गणेश शंकर विद्यार्थी: क्रांतिकारी पत्रकारिता के गुरु

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी कलम को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी, उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रणी है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार रहे, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की।

जन्म

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर सन 1890 को अपनी ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में श्रीवास्तव (दूसरे) कायस्थ परिवार में हुआ। इनके पिता मुंशी जयनारायण हथगांव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। इनकी माता का नाम गोमती देवी था। पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे।

शिक्षा

गणेश शंकर की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया। गणेश शंकर का बचपन वहीं बीता और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई। उनकी पढ़ाई की शुरुआत उर्दू से हुई और सन 1905 में उन्होंने भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। उन्होंने सन 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के ‘कायस्थ पाठशाला’ में दाखिला लिया।

पत्रकारिता में पदार्पण

इलाहाबाद के ‘कायस्थ पाठशाला’ से ही गणेश शंकर का पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में सहयोग देने लगे। लगभग एक वर्ष कालेज में पढ़ने के बाद 1908 में कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. मासिक की नौकरी की। लेकिन अंग्रेज अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण उसे छोड़कर पृथ्वीनाथ हाई स्कूल, कानपुर में सन 1910 तक अध्यापकी की।

इसी अवधि में सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में समय-समय पर लेख लिखने लगे। 1911 में विद्यार्थी जी ‘सरस्वती’ में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद ‘सरस्वती’ छोड़कर ‘अभ्युदय’ में सहायक संपादक हुए। यहां सितंबर, 1913 तक रहे।

किसानों और मजदूरों का प्रताप

दो ही महीने बाद नौ नवंबर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ के नाम से निकाला। साप्ताहिक ‘प्रताप’ के प्रकाशन के सात वर्ष बाद सन 1920 में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और ‘प्रभा’ नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली।

‘प्रताप’ किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। उसमें देसी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे। ‘चिट्ठी पत्री’ स्तंभ ‘प्रताप’ की निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी।

शंकर की लोकप्रियता

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर गणेश शंकर जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देसी रियासतों की प्रजा पर किए गए अत्याचारों का भी तीव्र विरोध किया। विद्यार्थी जी कानपुर के लोकप्रिय नेता, पत्रकार, शैलीकार एवं निबंध लेखक रहे थे।

विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना आरंभ किया था। उसके बाद हिन्दी में पत्रकारिता के माध्यम से वे आए और आजीवन पत्रकार रहे। उनके अधिकांश निबंध त्याग और बलिदान संबन्धित विषयों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त वे एक बहुत अच्छे वक्ता भी थे।

साहित्य के शीर्ष स्तंभ

गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की। पत्रकारिता के साथ-साथ विद्यार्थी जी की साहित्यिक अभिरुचियां भी निखरती जा रही थीं। उनकी रचनाएं ‘सरस्वती’, ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’, ‘हितवार्ता’ में छपती रहीं। आज साहित्य केवल धन अर्जित करने का एक माध्यम बन कर रह गया है। आज हमारे समाज को ऐसे साहित्यकारों की दरकार है जो अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करना जानता हो और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझे।

भाषा-शैली में अपूर्व शक्ति

गणेश शंकर विद्यार्थी की भाषा में अपूर्व शक्ति है। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। उसमें आप वक्रता प्रधान शैली ग्रहण कर लेते हैं। जिससे निबंध कला का ह्रास भले होता दिखे, लेकिन पाठक के मन पर गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी, जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। गरीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे।

मृत्यु

गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निसहायों को बचाते हुए 25  मार्च सन 1931 में हो गई। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आंखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

 

 

 

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