कैसे मीडिया इंडस्ट्री के लिए काल बना कोरोना वायरस – पार्ट 2

छंटनी के दौर में नौकरी बची है तो समझिए कि आप खुशकिस्मत हैं

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समरेंद्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

पिछली पोस्ट पर जो भी प्रतिक्रियाएं आयी हैं, उनमें से सिर्फ दो जिक्र लायक हैं। पहली प्रतिक्रिया में किसी ने कहा है कि सभी सेक्टरों का हाल ऐसा ही है। दूसरी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया एक मझौले अखबार के संपादक महोदय की है। उन्होंने मीडियाकर्मियों की मौजूदा तनावपूर्ण स्थिति के लिए बड़े मीडिया संस्थानों को जिम्मेदार ठहराया है। उनके मुताबिक यह नैतिक भ्रष्टाचार का मसला है।हर साल सैकड़ों करोड़ का मुनाफा कमाने वाले मीडिया संस्थान क्या दो-तीन महीने भी अपने कर्मचारियों का ख्याल नहीं रख सकते? वो चाहते तो अपने कर्मचारियों का ख्याल रख सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा करने की जगह अवसर का फायदा उठना सही समझा। वो खर्च कम करने के लिए छंटनी कर रहे हैं। वेतन में कटौती कर रहे हैं और लोगों को छुट्टियों पर भेज रहे हैं।

पहली प्रतिक्रिया, जिसमें कहा गया है कि सभी उद्योग धंधे संकट से जूझ रहे हैं, इस दौर की एक कड़वी सच्चाई है। पिछली पोस्ट में मैंने इसका जिक्र किया था कि इस साल देश की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ निगेटिव रहने का अनुमान है। इस सीरीज में हम मीडिया पर चर्चा कर रहे हैं, इसलिए मोटे तौर पर बात इसी पर केंद्रित रखेंगे। लेकिन जब भी जरूरत महसूस होगी हम अर्थव्यवस्था के कुछ बुनियादी बदलावों की चर्चा भी करते रहेंगे। जहां तक संपादक महोदय की प्रतिक्रिया का सवाल है, वह एक आधी-अधूरी सच्चाई है।

मसला इतना सीधा-सपाट नहीं हैं। चुनौती वाकई बड़ी है। यह चुनौती इसलिए भी बड़ी है क्योंकि मीडिया इंडस्ट्री बीते कुछ साल से संकट से जूझ रही थी। नोटबंदी और आर्थिक मंदी की वजह से उसका मुनाफा पहले ही घटा हुआ था। लिहाजा संपादक जी की प्रतिक्रिया पर भी हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी मीडिया इंडस्ट्री में कर्मचारियों की मौजूदा स्थिति पर गौर कर लेते हैं। उसके लिए सबसे पहले देश और दुनिया में मीडियाकर्मियों की छंटनी और वेतन कटौती से जुड़ी कुछ बड़ी घोषणाओं पर एक सरसरी नजर डालते हैं।

पश्चिमी देश:

1) दुनिया के सबसे ताकतवर मीडिया समूह में से एक – डिजनी के चोटी के अधिकारियों ने 20-50 प्रतिशत तक वेतन कटौती का फैसला लिया। यह बड़ा फैसला है।
2) फॉक्स न्यूज को नियंत्रित करने वाली कंपनी फॉक्स कॉर्प ने 700 एक्जीक्यूटिव्स की तनख्वाह में कम से कम 15 प्रतिशत की कटौती की है। ऊपर के पदों पर यह कटौती और भी ज्यादा है।
3) लंदन के फाइनेंशियल टाइम्स के सीईओ ने 30 प्रतिशत का सेलेरी कट लिया है। बोर्ड अफसरों की वेतन में 20 प्रतिशत कटौती हुई है। जबकि मैनेजर और संपादकों के वेतन में 10 प्रतिशत की कटौती की गई है।
4) फॉर्चून मैगजीन ने 35 कर्मचारियों की छंटनी की है। सीईओ का वेतन 50 प्रतिशत कटा है. बाकी कर्मचारियों की तनख्वाह 30 प्रतिशत घटायी गई है।
5) ब्रिटेन के टेलीग्राफ मीडिया ग्रुप ने गैर संपादकीय विभाग के कर्मचारियों के काम का दिन घटा दिया है। अब उन्हें सप्ताह में सिर्फ 4 दिन का ही रोजगार मिलेगा। लिहाजा उनका वेतन 20 प्रतिशत काट दिया गया है।
ये विकसित देशों के कुछ बड़े और सम्मानित मीडिया संस्थानों की मौजूदा स्थिति है। खबरों के मुताबिक ऐसे मीडिया संस्थानों की संख्या बहुत ज्यादा है जिन्होंने छंटनी की है, कर्मचारियों को छुट्टी पर भेजा है या फिर वेतन में कटौती की है। कुछ संस्थानों ने इनमें से दो या फिर सभी तीन कदम उठाए हैं। ये शुरुआती आंकड़े हैं।

भारत:

1) देश में सच्ची पत्रकारिता की मशाल जिंदा रखने का दावा इंडियन एक्सप्रेस समूह करता है. ये समूह हर साल लाखों रुपये गोयनका अवार्ड के नाम पर बांटता है. इस समूह ने वेतन कटौती का फैसला सबसे पहले लिया. यहां अस्थाई तौर पर कर्मचारियों के वेतन में 10 से 30 प्रतिशत की कटौती की गई है.
2) देश का सबसे बड़ा और ताकतवर अंग्रेजी मीडिया समूह टाइम्स ऑफ इंडिया है। विज्ञापन और अन्य तरीकों से इसको जितने पैसे मिलते हैं, उतना पैसा कोई और मीडिया समूह नहीं कमाता है। इस समूह ने अपनी संडे मैगजीन के सभी कर्मचारियों को एक झटके में नौकरी से निकाल दिया। जैसे वो कर्मचारी नहीं शत्रु हों। बाकी जगह भी कटौती का प्रस्ताव है।
3) हिंदुस्तान टाइम्स के टॉप मैनेजमेंट ने खुद ही 25 प्रतिशत वेतन कटौती का प्रस्ताव दिया है।
4) एनडीटीवी ने अपने कर्मचारियों की तनख्वाह में 10 से 40 प्रतिशत तक की कटौती का फैसला लिया है। ये स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड कंपनी है, इसलिए इसे अपने फैसलों के बारे में सेबी को बताना होता है। सेबी को कंपनी ने बताया है कि यह फैसला पहले क्वार्टर के लिए है। उसके बाद इस पर फिर से विचार होगा।
5) मीडिया ग्रुप क्विंट तो इस समय वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। उसने अपने आधे कर्मचारियों को छुट्टी पर भेज दिया है। 50 हजार से ऊपर जिनकी भी तनख्वाह है उसमें 50 प्रतिशत की कटौती की है। लेकिन इसमें एक ख्याल रखा गया है कि 50 हजार से ऊपर की तनख्वाह वालों को कटौती के बाद भी कम से कम 50 हजार रुपये मिलते रहें। दो लाख रुपये से ऊपर वेतन वाले सभी कर्मचारियों को उनकी सीटूसी का सिर्फ 25 प्रतिशत ही भुगतान होगा। यह फैसला हालात सामान्य होने पर वापस ले लिया जाएगा।
6) न्यूज नेशन ने अपनी अंग्रेजी वेबसाइट पर तैनात 16 कर्मचारियों की पूरी टीम को एक झटके में विदा कर दिया है। वहां अन्य भी जगह पर छंटनी और कटौती की तलवार लटक रही है।
7) इंडिया न्यूज समूह में बीते कई महीने से कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं मिल रही थी। यह हाल कोरोना वायरस से पहले का था। अब वहां क्या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
8) पत्रिका समूह ने अपने यहां पर कर्मचारियों की तनख्वाह ही रोक दी है। एक खबर के मुताबिक सभी को सिर्फ 15-15 हजार रुपये का ही भुगतान किया गया।
9) हरिभूमि अखबार में 30 प्रतिशत तक कटौती की गई है।
ये सिर्फ कुछ उदाहरण हैं। मीडिया इंडस्ट्री में काम करने वाले जानते हैं कि कोई भी संस्थान ऐसा नहीं है जो अछूता है। सभी जगह से छंटनी, छुट्टी पर भेजे जाने और वेतन कटौती की खबरें आ रही हैं। जिनकी नौकरियां बची हैं, उन्हें यह अहसास कराया जा रहा है कि वो खुशकिस्मत हैं। इसलिए ज्यादा चू-चपड़ नहीं करें, वरना उन्हें भी छांटा जा सकता है। कुछ मीडिया संस्थानों ने मार्च में ही ये फैसला लागू कर दिया है। कुछ इसे अप्रैल महीने से लागू कर रहे हैं। जो बचे हैं संकट जारी रहा तो वो भी ऐसा करने पर मजबूर हो जाएंगे। ज्यादातार मीडिया संस्थान इसे अस्थाई निर्णय बता रहे हैं। मगर कुछ ने ऐसा कोई इशारा नहीं किया है। मतलब वहां यह फैसला स्थाई भी हो सकता है। अतीत में ऐसे कई उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं।

कुछ बुनियादी सवाल-

आखिर मीडिया कंपनियां वेतन कटौती और छंटनी क्यों कर रही हैं? जैसा कि एक मझौले अखबार के संपादक ने कहा है… क्या ये महज नैतिक भ्रष्टाचार का मामला है? या फिर संकट सच में बड़ा है? और संकट बड़ा है तो कितना बड़ा है? इससे मीडिया की संरचना पर क्या फर्क पड़ेगा? मीडिया के कौन-कौन से धड़े सबसे अधिक प्रभावित होंगे? मतलब प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन मीडिया में किस-किस तरह के बदलाव होंगे? इससे मीडिया की आजादी पर क्या असर पड़ेगा? पत्रकारों की स्वतंत्रता पर क्या असर पड़ेगा? मीडिया पर स्टेट कंट्रोल बढ़ेगा या घटेगा? स्टेट कंट्रोल का अर्थ क्या है? कॉरपोरेट-पॉलिटिकल नेक्सस किस तरह से अभिव्यक्ति की आजादी (फ्रीडम ऑफ स्पीच) नियंत्रित करता है? जब भी कोई मंदी या आर्थिक रुकावट आती है तो उससे मीडिया और पत्रकारों की आजादी पर किस तरह का फर्क पड़ता है?

ये कुछ बुनियादी सवाल हैं। इन सवालों पर हम आने वाले दिनों में एक के बाद एक चर्चा करेंगे। लेकिन इन बुनियादी सवालों पर चर्चा करने के साथ हम कुछ और सवालों पर भी चर्चा करेंगे। मसलन इन बदलावों से मीडिया के फ्रंट लाइन पर किस तरह का असर होगा? वो पत्रकार जो जमीन पर काम कर रहे हैं, अपनी जान दांव पर लगा कर काम कर रहे हैं, उनकी सेहत पर कितना असर पड़ेगा? वो पत्रकार जो ईमानदार हैं और किसी तरह दो जून की रोटी कमा रहे हैं, वो कैसे जिंदा रहेंगे और अपनी जिम्मेदारियां पूरी करेंगे?

यहां एक बात हम सभी को ध्यान रखनी चाहिए कि आने वाले दिनों में बहुत कुछ बदलेगा। कोरोना वायरस का कहर जब थमेगा तो दुनिया पहले जैसे नहीं रहेगी। हम और हमारी दुनिया सीखेगी, उदार होगी इसकी संभावना कम है। आशंका ज्यादा इस बात है कि जो अधिकार, जो आजादी लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गई थी, वो अधिकार छीने जा सकते हैं, वो आजादी कम हो सकती है। यह एक बहुत बड़ा सच है कि जो आर्थिक तौर पर गुलाम है, वो सियासी तौर पर आजाद नहीं हो सकता। हमारे यहां मीडिया को ठीक उसी तरह विकसित किया गया, जैसे किसी गुलाम को खिला-पिला कर, किसी युद्ध के लिए तैयार किया जाता है।

यह लेखक के निजी विचार हैं। यह लेख लेखक के फेसबुक वॉल से लिया गया है। 

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