Corona: लॉकडाउन का चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र
कोविड-19Corona के खिलाफ भारत की जंग अब तक अनुकरणीय रही है। इस महामारी की शुरुआत में ही सीमाओं को बंद कर दिया गया। बचाव को लेकर सार्वजनिक घोषणाएं की जाने लगीं। राज्य सरकारों को जिम्मेदारी दी गई। उद्योग जगत मदद के लिए आगे आया। और, लोगों ने भी इसके खिलाफ कमर कस ली। संक्रमण की जांच में धीमापन एक कमी जरूर रही, जिसकी वकालत स्वास्थ्य विशेषज्ञ हफ्तों से करते आ रहे थे, लेकिन सुखद है कि अब उस खाई को भी पाट लिया गया है और सोमवार से निजी स्वास्थ्य क्षेत्र भी इस जांच-प्रक्रिया में शामिल हो गए हैं। फिर भी, यह सवाल भारतीयों के जेहन में है कि संक्रमण का प्रसार रोकने के लिए पूरा देश नहीं, तो इसके एक बड़े हिस्से को हमें लॉकडाउन नहीं कर देना चाहिए?
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यह एक मुश्किल घोषणा है। एक तरफ हमने देखा है कि शटडाउन से कई देशों को इस जंग में मदद मिली है। हमारा अपना अनुमान है कि तीन हफ्ते तक पूरी तरह लॉकडाउन से संक्रमण का प्रसार 80 फीसदी तक कम किया जा सकता है। फिर भी, इसमें कई पेच हैं। संभव है कि इससे Corona वायरस की मारक क्षमता कम हो जाए, जैसा कि अन्य विषाणु का चरित्र होता है। और यह भी मुमकिन है कि बढ़ता तापमान और आर्द्रता इसके प्रसार की गति थाम दे। मगर कोई भी गंभीर वैज्ञानिक इन तथ्यों की पुष्टि नहीं कर रहा। फिर, लॉकडाउन कम से कम तीन हफ्तों का होना चाहिए, तभी यह पूरी तरह से प्रभावी होगा। हालांकि दो हफ्ते की भी यह कवायद कुछ हद तक उपयोगी साबित हो सकती है। दूसरी तरफ, शटडाउन की भारी आर्थिक कीमत देश को चुकानी पड़ सकती है, और यह भी पूरे दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि ऐसा कदम भारत में काम करेगा। शनिवार को ही हमने देखा कि लाखों प्रवासी मजदूर अपने गांव वापस लौटे हैं। इस बात की काफी आशंका है कि वे अपने साथ इस जानलेवा Corona वायरस को भी उन इलाकों तक ले गए होंगे, जहां स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा काफी कमजोर है। इनसे खुद को घरों में क्वारंटीन करने की हम कितनी उम्मीद कर सकते हैं?
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अनुमान है कि तीन हफ्ते तक पूरी तरह लॉकडाउन से संक्रमण का प्रसार 80 फीसदी तक कम किया जा सकता है।
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ऐसे में, सवाल यह है कि पूरी तरह लॉकडाउन का क्या विकल्प है? जाहिर है, सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक अलगाव के मूल संदेश पर ही हमें जोर देना होगा, जैसे- दस या इससे अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर रोक और सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता में कमी की बजाय वृद्धि करना। हमें बार-बार अपना हाथ साबुन से धोना होगा, बीमार होने पर घर से निकलने से बचना होगा और बच्चों व बुजुर्गों को बाहर जाने से रोकना होगा। ‘टोटल लॉकडाउन’ की बजाय राज्यों की नाकेबंदी या यातायात को रोकना कहीं अधिक कारगर हो सकता है। इस लिहाज से रेलवे और अंतरराज्यीय बस सेवाओं को बंद करना संभवत: सबसे प्रभावशाली उपाय है, फिर चाहे इससे लोगों को कितनी ही मुश्किलों का सामना क्यों न करना पडे़। इससे उतना आर्थिक नुकसान नहीं होगा, जितना पूरे देश के लॉकडाउन से होगा।
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कोविड-19Corona एक अप्रत्याशित समस्या है और बिना हीला-हवाली के हमें इसका सामना करना पडे़गा। अगर इसका प्रसार बढ़ता है, तो उससे निपटने के लिए हमें देश में जिलेवार कम से कम दस लाख आईसीयू बेड, ऑक्सीजन उपकरणों और पांच लाख वेंटिलेटर की दरकार होगी। हमें हर राज्य की राजधानी में औसतन 10,000 बेड और हर जिला मुख्यालय में 1,000 लोगों के इलाज की अस्थाई व्यवस्था करनी होगी। भारत के पास इन सब तैयारियों की क्षमता है।
[bs-quote quote=”(ये लेखक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है।)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”रमणन लक्ष्मीनारायण” author_job=”निदेशक, सेंटर फॉर डिजीज डॉयनेमिक्स” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/ramanan_laxminarayan.jpg”][/bs-quote]
आखिरकार हम दुनिया में सबसे बड़ा चुनाव और सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान, दोनों आयोजित कराते ही रहे हैं। लिहाजा, अच्छा होगा कि हम बड़े पैमाने पर इन राहत उपायों के लिए खुद को तैयार करें। महामारी विज्ञान पूरी तरह लॉकडाउन की वकालत करता है, जबकि अर्थशास्त्र प्रतिबंधों और राहत उपायों की। ऐसे में, राज्यवार लॉकडाउन बेहतर विकल्प है। यह हमें अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में, सार्वजनिक स्वास्थ्य संदेशों को जारी रखने में, सामाजिक दूरी बनाने, जांच का दायरा बढ़ाने में, निगरानी का विस्तार करने में और लोगों को तैयार करने में मदद कर सकता है। इस तरह, जब इस महामारी का विस्तार होगा, तब एक राष्ट्र के रूप में उससे जूझने में हम कहीं अधिक सक्षम हो सकेंगे।
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