सुरक्षा की नई परिभाषा गढ़ता Corona : सी उदय भास्कर

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कोविड-19 की वजह से मरने वालों की बढ़ती संख्या और उससे संबंधित सामाजिक अव्यवस्था ने वैश्विक समाज पर जो असर डाला है, वह अप्रत्याशित है। फिलवक्त 9,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और दो लाख से ज्यादा संक्रमण के मामले दर्ज हो चुके हैं। कई जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि संक्रमण का सबसे बुरी स्थिति में पहुंचना अभी बाकी है, आगामी कुछ महीने निर्णायक होंगे। दुनिया भर में सुनामी की तरह Corona वायरस के सामुदायिक प्रसार के भयावह नतीजे हो सकते हैं। यही कारण है, पूरी कड़ाई से आइसोलेशन के उपायों व प्रभावी जांच प्रोटोकॉल लागू करना जरूरी हो गया है।

इसके आर्थिक नतीजे वैश्विक मंदी और शेयर बाजारों को प्रभावित कर रहे हैं। सुरक्षा तंत्र और राजनीति पर भी कोरोना(corona) का प्रभाव पड़ रहा है। कोरोना के साथ जीवन के तमाम महत्वपूर्ण पक्ष बड़े मूलभूत बदलावों से गुजर रहे हैं। बेशक, यह महामारी वैश्विक राजनीति को फिर बदलेगी और भारत पर भी असर डालेगी।

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आज यह याद किया जा सकता है कि पूर्व सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने अपनी पुस्तक पेरेस्त्रोइका (1987) में शीत युद्ध की चरम स्थिति पर चेतावनी देते हुए कहा था कि ‘नई राजनीतिक दृष्टि एक आम सिद्धांत को मान्यता देने की पैरोकारी करती है कि सुरक्षा अविभाज्य है। यहां या तो सभी के लिए समान सुरक्षा है या किसी के लिए भी नहीं’। हालांकि उस समय प्राथमिक ध्यान परमाणु हथियारों पर था और एक हद तक आतंकवाद पर भी, लेकिन समग्रता में गोर्बाचेव का कथन आज वैश्विक स्वास्थ्य संकट के समय पुरजोर और साफ गूंज रहा है।

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सुरक्षा की जो अवधारणा शीत युद्ध के दशकों में बड़े पैमाने पर जन संहारक हथियारों (डब्ल्यूएमडी) के समानांतर तैयार की गई थी, वह 9/11 की भयावहता के बाद जल्द ही डब्ल्यूएमडी-आतंकवाद गठबंधन के संदर्भ में बदल गई। इसी के तहत सैन्य प्रभाव के साथ कड़ी सुरक्षा को प्राथमिकता दी गई थी। किसी महामारी के खतरे और मानव सुरक्षा पर इसके प्रभाव को गैर-पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों की टोकरी के हवाले कर दिया गया था। नीतिगत प्राथमिकता की दृष्टि से भी महामारी के लिए धन जुटाने और महामारी से लड़ने की क्षमता निर्मित करने पर कम ध्यान दिया गया था।

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अब राष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा को विस्तार देने और दुरुस्त करने के लिए कोविड-19 ने हमें जो तजुर्बे दिए हैं, वे समग्र रूप से समावेशी हैं और मानव सुरक्षा के मसले को और व्यापक बना रहे हैं। मानव सुरक्षा एक बहुपक्षीय और श्रेणीबद्ध अवधारणा है। व्यक्तिगत आनुवंशिकी, सामाजिक आर्थिक स्थिति, पोषण स्तर और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र सहित अनेक कारक मानव सुरक्षा को आकार देते हैं। तजुर्बों और अमीर-गरीब के बीच स्पष्ट विभाजन से पता चलता है कि 21वीं सदी में कट्टरपंथी राजनीतिक विकास के बावजूद सभी मानव समान रूप से सुरक्षित नहीं हैं।

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20वीं शताब्दी में वैश्विक सुरक्षा पर सैन्य विचार और क्षेत्रीयता हावी थी, क्योंकि उस समय की प्रमुख शक्तियां इसी राह पर चली थीं। 20 साल के अंतराल में हुए दो विश्व युद्ध इंसानों द्वारा चुकाई गई भारी कीमत की दुखद गवाही देते हैं। इन दो विश्व युद्ध में नौ करोड़ से अधिक लोगों की जान गई थी। हिरोशिमा-नागासाकी की त्रासदी की पृष्ठभूमि में द्वितीय विश्व युद्ध का अंत और परमाणु युग का जन्म हुआ था। दुनिया के मुख्य किरदारों के लिए राजनीतिक परिदृश्य बदल गए थे। जो पारंपरिक शत्रु थे, वे परस्पर होशियार भागीदार बन गए, जैसे जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन साथ आ गए थे। वे अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य सहयोगी बन गए थे। दूसरी ओर, बदलते परिदृश्य ने युद्ध में सहयोगी रहे अमेरिका और सोवियत संघ को युद्ध के बाद परस्पर रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी में बदल दिया। तकनीकी रणनीतिक असुरक्षा उसी गति से बढ़ती गई, जिस गति से प्रतिद्वंद्वी देशों को घातक परमाणु हथियार हासिल होते गए। इस असुरक्षा को बहुत तेजी से स्वीकार किया गया और योजनाकारों ने लाखों की तादाद में इंसानों के मारे जाने का खतरा भी बता दिया।

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1965 में तत्कालीन अमेरिकी रक्षा सचिव रॉबर्ट मैकनामारा ने प्रतिकूल (सोवियत संघ) को नष्ट करने का आश्वासन दिया था। यहां तक कि प्रतिकूल समाज के 10 करोड़ लोगों को ठिकाने लगाने या खत्म करने क्षमता की चर्चा हुई थी। कहा गया था कि समाधान इस बात पर नि र्भर करेगा कि हम प्रतिकूल समाज को नष्ट करने में कितने सक्षम हैं।

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शुक्र है, परमाणु युद्ध नहीं हुआ, लेकिन परमाणु हथियार की तकनीकी-रणनीतिक प्रोफाइल ने भू-राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। तब गोर्बाचेव ने सुरक्षा के परस्पर जुड़े सिद्धांत पर भरोसा किया था और पेरेस्त्रोइका को सामने रखा था, जिसकी कीमत उन्हें और सोवियत संघ को बाद में चुकानी पड़ी। फिर भी आज वाशिंगटन और मास्को, परस्पर सजग प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। घातक परमाणु हथियारों की मौजूदगी दोनों देशों के बीच आज भी बाधा बनी हुई है, इसके साथ ही, दुनिया की समकालीन राजनीति और सुरक्षा के लिए चुनौती भी कायम है।

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आज कोरोना(Corona) वायरस की चुनौती से निपटने के लिए खास क्षेत्रीय राजनीतिक सक्रियता आई है। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के बीच संवाद की भारतीय पहल सराहनीय है, लेकिन इस संवाद में मुख्य रूप से पाकिस्तान की प्रतिक्रिया को देखा जा सकता है। उसने यहां भी एक द्विपक्षीय मुद्दे (कश्मीर) को उठा दिया। साफ है कि जब मानव सुरक्षा पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है, तब भी पाकिस्तान अपनी राजनीतिक मजबूरी को ही प्राथमिकता दे रहा है।

[bs-quote quote=”(ये लेखक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में छपी है)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”सी उदय भास्कर” author_job=”निदेशक, सोसाइटी ऑफ पॉलिसी स्टडीज” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/c-uday.jpg”][/bs-quote]

 

इतिहास के लंबे दौर में महामारियों की वजह से कई दुखद पड़ाव आए हैं, जब हजारों से लाखों लोगों की मौत हुई है। सार्क और वृहद दक्षिणी एशियाई क्षेत्र, जिसमें ईरान भी शामिल है, के लिए तत्काल चुनौती खड़ी हो गई है। आज पूरे क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा को समावेशी तरीके से समझना होगा और सैन्य आयाम व वैचारिक संकीर्णता की बाधा को पार करना होगा। जरूरी है, निहित क्षेत्रीयता अब मानवीय सुरक्षा की प्राथमिकता को स्वीकार करे और गोर्बाचेव के संदेश को दुनिया भर में फैला देना चाहिए कि अब सुरक्षा पहले से कहीं अधिक अविभाज्य है।

 

कोरोना(Corona) वायरस की चुनौती को वैश्विक सुरक्षा चुनौती के रूप में देखना चाहिए और इस महामारी के खिलाफ सामूहिक दृष्टि विकसित करने की नवजात भारतीय पहल को बनाए रखना चाहिए।

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