतिन की पहली भारत यात्रा होगी. पिछले साल जुलाई 2024 में पीएम मोदी रूस गए थे और अब रूस की बारी है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस दौरे से भारत-रूस संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?

आर्थिक साझेदारी पर फोकस

भारत और रूस के बीच इस समय करीब 60 अरब डॉलर का व्यापार हो रहा है. 2021 में जब पुतिन भारत आए थे, तब 28 अहम समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे. अब, 2030 तक यह व्यापार 100 अरब डॉलर तक ले जाने की योजना पर चर्चा होगी.

पुतिन की अंतरराष्ट्रीय यात्राओं पर असर

यूक्रेन युद्ध के बाद व्लादिमीर पुतिन की विदेश यात्राएं कम हो गई थीं. 2023 में अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया था. तब से वह विदेश यात्राओं से बचते रहे हैं.

मोदी की संभावित रूस यात्रा

सूत्रों के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 9 मई को रूस जा सकते हैं, जहां वह मॉस्को के रेड स्क्वायर पर आयोजित 80वीं ग्रेट पैट्रियोटिक वॉर परेड में शामिल हो सकते हैं. यह भारत-रूस दोस्ती को और मजबूत करने का संकेत देगा.

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भारत की संतुलित विदेश नीति

भारत की विदेश नीति सदैव शांति, तटस्थता और कूटनीतिक संतुलन के सिद्धांतों पर आधारित रही है. जब भी दुनिया में कोई युद्ध या बड़ा संघर्ष हुआ, भारत ने सीधे किसी पक्ष का समर्थन करने के बजाय बातचीत और समाधान पर जोर दिया है.
विशेष रूप से, यूक्रेन संघर्ष के दौरान, भारत ने वार्ता और शांतिपूर्ण समाधान की आवश्यकता पर बल देते हुए, किसी भी पक्ष का सीधा समर्थन करने से परहेज किया है.
रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने भी यूक्रेन संकट पर भारत की तटस्थ और कूटनीतिक भूमिका की तारीफ की है.

  • भारत ने रूस की कार्रवाई की सीधे निंदा नहीं की, लेकिन नागरिकों की हत्या और युद्ध को लेकर चिंता जताई.
  • भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) और महासभा (UNGA) में रूस के खिलाफ प्रस्तावों पर मतदान से दूर रहा.
  • भारत ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के उस प्रस्ताव में भी भाग नहीं लिया, जो यूक्रेन के परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा से जुड़ा था.

इतिहास में भारत की विदेश नीति

अंतर्राष्ट्रीय युद्ध संकटों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया में स्वतंत्रता के समय से ही कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.
इतिहास में भी, भारत ने अंतरराष्ट्रीय संघर्षों के प्रति सतर्क तटस्थता की नीति अपनाई है.

1956 में जब हंगरी की क्रांति के समय सोवियत संघ ने सैन्य हस्तक्षेप किया, भारत ने इसकी निंदा नहीं की.
सोवियत हस्तक्षेप के एक वर्ष बाद वर्ष 1957 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत द्वारा निंदा नहीं किये जाने का बचाव करते हुए संसद में कहा कि “दुनिया में साल-दर-साल और दिन-ब-दिन बहुत-सी चीज़ें घटित होती रही हैं, जिन्हें हमने बेहद नापसंद किया है. हमने उनकी निंदा इसलिये नहीं की क्योंकि जब कोई किसी समस्या को हल करने की कोशिश कर रहा होता है तब उसे भला-बुरा कहने और निंदा करने से कोई मदद नहीं मिलती.” जवाहरलाल नेहरू का यह स्वयंसिद्ध भविष्य के संघर्षों के प्रति भारत के दृष्टिकोण का मार्गदर्शक बना रहा.

चाहे वह 1968 में चेकोस्लोवाकिया (1968) या अफगानिस्तान (1979) में सोवियत हस्तक्षेप हस्तक्षेप हो या 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण भारत ने इसी दृष्टिकोण का अनुसरण किया.
यह दृष्टिकोण भारत की ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा को दर्शाता है, जो विश्व को एक परिवार मानते हुए सभी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की वकालत करता है.