भारत क्यों नहीं पा सका अच्छी रेटिंग?
यह सरकार से पूछा जाना चाहिये कि तमाम जद्दोजहद के बावजूद भारत अच्छी रेटिंग क्यों नहीं पा सका। जबकि उसका दावा है कि उसने अर्थव्यवस्था के उत्थान के लिए जितने भी सकारात्मक कदम उठाये हैं, उससे उसकी रेटिंग अच्छी होनी चाहिये थी। यह सही है कि सरकार मजबूत आर्थिक आधार, राजनीतिक स्थिरता और विभिन्न सुधारों का हवाला देते हुए फिच रेटिंग्स से अच्छी रेटिंग पाने की जद्दोजहद में लगातार जुटी हुई है। पर, उसे निराशा उस समय हाथ लगी जब ग्लोबल रेटिंग एजेंसी फिच ने उसे सकारात्मक रेटिंग नहीं दी।
हालांकि, एजेंसी ने कमजोर आर्थिक स्थिति और कठिन व्यावसायिक माहौल को रेटिंग नहीं बढ़ाने की वजह बताई। सरकार को अब लगता है कि फिच ने रेटिंग जारी करते वक्त इन सकारात्मक बातों को नजरअंदाज कर दिया। यहां यह जान लेना जरूरी है कि करीब दो हफ्ते पहले इस ग्लोबल रेटिंग एजेंसी ने भारत की सॉवरिन रेटिंग ‘बीबीबी’ रखी।
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न सुधारों के आधार पर सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद फिच ही नहीं बल्कि ज्यादातर ग्लोबल रेटिंग एजेंसियां भारत को बीबीबी ही रेट करती रही हैं। बीबीबी रेटिंग जंक ग्रेड से महज एक ऊपर और इन्वेस्टमेंट ग्रेड रेटिंग्स में सबसे नीचे है। जाहिर है सरकार को इस मामले में निराशा ही हाथ लगी है।
एजेंसी का अब भी मानना है कि भारत में व्यवसाय करना कठिन है। वर्ल्ड बैंक के ईज आॅफ डुइंग बिजनस इंडिकेटर में भारत का स्थान बीबीबीकैटिगरी वाले देशों में सबसे नीचे तो नहीं है, लेकिन नीचे ही है।
एजेंसी की रिपोर्ट आने के एक ही दिन पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) अरविंद सुब्रमण्यम ने अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की आलोचना करते हुए कहा था कि उन्होंने मुद्रास्फीति, विकास और चालू खाता प्रदर्शन जैसे आर्थिक बुनियादी बातों में सुधार के बावजूद जानबूझकर देश की रेटिंग बीबीबी बनाए रखी है।
सुब्रमण्यम ने कहा, ‘हाल के सालों में रेटिंग एजेंसियों ने देश की रेटिंग बीबीबी पर स्थिर रखी है जबकि हमारी आर्थिक बुनियाद में सुधार देखी गई है (जैसे मुद्रास्फीति, वृद्धि दर और चालू खाते का प्रदर्शन)’।
अरविंद सुब्रमण्यम भी मानेंगे कि बीबीबी कैटिगरी के लिए इन्फ्लेशन का औसत अब भी भारत के इन्फ्लेशन रेट से बहुत कम है।
फिच के रुकमाकर मानते हैं कि केंद्र के स्तर पर राजकोषीय घाटे को पाटा गया है। लेकिन, राज्यों के मिला लिया जाए तो सरकारी घाटा तुलनात्मक तौर पर अब भी बहुत ज्यादा है। इसके साथ ही कर्ज भी बहुत ज्यादा है जो जीडीपी का 68 प्रतिशत है। हालांकि अरविंद सुब्रमण्यम यह मानते हैं कि ‘रेटिंग एजेंसियों ने देश की वृद्धि दर को कम करके आंका’ है। यही नहीं इस रेटिंग एजेंसी का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा नहीं है।
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इस घटना के बाद अन्यान्य देशों के अर्थशास्त्री यह तो पूछेंगे ही कि आखिरकार सरकार इस रिपोर्ट पर क्या कदम उठाने वाली है? हालांकि, पिछले बजट भाषण में वित्तमंत्री की ओर से सरकारी कर्ज को जीडीपी के 60 प्रतिशत पर लाने की बात कही गई है, लेकिन इस पर कोई स्पष्ट वादा नहीं किया गया है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार इस दिशा में कौन से कदम उठाने जा रही है।
रेटिंग गिरने का एक कारण यह भी है कि विनिर्माण क्षेत्र के कमजोर प्रदर्शन के कारण देश के औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार मार्च में गिरकर 2.7 फीसदी रही। नए औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) में संशोधित आधार वर्ष 2011-12 को शामिल किया है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, 2016 के मार्च में आईआईपी की दर 5.5 फीसदी थी, जबकि 2017 के फरवरी में यह 1.9 फीसदी दर्ज की गई।
वैसे भारत को अच्छा रेटिंग न मिलने पर अर्थशास्त्रियों की राय बंटी हुई है। कुछ लोग तो यह भी कहते पाये जाते हैं कि ‘ये रेटिंग एजेंसियां सवालों के घेरे में हैं क्योंकि ये अमेरिकी वित्तीय संकट की पहचान नहीं कर पाए थे और खूब सकारात्मक रेटिंग बांट रहे थे।’ बहरहाल रेटिंग कायह विवाद बराबर चलता ही रहेगा जबतक कि कोई सकारात्मक नतीजे नहीं आ जाते हैं।
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