वाराणसी : हमारा देश मुख्य रूप से मंदिरों का देश है. यहां अलग -अलग देवी देवताओं की पूजा करने का विधान है और पूरे श्रद्धा भाव से मंदिरों में भगवान की पूजा अर्चना की जाती है. यहां अलग-अलग देवी देवताओं के न जानें कितने मंदिर बने हुए हैं जिनका धार्मिक महत्त्व भी अलग है. हर मंदिर की कुछ न कुछ ख़ास विशेषता है. मुख्य रूप से वाराणसी को मंदिरों की नगरी के रूप में जाना जाता है. वाराणसी के प्रत्येक मंदिर की अलग विशेषता है. यहां स्थित मंदिरों में से एक प्रमुख मंदिर है काल भैरव मंदिर. इस मंदिर की सबसे ख़ास और चौंका देने वाली बात है कि यहां भैरव जी को प्रसाद स्वरुप मदिरा यानी कि शराब चढ़ाई जाती है. आइए जानें इस मंदिर से जुडी कुछ और ख़ास बातें जो आपने पहले नहीं सुनी होंगी.
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सबसे पुराना मंदिर काल भैरव
काल भैरव मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित है. यह मंदिर शहर का सबसे पुराना मंदिर है जो कि भगवान शिव के उग्र रूप यानी कि काल भैरव को पूर्णतया समर्पित है. काल का अर्थ मृत्यु व समय होता है. ऐसा कहा जाता है भगवान शिव इस रूप को तभी धारण करते थे जब किसी का वध करना होता था. काशी भगवान शिव की अति प्रिय नगरी थी इसलिए भगवान शिव ने काल भैरव को यहां का क्षेत्रपाल यानी कोतवाल नियुक्त किया था इसलिए कहा जाता है कि काल भैरव को काशी वासियों को दण्ड देने का भी अधिकार है. मंदिर के गर्भगृह में काल भैरव की चांदी की मूर्ति है, जो कि भैरव के वाहन कुत्ते पर विराजमान है.
कब हुआ था मंदिर का निर्माण
काल भैरव मंदिर के निर्माण की सही तारीख का तो पता नहीं है लेकिन अनुमान है कि वर्तमान संरचना 17वीं शताब्दी के मध्य में बनाई गई थी. ऐसा माना जाता है कि उत्तर भारत पर इस्लामवादी विजय से पुराने मंदिर को नष्ट कर दिया गया था, तथा 17वीं शताब्दी में इस मंदिर का पुनः निर्माण किया गया. मान्यता है कि काल भैरव को, भगवान शिव ने इसलिए काशी का कोतवाल नियुक्त किया था क्योंकि वो माता सती के पिंड कि रक्षा कर सकें. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता सती के शरीर का एक हिस्सा पिंड रूप में काशी में गिरा था, जो माता के 51 शक्ति पीठों में से एक है. जिस जगह पर शरीर का हिस्सा गिरा था, वह स्थान विशालाक्षी मंदिर के नाम से जाना जाता है.
क्यों चढ़ाई जाती है काल भैरव को मदिरा
ऐसी मान्यता है कि मंदिर में भैरव जी को प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है. जो भक्त मदिरा चढ़ाते हैं उन्हें शुभ फलों की प्राप्ति होती है और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. मंदिर सुबह 5 बजे से दोपहर 1:30 बजे तक और शाम 4:30 बजे से रात 9:30 बजे तक खुला रहता है. नवंबर में पूर्णिमा के बाद आठ दिन शुभ माने जाते हैं और उस वक़्त मंदिर के अनुष्ठान देखे जा सकते हैं.
Written By: Harsh Srivastava