स्वास्थ्य और समृद्धि के बीच जागरूकता का पर्व है धनतेरस -हेमंत शर्मा
स्वास्थ्य और समृद्धि के बीच जागरूकता के पर्व धनतेरस के महत्व और भगवान धन्वंतरि की धार्मिक कहानी को अपने शब्दों में पिरोकार बता रहे हैं टीवी 9 भारतवर्ष के न्यूज डायरेक्टर और सीनियर जर्नलिस्ट हेमंत शर्मा जी…
आज धनतेरस है. धनतेरस दीपावली की दस्तक है. हम धनतेरस की चौखट पर खड़े होकर दीपावली की तरफ देखते हैं, धनतेरस स्वास्थ्य और समृद्धि के बीच जागरूकता का पर्व है. धनतेरस लक्ष्मीपूजा और नए बरतन खरीदने के कर्मकांड के साथ ही आयुर्वेद के प्रणेता व वैद्यकशास्त्र के देवता भगवान धन्वंतरि का जन्मदिन भी है. धन्वंतरि की गिनती भारतीय चिकित्सा पद्धति के जन्मदाताओं में होती है. वेदों में इनका उल्लेख है. पुराणों में इन्हें विष्णु का अवतार कहा गया है. समुद्र मंथन में जो चौदह रत्न निकले, उनमें एक धन्वंतरी भी थे. वे काशी राजधन्य के पुत्र थे, इसलिए ‘धन्वंतरि’ कहलाए.
भगवान धन्वंतरि आज ही के रोज़ समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर निकले थे. वे हिन्दू धर्म में मान्य देवताओं में से एक हैं. वे आयुर्वेद के प्रणेता और वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं. महाभारत, श्रीमद्भागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, विष्णुपुराण तथा ब्रह्मपुराण में उनका जिक्र है. श्रीमद्भागवत में भगवान विष्णु के जो 24 अवतार बताए गए हैं, उनमें धन्वंतरि 12वें अवतार हैं. समुद्र मंथन में शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था. इसीलिये दीपावली के दो दिन पहले धन्वंतरि का जन्म धनतेरस के रूप में मनाते है. इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का प्रादुर्भाव किया था.
भगवान विष्णु के रूप की तरह धन्वन्तरि की भी चार भुजायें हैं. ऊपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं. जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं. इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है. इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है.
इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं. सुश्रुत संहिता के अनुसार, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है.
ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे,
तस्मादश्विनौ, अश्विभ्यामिन्द्रः इन्द्रादहमया
त्विह प्रदेपमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः
यानि ब्रह्मा ने एक लाख श्लोक का आयुर्वेद रचा जिसमें एक हजार अध्याय थे. उनसे प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने और इन्द्र से धन्वंतरि ने पढ़ा. धन्वंतरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की.
नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार, ‘धन्वंतरि प्रणीत चिकित्सा शास्त्र, वैद्य विद्या ही आयुर्वेद है.’
वायु तथा ब्रह्माण पुराणों में धन्वंतरि को आयुर्वेद का उद्धारक बताया गया है. पौराणिक काल में धन्वंतरि भगवान के रुप में पूजनीय थे- ‘धन्वंतरिभगवान्पा त्वपथ्यात्.’ चरक संहिता में भी धन्वंतरि को आहुति देने का विधान है.
धन्वंतरि काशी के राजा थे, पुराणों में काशिराज दिवोदास का एक नाम धन्वंतरि कहा जाता है. सुश्रुत ने शल्यशास्त्र के अध्ययन की इच्छा प्रकट की थी, इसलिए धन्वंतरि ने इसी अंग का उपदेश दिया. सुश्रुत के पांच स्थानों में (सूत्र, निदान, शरीर चिकित्सा और कल्प में) शल्य विषय ही प्रधान है. इसलिए कुछ लोगों ने धन्वंतरि शब्द का अर्थ ही शल्य में पारंगत किया है. (धनुः शल्यं तस्य अन्तं पारमियर्ति गच्छतीति धन्वंतरि:)
बाद में धन्वंतरि एक सम्प्रदाय बना, जिसका संबंध शल्य शास्त्र से है, जो भी शल्य शास्त्र में निपुण होते थे, उन सबको धन्वंतरि कहा जाता था. इसी से चरक संहिता में धन्वंतरियाणां बहुवचन मिलता है. स्पष्ट है, आदि उपदेष्टा धन्वंतरि थे. इन्हीं के नाम से यह अंग चल पड़ा. गरुण और मार्कंडेय पुराणों के अनुसार, ‘गरुड़पुराण’ और ‘मार्कण्डेयपुराण’ के अनुसार वेद मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण ही धन्वंतरि वैद्य कहलाए थे.
विष्णु पुराण के अनुसार, धन्वंतरि दीर्घतथा के पुत्र बताए गए हैं. इसमें बताया गया है वह धन्वंतरि जरा विकारों से रहित देह और इंद्रियों वाला तथा सभी जन्मों में सर्वशास्त्र ज्ञाता है. भगवान नारायण ने उन्हें पूर्व जन्म में यह वरदान दिया था कि काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर आयुर्वेद के 8 भाग करोगे और यज्ञ भाग के भोक्ता बनोगे.
ब्रह्म पुराण के अनुसार, काशी के संस्थापक ‘काश’ के प्रपौत्र, काशिराज ‘धन्व’ के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे, जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ. राजा धन्व ने अज्ज देवता की उपासना की और उनको प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि हे भगवन आप हमारे घर पुत्र रूप में अवतीर्ण हों उन्होंने उनकी उपासना से संतुष्ट होकर उनके मनोरथ को पूरा किया जो संभवतः धन्व पुत्र तथा धन्वंतरि अवतार होने के कारण धन्वंतरि कहलाए, जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ.
इनके वंश में दिवोदास हुए, जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया. जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र ‘सुश्रुत संहिता’ के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे. बनारस में कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा हर कहीं होती हैं. कैसा अद्भुत इतिहास है इस शहर का शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस काशी कालजयी नगरी बन गयी.
धन्वंतरि के 3 रूप मिलते है…
– समुद्र मंथन से उत्पन्न धन्वंतरि प्रथम।
– धन्व के पुत्र धन्वंतरि द्वितीय।
– काशिराज दिवोदास धन्वंतरि तृतीय।
धन्वंतरि प्रथम तथा द्वितीय का वर्णन पुराणों के अतिरिक्त आयुर्वेद ग्रंथों में भी मिलता है, जिसमें आयुर्वेद के आदि ग्रंथों सुश्रुत्र संहिता चरक संहिता, कश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय में विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है. इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों भाव प्रकाश, शार्गधर तथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है. इसमें भगवान धन्वंतरि के संबंध में भी प्रकाश डाला गया है.
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी कुमार को था, वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ. जहां अश्विनी के हाथ में मधुकलश था, वहां धन्वंतरि को अमृत कलश मिला. क्योंकि, विष्णु संसार की रक्षा करते हैं, अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया. विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (3.51) में आया है, उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है-
‘सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। (ब्र.वै. 3.51)
जिन्हें वासुदेव धन्वंतरि कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हैं, सर्व भयनाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं, उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरि आप सब लोगों के आरोग्य की रक्षा करें.
Input: हेमंत शर्मा, न्यूज डायरेक्टर और सीनियर जर्नलिस्ट, टीवी 9 भारतवर्ष
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