एक बेटी की पाती बाबा साहेब के नाम…

आशा है आप जहाँ भी होंगे, कुशल और शांत होंगे और क्यों ना हो शांत,आप मानव समाज के लिए जो करके गयें हैं वह हमेशा तसल्ली देता होगा कि आपने अपने होने का हक़ अदा कर दिया है

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बाबा साहेब
सादर चरण स्पर्श

आपको जन्मदिवस की बहुत-बहुत बधाई।
आशा है आप जहाँ भी होंगे, कुशल और शांत होंगे और क्यों ना हो शांत,आप मानव समाज के लिए जो करके गयें हैं वह हमेशा तसल्ली देता होगा कि आपने अपने होने का हक़ अदा कर दिया है वरना कहाँ लोग कर पाते हैं अपने निजी जीवन के सम्पन्नताओं की लोलुप्ता को छोड़कर। बाबा आप सोच रहे होंगे कि आज के दिन मैंने आपको यह पत्र क्यों लिखा, इसमें मेरा अपना एक निजी स्वार्थ छिपा है। हमें अपनी कुछ बातें लोगों तक पहुंचाने है अब चाहे ये सही हो या गलत,अच्छा या बुरा, जो भी हम सोचते हैं,सब कहना है। लेकिन बाबा आज दुनिया वैसी नहीं रह गई है जैसी आपने सँविधान में रची थी।

आज लोग कहते नहीं है,शोर करते हैं।आज लोग सुनते नहीं हैं और सुनते भी है तो समझने के लिए नहीं, प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मौलिक अधिकारों की बात करके जिस संवाद व्यवस्था को आप लाना चाहते थे उसका स्थान प्रतिक्रिया ने ले लिया है। आज अतिवादीता अपने चरम पर है। मौलिक अभिव्यक्ति के तहत अपनी बातों को बिना डरे सबके सामने रखने का जो अधिकार देकर गए थे आज वही खतरे में आ चुका है। आप कुछ भी कहिए नहीं कि लोग कटघरे में खड़ा कर देते हैं और आपके संवाद में सोचने-समझने की सारी संभावनाएं मिटा देते हैं। इसलिए किसी से कुछ कहने में डर लगता है, सो आपको पत्र लिखा। कम से कम आप के बहाने और लोग भी पढ़ लेंगे।

बाबा आपको जानकर दुख होगा कि आप जिस धार्मिक अतिवादिता,सामन्तवादी व्यवस्था, वर्चस्ववादी संस्कृति, मानसिक-सामाजिक-राजनैतिक गुलामी से आजाद कराने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहें,आज हम पुनः उसी गुलामी के चक्रव्यूह में फंस गए हैं।ये और बात है कि आज की गुलामी का स्वरूप बदल चुका है। दुःखद ये भी है कि दलित समाज का वो तबका जो सम्भ्रांत,सम्पन्न हो चुका है वो भी ज़मीनी सच्चाई को छोड़ इसे पोषित करने में लगा हुआ है क्योंकि इस व्यवस्था के बने रहने में इनके भी स्वार्थ की पूर्ति होगी।

खतरा केवल समाज की मौलिकता,समरसता,स्वतंत्रता, न्याय को ही नहीं है बल्कि एक खतरे का डर मुझे आपको लेकर भी है और वह है आपका ईश्वरीयकरण किया जाना ।यही मेरी मुख्य चिंता है जिस पर मुझे आपसे बात करनी है।

बाबा आप रहते तो देखते हैं किस तरह से धीरे धीरे श्रद्धा,विश्वास,आस्था,सम्मान,शक्ति के नाम पर आपका भगवानीकरण किया जा रहा है।यही सबसे बड़ी विडंबना है कि जिस कुप्रथा के लिए आप तमाम उम्र लड़ते रहें,कहीं वही व्यवस्था आपके नाम पर समानांतर संस्कृति के रूप में समाज में पुनः स्थापित ना हो जाए। बाबा आज लोग आपके नाम की जयकार करते हैं, उनको जय बोलना ही बोलना है भले ही वह आपके द्वारा रचित सँविधान की बेसिक बातों को व्यवहारिकता में लाये या न लाएं।

मुझे डर लगता है ये देखकर की लोग आपको मंदिर में रखे जाने वाले भगवान की तरह पूजने लगें हैं,आरती करने लगें है,आपके नाम की जयकार-जय भीम करते हैं,महिमामंडन करते हैं,आपको अपने शादी के मंडप के बीच में रख फेरे लेते हैं,आपके नाम पर शादियां करते हैं,किसी उत्सव में आपको भगवान तुल्य बनाकर बनाकर पूजा अर्चना शुरू कर देते हैं यानी अब आप मनुष्य ना होकर एक चमत्कारिक शक्ति वाले ईश्वर बन रहे हैं जिस पर भविष्य में हम कोई बात नहीं कर सकेंगे,जिससे प्रश्न नहीं कर सकेंगे,जिसकी आलोचना नहीं कर सकेंगे जैसे वर्तमान परिदृश्य में हो रहा है।हम भगवान और धर्म के नाम पर कोई वाजिब सवाल भी नहीं उठा सकते।आज धार्मिक भक्ति को देश और राष्ट्रभक्ति से ऊपर रखा जा रहा है।

आपको अच्छा लगेगा बाबा यदि आपकी अंधभक्ति भी राष्ट्रभक्ति और तार्किकता से ऊपर हो जाए। आप तो जानते हैं ना कि यदी आप ईश्वर तुल्य हो जाएंगे तो एक साधारण मनुष्य का असीमित कष्ट,अपमान,त्याग, संघर्ष और मेहनत सब कुछ चमत्कारिक हो जाएगा।आगे आने वाली पीढ़ियां आपका अनुकरण करने में भी डरेंगी क्योंकि आप तो मनुष्य है ही नहीं, आपके पास तो अलौकिक शक्तियां हैं जिसके सहारे आपने सारे युद्ध चुटकी में लड़ा भी और जीता भी।अब ये काम कोई साधारण आदमी तो नहीं कर सकता कि छुआछूत का दंश झेलता हुआ एक बेहद साधारण व्यक्ति समानतावादी आधारों पर एक लोकतांत्रिक समाज की रचना कर दे

इस तरह से लोग एक आम मनुष्य के विकास और संघर्ष के सारी कहानी और उम्मीद को खत्म कर देंगे जिससे प्रेरित हो साधारण व्यक्ति असाधारण इतिहास रच सके। जिस खतरों से आप हमें अवगत कराते रहें अब उसी आधार पर एक नया व्यापार शुरू हो रहा है।बाबा, दुकानों पर आपकी फोटो, मूर्तियां बड़ी आसानी से मिल और खरीद ली जाती है लेकिन आपकी वह किताब जिसे संविधान कहते हैं,यदा कदा ही दिखती हैं।अधिकतर घरों में आप दीवारों पर टंगे मिलेंगे लेकिन वो किताब नही मिलेगी।एक विद्यार्थी हैं विकाश, बड़ा ही संवेदनशील, तार्किक और विद्रोही टाइप का,शायद कुछ कुछ आप जैसा।घर आये थे,काफी बात हुई। बातों-बातों में उन्होंने एक बेहतरीन बात बोली,कहा “मैडम, विचारों को मारना मुश्किल है इसलिये लोग मूर्ति बनवा देते है। इसप्रकार विचार गौड़ हो जाता है व उस व्यक्ति का प्रतीक प्राथमिक।”

सही भी है क्योंकि मूर्ति का संबंध स्वतः ही वाह्यता से हो जाता है और विचार चेतना व अन्तःमन से जुड़ा होता है। बाबा मैंने देखा है जब हम गांधीजी की बात करते हैं तो उदघोष होता है ‘गांधी जी -अमर रहे’ लेकिन जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बात करते हैं तो उदघोष होता है ‘बाबा साहेब की जय हो’यानी आज भी गांधीजी मानव के रूप में हमारे साथ हैं और आपको भगवान बनाया जा रहा है।मैंने तो कभी नहीं देखा 2 अक्टूबर को शाम में दीप जलाकर उन्हें प्रकाशमान करना। आज भी उन्हें लोग 2 अक्टूबर को प्रेम और अहिंसा की बात करते हैं,बच्चे गांधीजी के ऊपर नाटक प्ले करते हैं, गाना गाया जाता है,शिक्षक अपने बच्चों को गांधी जैसा बनने की प्रेरणा देते है लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जो बाबासाहेब जैसा बनने की कोशिश करते हैं। जी नहीं मैं इस बात को पूरी मजबूती से रखना चाहती हूं कि आज भी लोग बाबा साहब को अनुकरण करते हैं। किसी व्यक्ति का अनुकरण करना उसके सर्वशक्तिमान होने का परिचायक होता है और किसी के जैसा बनना उसके मनुष्य होने की पहचान होती है।

खैर हो सकता है कि मैं यहां गलत हूं लेकिन समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मुझे यह भान है कि समाज में की जाने वाली अंतः क्रियाएं,वाहयक्रियाएँ, प्रक्रियाएं, आंतरिकरण और सामान्य क्रियाएं सभी मिलकर किस प्रकार से किसी एक छोटी सी विचारधारा का संस्थागत स्वरूप में संस्थायीकरण करते हैं। यह बात लोगों को सही व तार्किक नहीं लग सकता है लेकिन समाज और उसकी संस्थाओं के बनने व विकसित होने की प्रक्रिया में हमारी छोटी-छोटी बातें,आदतें और विचारधाराएं बहुत महत्वपूर्ण कारक के रूप में अपनी भूमिका अदा करती हैं।(वैसे समाज व सामाजिक क्रियाओं को समझने की समझ समाजशास्त्र बखूबी देता है,अच्छा विषय है,पढ़ना चाहिए।कहते हैं जहां न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे समाजशास्त्रीय)

बाबा और जो दूसरा खतरा है-वो है आपको सीमित किया जाना।ये सच है कि अस्पृश्य जाति में जन्म लेने से आपने बहुत सारी वेदनाएं सही और जिसके खिलाफ आप लड़े भी पर बाबा… आप जिस समानता,भाईचारा व सामाजिक न्याय से ओतप्रोत समाज की कल्पना करते थे उसमें तो संपूर्ण मानव जाति का भला और विकास होगा तो फिर क्यों आपको एक विशेष वर्ग से ही जोड़कर क्यों देखा जाता है? क्यों हर कोई आपको अपना बनाकर अपनी अपनी ज़द में रखना चाहता है। ये सब कुछ भी नही बाबा,सब मिलकर आपके विचारों का विस्तारीकरण न करके आपका राजनीतिकरण कर रहें हैं। आपने तो लिंग,जाति,धर्म सभी तरह के विभाजन को हाशिए पर रखते हुए मनुष्य को मनुष्यता के आधार पर रहने की, जीवन जीने,तर्क वितर्क करने की समान रूप से आधारभूत परिस्थितियां दिया।

स्त्री के रूप में मेरे लिए तो आप उन महान व्यक्तित्वों में से एक हैं जिन्होंने हमारे संवैधानिक व मौलिक अधिकारों के लिए उस समय भी अडिग रहें जबकि संसद में बैठने वाला बुद्धिजीवी वर्ग का बड़ा तबका आपसे असहमत था फिर भी आपने पूरी कोशिश की थी इस आधी आबादी को संपूर्ण न्याय व समान अवसर दिलाने की आपको पुनः एक बार जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं बाबा। आपके लिए दीप जलाऊँ ना जलाऊँ, यह निर्णय लेने का अधिकार तो आपने मुझे दे दिया है तो ये मेरा अपना विवेक है कि मैं क्या करती हूं लेकिन इतना जरूर आश्वासन देती हूं कि एक शिक्षक,मनुष्य,स्त्री के रूप में के रूप में मैं हमेशा अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार लोगों को जगाने का प्रयास करती रहूंगी।आपका साथ और आशीर्वाद मेरे साथ हमेशा बना रहे,अपनी इसी हार्दिक इच्छा के साथ मैं यह पत्र यहीं समाप्त करती हूं।

सादर नमन और आपको बहुत प्यार
आपकी बेटी प्रतिमा

नोट ::– मेरा यह विचार पूरी तरह से मेरा व्यक्तिगत है। किसी के लिए किसी भी दृष्टि से उचित व तार्किक होने का दावा नहीं करता है। आप सभी की सहमति असहमति का स्वागत है।
लेखक डॉ प्रतिमा गोंड बीएचयू महिला महाविद्यालय में सोशियोलॉजी की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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