विरोध की धार और कलम की मार को जेल की दीवार कभी नहीं बांध पाई

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प्रदीप कुमार
हुकूमतें अपनी मुखालफत से बौखला कर मुख़ालिफ़ों की पुरानी फाइलें खंगालने लगती हैं। उसके इशारे पर उसका फरमाबर्दार निजाम जुट जाता है, घेरेबन्दी में। कानूनी-गैरकानूनी सारी तिकड़मों के जरिये विरोधी को धकेल दिया जाता है जेल के सीखचों के पीछे। ये सोच कर कि वो डर जाएगा, टूट जाएगा । कई बार ऐसा हो भी जाता है मगर कुछ लोग अलग ही मिट्टी के बने होते हैं।
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उनकी हिम्मत और तेवर की बानगी तो देखिए
पत्रकार, चित्रकार, नेता, चिंतक चंचल ऐसी ही अलग मिट्टी के हैं। जो लोग उन्हें और उनके मिजाज को जानते हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि इस बार भी चंचल न झुकेंगे, न टूटेंगे। मैं चंचल को छात्र राजनीति के वक्त से न सिर्फ जानता हूँ बल्कि कई संघर्षों में उनका हमसफ़र भी रहा। चंचल लिखते भी खूब हैं और लड़ते भी खूब हैं। उनकी हिम्मत और तेवर की बानगी तो देखिए, मालूम था कि 40 साल पुराने मामले को खोला गया है तो जेल जाना ही होगा।
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एलानिया कहा – जेल जा रहा हूँ, वहॉं लैपटॉप, मोबाइल वगैरह नहीँ होगा इसलिए जाते जाते आखिरी पायदान से अपनी बात कह के जा रहा हूँ, अब शायद हुकूमत बदलने के बाद ही लौटूँ। सच मानिए ये जज्बा, ये हौसला सिर्फ गांधी, लोहिया की सिविल नाफरमानी में यकीन रखने वालों में ही होता है। 40 साल पहले भी जालिम का कहा नहीं माना और आज भी नही माना।
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चंचल फेसबुक पर , अखबारों में खूब लिख रहे थे, सत्ता व्यवस्था की जमकर बखिया उधेड़ रहे थे, ऐसे में ताज और तख्त को बौखलाना ही था। वही हुआ भी। बात सिर्फ लिखने की नहीं, पढ़ने की भी है, उन्हें पढ़ने वालों की संख्या में लगातार इजाफा घबराहट की असली वहज रही। पता नहीं क्यों हुकूमतें ऐसी गलती बार बार करती हैं।
बेबाक कलम को चूमने की ख्वाहिश
इतिहास गवाह है कलम की धार और मार को जेल की दीवार कभी रोक नहीं पाई हैं। आप सब मुझे माफ़ करियेगा क्यों कि मैं चंचल को जेल भेजे जाने पर न तो अफसोस जाहिर करूँगा और न ही मजम्मत, मैं तो चंचल के जज़्बे और हिम्मत को सलाम करने के साथ ही उनकी बेख़ौफ़, बेबाक कलम को चूमने की ख्वाहिश जाहिर करूँगा।
(प्रदीप कुमार काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्‍यक्ष व रफ्तारी पत्रकार हैं। इसे उनके फेसबुक वाल से लिया गया है। चित्र में चंचल किसी समारोह में भाषण देते दिख रहे हैं)
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