पुण्यतिथि विशेष : कलम की ताकत ने हिला दी थी अंग्रेजों की जड़ें

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बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, सन् 1856 ई. को भारत के रत्नागिरि नामक स्थान पर हुआ था। इनका पूरा नाम ‘लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलक’ था। तिलक का जन्म एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम ‘श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक’ था।

श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक पहले रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे और फिर पूना तथा उसके बाद ‘ठाणे’ में सहायक उपशैक्षिक निरीक्षक हो गए थे।लोकमान्य तिलक के पिता ‘श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक’ का सन् 1872 ई. में निधन हो गया।

बाल गंगाधर तिलक अपने पिता की मृत्यु के बाद 16 वर्ष की उम्र में अनाथ हो गए। उन्होंने तब भी बिना किसी व्यवधान के अपनी शिक्षा जारी रखी और अपने पिता की मृत्यु के चार महीने के अंदर मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली।

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ऐसे हुई पढ़ाई

वे ‘डेक्कन कॉलेज’ में भर्ती हो गए फिर उन्होंने सन् 1876 ई. में बी.ए. आनर्स की परीक्षा वहीं से पास की सन् 1879 ई. में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की परीक्षा पास की और क़ानून की पढ़ाई करते समय उन्होंने ‘आगरकर’ से दोस्ती कर ली जो बाद में ‘फ़र्ग्युसन कॉलेज’ के प्रिंसिपल हो गए। दोनों दोस्तों ने इस बात पर विचार करते हुए अनेक रातें गुजारीं कि वे देशवासियों की सेवा की कौन-सी सर्वोत्तम योजना बना सकते हैं।

अंत में उन्होंने संकल्प किया कि वे कभी सरकारी नौकरी स्वीकार नहीं करेंगे तथा नई पीढ़ी को सस्ती और अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए एक प्राइवेट हाईस्कूल और कॉलेज चलाएँगे। उनके साथी छात्र इन आदर्शवादी बातों पर उनकी हँसी उड़ाते थे। लेकिन इन उपहासों या बाहरी कठिनाइयों का कोई असर उन दोनों उत्साही युवकों पर नहीं हुआ।

सार्वजनिक सेवा में बिताते थे समय

तिलक जी ने स्कूल के भार से स्वयं को मुक्त करने के बाद अपना अधिकांश समय सार्वजनिक सेवा में लगाने का निश्चय किया। अब उन्हें थोड़ी फुरसत मिली थी। इसी समय लड़कियों के विवाह के लिए सहमति की आयु बढ़ाने का विधेयक वाइसराय की परिषद के सामने लाया जा रहा था।

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तिलक पूरे उत्साह से इस विवाद में कूद पड़े, इसलिए नहीं कि वे समाज-सुधार के सिद्धांतों के विरोधी थे, बल्कि इसलिए कि वे इस क्षेत्र में ज़ोर-जबरदस्ती करने के विरुद्ध थे। सहमति की आयु का विधेयक, चाहे इसके उद्देश्य कितने ही प्रशंसनीय क्यों न रहे हों, वास्तव में हिन्दू समाज में सरकारी हस्तक्षेप से सुधार लाने का प्रयास था।

अत: समाज-सुधार के कुछ कट्टर समर्थक इसके विरुद्ध थे। इस विषय में तिलक के दृष्टिकोण से पूना का समाज दो भागों, कट्टरपंथी और सुधारवादियों में बँट गया। दोनों के बीच की खाई नए मतभेदों एवं नए झगड़ों के कारण बढ़ती गई।

विद्यालय की स्थापना

उसी समय इन्हीं विचारों के एक बुजुर्ग व्यक्ति ‘विष्णु कृष्ण चिपलूनकर’ उनसे मिले- जो ‘विष्णु शास्त्री’ के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने उन्हीं दिनों सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था, क्योंकि अपने अफ़सरों से उनकी नहीं बनती थी। वे इस निश्चय के साथ पूना आए थे कि वहाँ एक प्राइवेट हाईस्कूल चलाएँगे।

वे मराठी के सर्वोत्तम गद्य-लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। तिलक और आगरकर ने उनकी योजना को जानने के बाद उनके साथ विचार-विमर्श किया। बाद में इन तीनों के साथ एक और व्यक्ति शामिल हो गया- ‘एम.बी. नामजोशी’, जो असाधारण बुद्धि और ऊर्जा से परिपूर्ण थे।

चिपलूनकर और तिलक ने नामजोशी की सहायता से 2 जनवरी, सन् 1880 ई. को पूना में ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ शुरू किया। ‘वी.एस. आप्टे’ ने जून में और आगरकर वर्ष के अंत में एम.ए. करने के बाद उस स्कूल में शामिल हो गए। इन पाँच आदमियों ने अपनी गतिविधियों को स्कूल तक ही सीमित नहीं रखा।

लोगों की सेवा करने में सबसे आगे थे तिलक

तिलक ने प्लेग की बीमारी के दौरान देशवासियों की जो सेवा की, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता। जैसे ही पूना में प्लेग के लक्षण प्रकट हुए उन्होंने ‘हिन्दू प्लेग अस्पताल’ शुरू किया और कई दिनों तक इसके लिए धन जुटाने का कार्य किया। जहाँ पूना के अधिकांश नेता नगर छोड़कर भाग गए थे, तिलक वहीं रहे।

उन्होंने लोगों को दिलासा-भरोसा दिलाया। वे खोजी दलों के साथ स्वयंसेवक के रूप में गए, अस्पताल का प्रबंध किया, पृथक्करण शिविर में नि:शुल्क रसोई की व्यवस्था की, और जनता के सामने आ रही कठिनाइयों के बारे में श्री रेंड तथा महामहिम गवर्नर को बताते रहे।

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अपने समाचारपत्रों में उन्होंने प्लेग की समाप्ति के लिए सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न क़दमों का समर्थन दृढ़ता के साथ किया, इसी के साथ उन्होंने सलाह दी कि इन उपायों को सहानुभूतिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण ढंग से लागू किया जाए। उन्होंने जनता को सलाह दी कि वह अनावश्यक विरोध न करे।

समाचार पत्रों के प्रकाशन की शुरूआत

इसके बाद उन्होंने दो साप्ताहिक समाचार पत्रों, मराठी में केसरी और अंग्रेज़ी में द मराठा, के माध्यम से लोगों की राजनीतिक चेतना को जगाने का काम शुरू किया। इन समाचार पत्रों के ज़रिये ब्रिटिश शासन तथा उदार राष्ट्रवादियों की, जो पश्चिमी तर्ज़ पर सामाजिक सुधारों एवं संवैधानिक तरीक़े से राजनीतिक सुधारों का पक्ष लेते थे, कटु आलोचना के लिए वह विख्यात हो गए।

उनका मानना था कि सामाजिक सुधार में जनशक्ति खर्च करने से वह स्वाधीनता के राजनीतिक संघर्ष में पूरी तरह नहीं लग पाएगी।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल के लिए तिलक के विचार ज़रा ज़्यादा ही उग्र थे। नरम दल के लोग छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे।

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तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया। इस मामले पर सन् 1907 ई. में कांग्रेस के ‘सूरत अधिवेशन’ में नरम दल के साथ उनका संघर्ष भी हुआ।

राष्ट्रवादी शक्तियों में फूट का लाभ उठाकर सरकार ने तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद फ़ैलाने का आरोप लगाकर उन्हें छह वर्ष के कारावास की सज़ा दे दी और मांडले, बर्मा, वर्तमान म्यांमार में निर्वासित कर दिया। ‘मांडले जेल’ में तिलक ने अपनी महान कृति ‘भगवद्गीता – रहस्य’ का लेखन शुरू किया, जो हिन्दुओं की सबसे पवित्र पुस्तक का मूल टीका है। तिलक ने भगवद्गीता के इस रूढ़िवादी सार को ख़ारिज कर दिया कि यह पुस्तक सन्न्यास की शिक्षा देती है; उनके अनुसार, इससे मानवता के प्रति नि:स्वार्थ सेवा का संदेश मिलता है।

स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा

के नारे के साथ इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। सन् 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो उनके एवं पाकिस्तान के भावी संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ था, ‘इंडियन होमरूल लीग’ के अध्यक्ष के रूप में तिलक सन् 1918 में इंग्लैंड गए।

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उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटेन की राजनीति में ‘लेबर पार्टी’ एक उदीयमान शक्ति है, इसलिए उन्होंने उसके नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध क़ायम किए। उनकी दूरदृष्टि सही साबित हुई। सन् 1947 ई. में ‘लेबर सरकार’ ने ही भारत की स्वतंत्रता को मंज़ूरी दी। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए, इस बात से वह बराबर इंकार करते रहे कि उन्होंने हिंसा के प्रयोग को उकसाया।

देश को अलविदा कह गए तिलक

सन 1919 ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिए स्वदेश लौटने के समय तक तिलक इतने नरम हो गए थे कि उन्होंने ‘मॉन्टेग्यू- चेम्सफ़ोर्ड सुधारों’ के ज़रिये स्थापित ‘लेजिस्लेटिव काउंसिल’ (विधायी परिषदों) के चुनाव के बहिष्कार की गाँधी की नीति का विरोध नहीं किया।

इसके बजाय तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिनिधियों को सलाह दी कि वे उनके ‘प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग’ की नीति का पालन करें। लेकिन नए सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही 1 अगस्त, सन् 1920 ई. में बंबई में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी।

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