हम जिस समाज में रह रहे हैं, उस पर क्या लोकतंत्र का कोई नियम लागू होता है?
देश की गिरती अर्थव्यवस्था चिंता का विषय बनती जा रही है। लेकिन सरकार नए नए नियमों और कानूनों को लागू कर जनता कर जनता के लिए और भी मुसीबतें खड़ी कर रही है। जिनमें मोटर ह्वीकल अधिनियम में जुर्माना जिस तरह से वसूला जा रहा, वह आम आदमियों पर भारी पड़ रहा है। हैरान करने वाली बात है कि किसान कर्ज के बोझ से दब गया है। इसके बाद भी सरकार महंगाई को रोकने में कामयाब नहीं हो रही। डीजल पेट्रोल ही नहीं गैस और दैनिक सामग्रियों के दामों में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है। बिजली का बिल शहरों में 12 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत बढ़ने से गरीबों के ऊपर और भी बड़ा मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है।
हैरान करने वाली बात यह भी है कि महंगाई सातवें आसमान पर पहुंचती जा रही। जीडीपी दर पांच प्रतिशत पर पहुंच गई। यही आलम रहा तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि निचले स्तर से जीडीपी दर भाजपा सरकार में रिकॉर्ड कायम करेगी। सरकार की हर कोशिशें नाकाम हो रही जिससे जनता परेशान हो चुकी है। आम जनों से जुड़ी ऐसे कोई भी चीज नहीं जिसके दाम नहीं बढ़ रहे।
अनाज, दाल-दलहन, चीनी, फल, सब्जी, दूध जैसे वस्तुओं की कीमतों में जिस तरह से वृद्धि हो रही। इससे यह आसार नहीं दिखाई दे रहा कि यह आगे नहीं बढ़ेंगी। आम जनता के साथ यदि इसे बाजारों द्वारा लूट खसोट भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हालांकि, इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि महंगाई पहले कभी नहीं बढ़ी। लेकिन कुछ ही समय पास महंगाई पर नियंत्रण पा लिया गया। वर्तमान के हालात पर गौर करें तो मानो बाजारों में आग लगी हुई है। आम आदमी राहत को लेकर सरकार की ओर टकटकी लगाए देख रही। लेकिन उनको दिलासा के अलावां कुछ भी नहीं मिल रहा।
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महंगाई अपनी चरम पर है इसके बाद भी इसे आर्थिक विकास के लिए जरूरी बताकर जिम्मेदार गरीबों के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। हैरान करने वाली बात है कि महंगाई से गरीबों के यहां चूल्हा नहीं जल पाने की नौबत आ चुकी है। वहीं, मंत्री बेशर्मी भरी बयान बाजी भी कर रहे। देश के कृषिमंत्री का बयान आता है कि कीमतें अभी और भी बढ़ सकती हैं। खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री सलाह देते हैं कि अरहर की दाल महंगी है तो लोग खेसारी दाल खाना शुरू कर दें। इस तरह के बयानों से जनता का मनोबल भी लगातार सरकार के प्रति गिरता जा रहा है। जनता को दूर दूर तक हालातों में सुधार की स्थिति दिखाई नहीं दे रही।
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जिस सरकार से जनता उम्मीद लगाए है, उसे लेकर अब यह बड़ा सवाल खड़ा हो रहा कि जब बाजारों को ही कीमतें तय करना है, तो सरकार के होने का क्या मतलब? हम एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं। यहां सरकार से जनता को काफी उम्मीदें होती हैं। इसलिए जनता अपने मनपसंद की सरकार भी चुनती है। लेकिन अर्थव्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि पटरी पर आने का ही नाम नहीं ले रही। जनता हर तरह से परेशान है, वहीं सरकार कुछ ऐसे काम कर रही जिससे और भी फजीहत आने वाले समय के लिए पैदा कर रही। वाहनों का जुर्माना इस तरह बढ़ा दिया गया कि मानो इन रुपयों से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। यह सब जनता के साथ मजाक नहीं तो और क्या है। फिलहाल जो भी हो सरकार को इस समय गंभीरता से स्थितियों को सोचना होगा। कोई ऐसा हल निकालना होगा कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आने के साथ ही महंगाई से भी निजात मिल सके। सवाल यह है कि हम जिस समाज में रह रहे हैं, उस पर क्या लोकतंत्र का कोई नियम लागू होता है?
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