जितनी बड़ी जीत उससे कहीं ज्यादा खतरनाक विपक्ष की हार है…
कुमार शुभमूर्ति
आमतौर पर यह मान्यता है कि “जो जीता वही सिकंदर” लेकिन एक और मान्यता है जहां सफलता और विफलता कि परिभाषाएँ भिन्न हैं। इसी नज़रिये से मैं इस चुनाव को देख रहा हूँ।
यह भाजपा की बहुत बड़ी जीत है लेकिन जितनी बड़ी जीत है उससे कहीं ज़्यादा खतरनाक यह विपक्ष की हार है। यह चुनाव एक चुनाव नहीं था। यह एक छलावा है कि लोग यह मान लें कि इस देश में अब “हिन्दुत्ववाद” के युग का आरंभ हो गया।
भाजपा की इस जीत के पहले भी मैं मानता था कि भाजपा (रा. संघ के दर्शन के अनुसार) छल कपट में विश्वास करती है। उसकी इस भारी जीत के बाद भी मैं यही मानता हूँ कि भाजपा छल कपट पर विश्वास करती है।
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि इस चुनाव को एक निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव कहा जाए। जानकारियों पर आधारित अनुमान के अनुसार इस चुनाव को सबसे अधिक महंगा चुनाव माना गया है। सबसे ज़्यादा काला धन और विषमता से पूर्ण माना गया है। बाकी सारे दलों को मिला कर जो राशि होगी उससे भी कहीं ज़्यादा राशि भाजपा ने अकेले खर्च की है।
चुनाव में लगे गुप्त धन का कम से कम 90 प्रतिशत भाजपा के ही पास गया है। फिर, पैसा तो हमारे देश में हर जगह बोलता है। “हमारा बूथ सबसे मजबूत” हो या 11 करोड़ स्वयंसेवकों का दावा हो इस सब के पीछे पैसा तो है ही । सारी मीडिया, टीवी हो या अखबार और डिजिटल मीडिया भी, पैसे के ही बल पर सत्ता की गोदी में बैठा हुआ है। धन बल के अलावा सत्ता की दूसरी ताकतों का भी इस्तेमाल हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय की साख गिरा कर, उसे डरा कर कई critical अनुकूल निर्णय प्राप्त किए गए। मुख्य न्यायाधीश को भी एक गंभीर षड्यंत्र दीखने लगा। चुनाव आयोग का तो कहना ही क्या? सत्ता ने जो चाहा उसे आयोग ने मनमाने तरीके से और सख्ती से लागू किया।
चुनाव क्षेत्रों की ग्रुपिंग, असाधारण रूप से लंबी अवधि में चुनाव के 7-7 चरण, सत्ता की सहूलियत के अनुसार ही निर्धारित किए गए। चुनाव जीतने के लिए खुल कर राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक भावनात्मक मुद्दों को उछाला गया, फौज के नाम पर वोट की मांग की गई, गाँव गाँव में मुसलमानों को पाकिस्तानी बताया गया, केदारनाथ की गुफा में एकांत ध्यान को, सारे देश और दुनिया में प्रसारित करवाया गया।
इन सभी मुद्दों की तैयारी वर्षों से की जाती रही थी। यह मतदान नहीं हुआ मानों जनता को भावाविष्ट, सम्मोहित कर उसका मत छीन लिया गया। लेकिन जो भी हुआ एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुसार ही हुआ। इस सरकार को लोकतांत्रिक माना ही जाएगा। लेकिन हाँ तभी तक जबतक कि इस प्रचण्ड बहुमत की आड़ में लोकतन्त्र के विरुद्ध काम न शुरू कर दिया जाए। इस खतरे से गाफिल रहने का कोई कारण नज़र नहीं आता।
मोदी जी ने जीत के बाद दिये गए अपने भाषण में एक बात ध्यान देने लायक कही है। वे बदनीयति से कोई काम नहीं करेंगे यह उनकी घोषणा है। उनकी यह बात तभी भरोसा दिला सकती है जब कि वे कथनी और करनी से कुछ बातों को स्पष्ट करें। यह शंका इसलिए है कि उनके और उनके साथियों के लिए नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या भी बदनीयति से नहीं की थी। राष्ट्र भक्ति के कारण ही उसने ऐसा किया। मोदी जी को अपनी करनी से यह स्पष्ट करना होगा कि गांधी कि हत्या बदनीयति थी।
वे बदनीयत नहीं है तो क्या वे “हिन्दू राष्ट्र” के सिद्धान्त को करनी से भी तिलांजलि देंगे? यदि नहीं तो स्पष्ट है कि उनकी नीयत इस देश के करोड़ों हिंदुओं, मुसलमानों और दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति साफ नहीं है। इस देश में करोड़ों हिन्दू हैं और मुसलमान भी जो सभी धर्मों को बराबर का मानते हैं और वैसा ही उनका इस देश पर अधिकार है यह भी मानते हैं।
असल में यही तो भारत की आत्मा है। इसीलिए तो गांधी ने अपनी जान दी थी। इसी के बल पर तो भारत जिंदा है। भारत के इस स्वरूप के साथ कोई समझौता संभव नहीं है। यदि मोदी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरते हैं और सर्वसमावेशी भारतीय संस्कृति के साथ साथ इसके लोकतंत्र पर आघात करते हैं तो उनका इस देश का प्रधानमंत्री रहना भारतवर्ष की आत्मा और भारत के संविधान के विरुद्ध हो जाएगा ।
(इसे अहमदाबाद के वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता देसाई ने भेजा है। नचिकेता विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहते हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं)