खून के आंसू शायद इन्हें ही कहते होंगे…
पहले जब वो जाता था तो मैं लिपटकर रोती थी। मैं रोती जाती और वो दुलारता जाता। आंसुओं के बीच जाने से पहले ही आने की तारीख तय हो जाती। वक्त के साथ सब बदल गया। बीते कई सालों में इतना रो चुकी हूं कि कभी-कभी लगता है कि आंसुओं के साथ मेरे खून में भी नमक का स्वाद होगा।
जिंदगी भी दूसरी औरतों से कुछ अलग नहीं
खून के आंसू शायद इन्हें ही कहते होंगे। दक्षिणी राजस्थान के रेलमगरा जिले की रहवासी आशादेवी बंजारा समुदाय से हैं। इनके समुदाय में आमतौर पर पुरुष रोजी-रोटी के लिए बाहर रहते हैं और साल में एकाध दफा ही घर लौटते हैं। कई बार तो घर लौटना लगभग बंद कर देते हैं। तब औरतें इंतजार में दिन बिताती हैं। आशा देवी की जिंदगी भी दूसरी औरतों से कुछ अलग नहीं।
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11 साल की उम्र में मेरी शादी और गौना साथ-ही-साथ हो गया। तब मेरा महीना शुरू हो गया था। हमारी बिरादरी में लड़की का महीना शुरू होने के बाद उसे नैहर में नहीं रखते, मर्द के साथ भेज देते हैं। मैं ससुराल आ गई। छोटी थी इसलिए बहुत सी बातें नहीं समझती थी। नहीं जानती थी कि ससुराल में सबका दिल जीतना क्या होता है, किसलिए मुझे सबसे आखिर में खाना चाहिए। घर पर मां को जैसा देखा था, वैसे ही अपनी सासू से भी लड़ती-झगड़ती। सब डांटते लेकिन पति बहुत प्यार करता था। मैं दुबली-पतली थी तो जिद करने पर वो हवा में मुझे उछाल देता। हम दोनों खूब हंसा करते थे।
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हमारी बिरादरी में उतना चोंचला नहीं होता, जैसे बड़े घरों में होता है। एक मिनट में लोग एक-दूसरे को मार ही डालना चाहते हैं तो दूसरे ही दम एक थाली में खाने लगते हैं। हमारे समाज के हिसाब से मैं खुशकिस्मत थी। मुझे भरपेट खाना मिलता। पति प्यार करता। धूप-पानी से बचाने के लिए सिर पर छत थी। बंजारा समाज से अलग हम एक जगह टिककर रह रहे थे क्योंकि मेरे पति के पास फैक्टरी का काम था। फैक्टरी बंद हो गई और उसके साथ ही जिंदगी भी बदल गई। ससुरालियों का व्यवहार भी बदल गया। काम खोजते-खोजते पति को ट्रक चलाने की नौकरी मिली। हम घर से अलग हो गए। तब मेरे पेट में पहला बच्चा आ चुका था।
हमने घर छोड़ा लेकिन रहते कहां!
कथड़ियां (सर्दी में ओढ़ने के लिए मिलाकर सिली गई चादरें) और पॉलीथिन जमा करके उनसे सिर पर छत खड़ी की। तब मुझे बहुत जोरों से रोना आ गया। पति पहली बार मुझे चुप कराने की बजाए डांट पड़ा। उस दिन से सब बदलने लगा।अब वो ट्रक चलाता है और कई बार हफ्तों घर नहीं लौटता है। जब भी घर आता है, शराब के नशे में गालियां देता और मारपीट करता है। कुछ दिनों पहले मेरा एक बेटा भी हुआ। वो भूख से मेरी सूखी छातियां टटोलता रहता है। हमारे पास कई बार खाने को नहीं जुटता है तो मैं पड़ोस से रोटियां मांगकर सूखी मिर्च के साथ बड़ी बेटी को दे देती हूं। गरीब के बच्चे समझदार हो जाते हैं, उनकी आंखें भी समझदार हो जाती हैं, मिर्च लगने पर वे रोती नहीं हैं। पति के बाहर जाने पर अब रोना नहीं आता, उसके साथ रहने पर ज्यादा रोती हूं।
(news18)
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