18 रुपए की नौकरी करने वाले जयराम आज कमाते हैं 70 करोड़ सालाना

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काम कोई भी हो छोटा नहीं होता, बस करने वाला उसे छोटा न समझे क्योंकि जिसने भी शुरुआत छोटे से की है आज वो सफलता की बुलंदियो को छू रहा है। जिस तरह से एक चींटी कतरे कतरे से चट्टान बना देती है उसी तरह से मेहनत करने वाला इंसान उस छोटे से काम को पूरी दुनिया में फैला सकता है। कुछ ऐसी ही कहानी है हमारे आज के हीरो की जिसने शुरुआत तो एक ऐसे काम से की थी जिसमें कोई भविष्य नहीं था, लेकिन जयराम के सपनों ने उसी काम से अपने सपनों को पूरा करने की जिद पकड़ ली।

18 रुपए महीने की नौकरी

मात्र 18 रुपए की नौकरी करने वाले जयराम आज सालाना 70 करोड़ सालाना कमाते हैं। शायद आपको यकीन न हो लेकिन हकीकत यही है। दरअसल, जयराम ने बचपन में घर से भागकर एक होटल में 18 रुपए की पगार पर नौकरी कर ली औऱ उन्हें होटल में बर्तन धोने का काम दिया गया।

पिता के डर से मुंबई चले गए

जयराम का बचपन कर्नाटक के उडिपी में बीता। पेशे से ऑटो ड्राइवर उनके पिता काफी सख्त थे और परीक्षा में कम नंबर आने या स्कूल में शरारत करने पर वे बच्चों की आंख में मिर्च झोंक देते थे। जयराम सात भाई-बहन थे। जब वे 13 साल की उम्र में थे तो स्कूल में फेल हो गए। अपने पिता की मार खाने के डर से उन्होंने चुपके से पिता के पर्स से कुछ पैसे निकाले और घर से भाग कर मुंबई जाने वाली एक ट्रेन पकड़ ली।

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उनके साथ उन्हीं के गांव का एक व्यक्ति और था जो मुंबई जा रहा था। उसने जयराम को नवी मुंबई के पनवेल में स्थित हिंदुस्तान ऑर्गेनिक केमिकल्स (HOC) की कैंटीन में काम पर लगा दिया। यहां वह बर्तन धुलते थे, जहां उन्हें सिर्फ 18 रुपये महीने के मिलते थे। कुछ दिन मुंबई में काम करने के बाद जयराम ने दिल्ली की तरफ रुख किया और ये साल था 1973 जब वो दिल्ली आ गए।

कैंटीन का ठेका मिला

उस समय उनके एक भी दिल्ली में एक रेस्टोरेंट में मैनेजर के पद पर नौकरी कर रहे थे। जयराम की जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट तब आया जब सरकार गाजियाबाद में सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स की स्थापना कर रही थी और वहां की कैंटीन का ठेका जयराम को मिल गया। उन्होंने कैंटीन चलाने के लिए मात्र 3 लोगों को रखा और लोगों को खाना उपलब्ध कराने लगे।

खुद का रेस्टोरेंट खोला

धीरे-धीरे उनके खाने की क्वालिटी की वजह से उनका नाम चारों तरफ फैलने लगा। जयराम ने उसके बाद दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी में अपना पहला रेस्टोरेंट खोला। इसका नाम उन्होंने सागर रखा। हालांकि उनके पास इन्वेस्टमेंट के नाम पर सिर्फ 5,000 रुपये ही थे, लेकिन अपनी लगन और मेहनत पर भरोसे उन्होंने अपनी धाक जमा ली।

उन्हें हर महीने दुकान का 3,000 रुपये किराया देना होता था, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी खाने की क्वॉलिटी से कोई समझौता नहीं किया। वह सुबह 7 बजे से देर रात तक काम में लगे रहते थे। उनका साउथ इंडियन रेस्टोरेंट इतना पॉप्युलर हो गया, कि बैठने की सीट्स नहीं खाली रहती थीं और लोगों को लाइन लगाकर इंतजार करना पड़ता था। सागर आज गरीब लोगों के लिए भी रेस्टोरेंट चलाते हैं। जहां पर गरीबों को मात्र 10 रुपए में भरपेट खाना दिया जाता है।

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