जाते-जाते भी विवाद छोड़ जा रहे हैं पनगढ़िया

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अरविंद पनगढ़िया ने भले ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है, पर विवाद है कि पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रहा है। हालांकि उनका कार्यकाल 31 अगस्त तक है, पर अचानक इस्तीफा लोगों के गले नहीं उतर रहा है।

पनगढ़िया 65 साल के हैं। वे एक भारतीय-अमेरिकी अर्थशास्त्री हैं। वह कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय में रिटायरमेंट नहीं होता। वहां एक बार नियुक्त होने के बाद जबतक आदमी स्वस्थ है, तबतक नौकरी कर सकता है। यही वजह है कि पनगढ़िया ने नीति आयोग के बजाए कोलंबिया जाने का निर्णय लिया।

वह एशियाई विकास बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री और कालेज पार्क मैरीलैंड के अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र केन्द्र में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सह-निदेशक रह चुके हैं। प्रिंसटोन यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी हासिल करने वाले पनगढ़िया विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और व्यापार एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (एंकटाड) में भी विभिन्न पदों पर काम कर चुके हैं।

पनगढ़िया नीति आयोग के जनवरी, 2015 में पहले उपाध्यक्ष बने थे। उस समय योजना आयोग का समाप्त कर नीति आयोग बनाया गया था।

प्रकट रूप में पनगढ़िया ने कहा है कि यूनिवर्सिटी में वह जो काम कर रहे हैं, इस उम्र में ऐसा काम और कहीं पाना काफी मुश्किल है। मार्च, 2012 में पनगढ़िया को पद्म भूषण सम्मान मिला था। यह देश का तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है।

लेकिन जानकार पनगढ़िया के इस्तीफे के पीछे एक बड़ा कारण देख रहे हैं। उनका कहना है कि हकीकत यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच समेत कई संगठन उनकी नीतियों से खुश नहीं थे और इसके दबाव में उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा।

इस बारे में स्वदेशी जागरण मंच के लोगों का कहना है कि नीति आयोग का गठन सरकार को कुछ क्षेत्रों के लिए नीति बनाने में मदद करने के लिए किया गया था, लेकिन कई मामलों में वह अपनी सीमा से बाहर जाकर काम कर रहे थे। जीन संवर्धित फसलों का स्वदेशी जागरण मंच ने विरोध किया था। इसमें नीति आयोग ने दखल देते हुए सरकार से कहा था कि पूरे देश में जीन संवर्धित फसलों को अनुमति मिलनी चाहिए।

स्वदेशी जागरण मंच का मानना है कि नीति आयोग को कई चीजें करनी चाहिए थी। लेकिन पनगढ़िया पुरानी धारा को आगे बढ़ाने में लगे हुए थे। मंच का यह भी कहना है कि आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को ऐसी ही परिस्थितियों की वजह से जाना पड़ा था। उनपर भी ऐसा ही आरोप था।

मोदी सरकार के तीन साल में नीति आयोग का एक अहम रोल रहा है। अभी तक अपने कार्यकाल में मोदी सरकार द्वारा बदलाव की इस मुहिम का दारोमदार नीति आयोग को दिया गया जिसे सरकार ने योजना आयोग की जगह लेने के लिए स्थापित किया। अरविंद पनगढ़िया आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर रहे हैं और माना जा रहा है कि, उनके इस्तीफे से सरकार के इकोनॉमिक रिफॉर्म प्रोग्राम की रफ्तार पर असर हो सकता है।

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