जन्मदिन विशेष : वतन के लिए दे दी प्राणों की आहुति

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भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीन ऐसे नाम हैं, जिन्हें भारत का बच्चा-बच्चा जानता है। इन तीनों की दोस्ती इतनी महान थी कि इन्होंने एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एक साथ वीरगति प्राप्त की। भारत की आजादी के लिये अनेकों देशभक्तों ने अपनी-अपनी समझ से अलग-अलग रास्तों को अपनाया था। इन रास्तों पर चलकर अनेकों देशभक्तों ने शहादत भी प्राप्त की।

ऐसे ही देशभक्तों में से एक थे, शिवराम हरी राजगुरु। राजगुरु और सुखदेव दोनों ही भगत सिंह के बहुत अच्छे मित्र थे। लेकिन इन तीनों में जितनी ख्याति एक देश भक्त के रुप में भगत सिंह को मिली उतनी प्रसिद्धि से सुखदेव और राजगुरु वंचित रह गये। इनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी प्राप्त हैं। हम अपने वेब पेज के माध्यम से पूरे प्रयासों से राजगुरु से संबंधित तथ्यों को प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे हमारी साइट पर आने वाले लोग इनके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकें। राजगुरु का जन्म महाराष्ट्र के खेड़ा पूणे में 24 अगस्त 1908 को हुआ था। इनका पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था। इनके पिता का नाम हरिनारायण और माता का नाम पार्वती बाई था।

परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी

राजगुरु का परिवार बहुत सम्पन्न नहीं था। इन्होंने एक अभावग्रस्त जीवन व्यतीत किया। इनके जन्म के समय तक उनकी पैतृक (पूर्वजों की) सम्पदा खत्म हो चुकी थी, यदि कुछ शेष था तो बस परिवार का सम्मान। इसी सम्मान और अपने ज्ञान के आधार पर शिवराम के पिता धार्मिक अनुष्ठानों को करते थे। इन अनुष्ठानों और क्रियाक्रमों से जो भी थोड़ा बहुत धन प्राप्त होता वो उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था जिससे सभी की व्यवस्थित देखभाल नहीं हो पाती थी।

जलियांवाला बाग हत्याकांड का राजगुरू के व्यक्तित्व पर प्रभाव

जिस समय राजगुरु का जन्म हुआ था, उन दिनों भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिये क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने जोरों पर था। अनेक क्रान्तिकारी अंग्रेजी सरकार से संघर्ष करते हुये शहीद हो चुके थे। अंग्रेज सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों को लागू करते हुये भारतीयों पर अपने शासन की पकड़ को और मजबूत करने के लिये 1919 का रोलेक्ट एक्ट लागू किया।

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राजगुरु ने अपना जीवन-यापन करने के लिये प्राइमरी स्कूल में व्यायाम प्रशिक्षक की नौकरी कर ली। पाठशाला में ये विद्यार्थियों को स्वस्थ्य रहने के तरीकों को बताते हुये कुछ योग क्रियाओं को भी कराते थे। ये कुछ समय के लिये अखाड़ों में जाकर कुश्ती भी करते थे। राजगुरु देखने में इकहरे बदन के थे और व्यायाम करते रहने के साथ ही कुश्ती करने से भी इनकी शारीरिक बनावट में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था। किन्तु 20 साल की कम उम्र में ही इनके चहरे पर गम्भीरता, प्रौढ़ता और कठोरता स्पष्ट होने लगी थी। इसी पाठशाला में इनकी मुलाकात गोरखपुर से निकलने वाली “स्वदेश” पत्रिका के सह-संस्थापक मुनीश्वर अवस्थी से हुई। इस समय काशी क्रान्तिकारियों का गढ़ था। मुनीश्वर अवस्थी के सम्पर्क से शिवराम क्रान्तिकारी पार्टी के सदस्य बन गये।

क्रान्तिकारी के रुप में पहला कार्य

1925 में काकोरी कांड के बाद क्रान्तिकारी दल बिखर गया था। पुनः पार्टी को स्थापित करने के लिये बचे हुये सदस्य संगठन को मजबूत करने के लिये अलग-अलग जाकर क्रान्तिकारी विचारधारा को मानने वाले नये-नये युवकों को अपने साथ जोड़ रहे थे। इसी समय राजगुरु की मुलाकात मुनीश्वर अवस्थी से हुई। अवस्थी के सम्पर्कों के माध्यम से ये क्रान्तिकारी दल से जुड़े। इस दल में इनकी मुलाकात श्रीराम बलवन्त सावरकर से हुई। इनके विचारों को देखते हुये पार्टी के सदस्यों ने इन्हें पार्टी के अन्य क्रान्तिकारी सदस्य शिव वर्मा (प्रभात पार्टी का नाम) के साथ मिलकर दिल्ली में एक देशद्रोही को गोली मारने का कार्य दिया गया। पार्टी की ओर से ऐसा आदेश मिलने पर ये बहुत खुश हुये कि पार्टी ने इन्हें भी कुछ करने लायक समझा और एक जिम्मेदारी दी।

हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने

बनारस में रहते हुये राजगुरु की मुलाकात क्रान्तिकारी दलों के सदस्यों से हुई जिनके सम्पर्क में आने के बाद ये पूरी तरह से हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दल के सक्रिय सदस्य बन गये। इनका दल का नाम रघुनाथ था। राजगुरु निशाना बहुत अच्छा लगाते थे जिससे दल के अन्य सदस्य इन्हें निशानची (गनमैन) भी कहते थे। दल के सभी सदस्य घुल मिलकर रहते थे लेकिन दल के कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिनके लिये समय आने पर ये अपनी जान भी दे सकते थे। पार्टी में इनके सबसे घनिष्ट साथी सदस्य आजाद, भगत सिंह, सुखदेव और जतिनदास थे और देशभक्ति के रास्ते में भगत सिंह को तो ये अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्दी मानते थे। राजगुरु पार्टी द्वारा किसी भी क्रान्तिकारी गतिविधि को निर्धारित किये जाने पर उस गतिविधि में भाग लेने के लिये सबसे आगे रहते थे।

लाहौर षड़यन्त्र केस और फांसी की सजा

लाहौर षड़यन्त्र केस में राजगुरु को भी गिरफ्तार करके पुलिस ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ लाहौर षड़यन्त्र केस में शामिल करके केस चलाया। इन्हें सुखदेव और भगत सिंह के साथ 24 मार्च 1931 में फांसी की सजा दे दी गयी। लेकिन इनकी बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत होकर अंग्रेज सरकार ने एक दिन पहले 23 मार्च को इन तीनों को सूली पर चढ़ा दिया। भारत मां के ये सपूत मरकर भी अमर हो गये।

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