Contract Farming : क्या असल में है सौगात?
एग्रीकल्चर भारत की जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा है और देश के 60 प्रतिशत लोग इस पर आश्रित है। जीने के लिए एग्रीकल्चर एकमात्र सोर्स नहीं है लेकिन हमारे कल्चर के साथ मैच हो कर ये फंडामेंटल हमारे जहन में ही है।
आज के दौर में लोग खेती-किसानी से दूर जाते दिख रहे है, और दूर हो भी क्यों नहीं… जरूरतें बढ़ रही है लेकिन आमदनी नहीं। इसकी वजह से अब किसान दूसरा विकल्प खोज रहा है, जिसे उसकी आय बढ़े और वो अपनी ज़रूरतों को पूरा कर पाए।
वैकल्पिक रूप से, अपने खेत से जल्दी पैसा बनाने की उम्मीद में, किसान अपनी जमीन को कॉन्ट्रैक्ट पर देने के लिए उत्सुक है। लेकिन ये कॉन्ट्रैक्ट किसानों के लिए बहुत ही हानिकारक साबित हो सकता है। जानिये कैसे?
बढ़ेगा खतरा!
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से कॉर्पोरेट को एग्रीकल्चर सेक्टर में एंट्री मिलेगी, जिसका लाभ बड़ी मछलियां उठाना शुरू कर देंगी। ज़मीन सस्ते रेट पे कब्ज़ा करके वो किसानों को नुक्सान पहुचाने का काम करेगी।
हाल ही में, गुजरात में किए गए एक प्रावधान से गैर-किसानों को ‘किसान’ का दर्जा दिया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप इस कानून का दुरुपयोग संभव है
भारत में, किसानी और पशुपालन एक्टिविटीज साथ-ही-साथ चलती है। हमारी रूरल इकॉनमी का बेस ही यही है। पशुपालकों के पास अपना खुद का ग्रेज़िंग लैंड नहीं होता है। वह ज़्यादातर खुले मैदान में पशुओं के चरने ले जाते है।
सस्टेनेबल डेवलपमेंट नहीं हो सकता कॉर्पोरेट एजेंडा-
कई स्थानों पर व्यवस्थाएं मौजूद हैं जहां मवेशी खेतों में चरते हैं और उन्हें अपने गोबर से खाद देते हैं। हालांकि, अगर किसानों को अनुबंध के आधार पर किसी को अपनी भूमि सौंप देगा तो पशुधन क्या खिलाएगा।
इसके बाद खेतों की फर्टिलिटी बनाए रखने पर किसान दो फसलें या उससे ज्यादा भी उगाता है। ये भी एक प्रथा ही है, जोकि बरसों से चली आ रही है। लेकिन कॉर्पोरेट के लिए प्रॉफिट ही सब कुछ है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट कभी भी कॉर्पोरेट एजेंडा हो ही नहीं सकता है।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग भारत के खेतों में उगाई जा रही विदेशी किस्मों को आकर्षित कर सकती है। लाखों लोगों के लिए, स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली किस्मों ने सदियों से पोषण और जीविका प्रदान की है। यदि ऐसी किस्में चली जाती हैं, तो आबादी कुपोषण से ग्रस्त हो जाएगी, जैसा कि आज कई स्थानों पर हो रहा है।
भरण-पोषण करना राष्ट्रीय और राजनीतिक दायित्व-
खेत बिना श्रम के नहीं चल सकते। हालांकि, मशीनीकृत खेती को अनुबंध खेती में बढ़ाया महत्व प्राप्त होगा, जिसके परिणामस्वरूप खेत मजदूरों की संख्या में कमी होगी।
वर्तमान में, छोटे आकार के खेतों में मशीनरी की तैनाती अनइकॉनोमिक है। लेकिन यह बड़ी भूमि रखने वाली एक संविदा कृषि एजेंसी के लिए स्पष्ट विकल्प होगा। तो इससे ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ाना लाज़मी होगा।
भारत की जनता का भरण-पोषण करना एक राष्ट्रीय और राजनीतिक दायित्व है। हालांकि, सरकार मिट्टी की गुणवत्ता, पारंपरिक कृषि तकनीकों और समाज के हाशिये पर चल रहे समुदायों की सामाजिक और आर्थिक नाजुकता को बनाए रखने के महत्व को पहचानने में विफल रही है।
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