आज के दिन 9 वर्ष पहले दिल्ली की सत्ता में हुई थी AAP की एंट्री, कांग्रेस की मदद से पहली बार बनाई सरकार
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के चुनावी इतिहास में 28 दिसंबर की तारीख एक बड़े उलटफेर के साथ दर्ज हैं. इसी दिन आम आदमी पार्टी (आप) ने कांग्रेस की मदद से दिल्ली में पहली बार सरकार बनाई. आज भले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी देश के अन्य राज्यों में भी अपनी जड़े जमा रही है, लेकिन उस समय उनका दिल्ली का सीएम बन जाना किसी चमत्कार से कम नहीं था.
जानें केजरीवाल का सफर…
अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छोड़कर राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में वर्ष 2013 में चुनावी समर में उतरी आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में अपनी किस्मत आजमाई और 28 सीटें जीतकर सारे राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमानों को गलत साबित कर दिया. इस चुनाव में 8 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए आम आदमी पार्टी को बिना शर्त समर्थन देकर उसकी सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया.
वर्ष 2013 का विधानसभा चुनाव आप के लिए आसान नहीं था. चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं था. धन, बल और बाहुबल का हिसाब भी नहीं बन सका. भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से राजनीति में कदम रखने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले विधानसभा चुनाव को काफी हद तक आंदोलन की तरह लिया. उन्होंने साबित कर दिया कि ‘कौड़ियों के जरिए भी सत्ता बदली जा सकती है. आप ने केवल 14 करोड़ रुपये में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा. 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और 28 सीट भी जीत लीं.
नई दिल्ली विधानसभा सीट, जहां पर केजरीवाल की टक्कर कांग्रेस पार्टी की कद्दावर नेता और 15 साल से दिल्ली के सीएम रहीं शीला दीक्षित से थी. शीला दीक्षित को हराने वाले केजरीवाल का चुनावी खर्च मात्र साढ़े 3 लाख रुपये रहा था. ऐसा नहीं है कि उस वक्त सभी राजनीतिक दल और उनके नेता केजरीवाल की रणनीति पर चुनाव लड़ रहे थे. चुनाव में धन बल और बाहुबल का जबरदस्त बोलबाला था. स्टार प्रचारकों की रैलियों का खर्च अलग से होता है.
वर्ष 2013 के दौरान आप के चुनावी खर्च का ब्यौरा रखने वाले पंकज गुप्ता का कहना था कि आम आदमी पार्टी ने अपने पहले चुनाव में 28 सीटें जीतकर दुनिया के सामने एक उदाहरण पेश किया है. चुनाव आयोग ने भले ही खर्च की सीमा 14 लाख रुपये तय की हो, लेकिन हमारे सभी उम्मीदवार ऐसे थे, जिनका खर्च औसतन 7-8 लाख रुपये रहा है.
उस दौरान जनता का एक बड़ा तबका आम आदमी पार्टी को राजनीतिक दल की नजर से न देखकर उसे आंदोलनकारी दल ही समझ रहे थे, उन्होंने पार्टी की बड़ी मदद की. अधिकांश विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जिसमें आसपास के लोगों ने चुनाव प्रचार से संबंधित कोई न कोई जिम्मेदारी उठा रखी थी. नई राजनीतिक पार्टी होने के कारण आप के पास कार्यकर्ताओं की भारी कमी थी. भरोसेमंद कार्यकर्ताओं का अभाव रहा. नतीजा, आप को अपने सभी बूथों के लिए कार्यकर्ता तक नहीं मिल सके.
दिल्ली के सभी विधानसभा क्षेत्रों की बात करें तो 11 सौ बूथ ऐसे रहे, जिन्हें संभालने के लिए आप को कार्यकर्ता ही नहीं मिले. अमेरिका, सिंगापुर, ब्रिटेन, दुबई, आस्ट्रेलिया, यूएई व हांगकांग सहित दर्जनभर देशों में आप के वालंटियर फोन पर दिल्ली के वोटर्स से केजरीवाल को वोट देने की अपील कर रहे थे. इनके अलावा, विभिन्न राज्यों से आए करीब 12 हजार वालंटियर्स चुनाव प्रचार में जुटे रहे.
वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की छवि एक आंदोलनकारी नेता वाली थी. उन्होंने कई ऐसे बयान भी दिए, जो दूसरे दलों के नेताओं को चुभ गए. उनका एक नारा उस वक्त सबसे ज्यादा चला था और उसका नतीजा न केवल उन चुनावों में, बल्कि वर्ष 2015 के चुनाव में भी सुपरहिट रहा.
दरअसल, केजरीवाल ने अपनी जनसभाओं में वोटरों से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘देखो हमारी पार्टी तो ईमानदार है. हम दूसरे दलों की तरह चुनाव में अनाप-शनाप पैसा नहीं खर्च कर सकते. दूसरे दलों के लोग आपके पास आएंगे. वे आपको कई तरह के प्रलोभन देंगे. आप मना मत करना, ले लेना, मगर वोट आम आदमी पार्टी को दे देना.’ उनका यह बयान नारे की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा.
केजरीवाल अपनी हर जनसभा में लोगों से यह बात कह देते. विपक्षी दलों ने उनकी इस बात पर एतराज जताया. चुनाव आयोग को शिकायत भी दी गई. तब तक केजरीवाल अपने मकसद में कामयाब हो चुके थे.
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