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सावन के बारे में क्या बताऊं…. योगेन्द्र नारायण

आर्टिकल में लेखक ने अपने पौत्र सोमेश के सावन को लेकर पूछे गए प्रश्न का जवाब इस संछिप्त लेख के जरिये दिया है…

कमरे में बैठा हूं और बाहर जम कर बारिश हो रही है. इस बार शुरू से ही सावन में अच्छी बरसात हो रही है. मैं चुपचाप बरसात को निहार रहा हूं. इतने में छोटा पौत्र आता है और कहता है- बाबा, सावन के बारे में कुछ बताइए. सावन के बारे में क्या बताऊं? अचकचा जाता हूं. सावन के बारे में कुछ तो बताना ही है. कहता हूं, यह भारतीय कैलेण्डर का पांचवां महीना है और बरसात का दूसरा. देखो तो, कितनी बारिश हो रही है. यह खरीफ की फसल की बुआई-रोपाई का समय है. इस समय खेतों में धान रोपे जा रहे हैं. जब थोड़ी बारिश कम होगी तो दलहन और तिलहन की बुआई शुरू होगी. दलहन का मतलब मटर, चना, मूंग आदि दाल वाली फसल और तिलहन का मतलब तिल, तीसी, सरसो आदि तेल वाली फसल. अब दूसरा सवाल- खरीफ क्या होता है? खरीफ मतलब पतझड़. इस समय जो फसलें बोई जाएंगी उन्हें जाड़े में, जब मौसम सूखा होता है, तब यह फसलें पक जाएंगी और इन्हें काट लिया जाएगा.

पौत्र को मेरे जवाब से संतुष्टि नहीं मिलती है, पूछता है और बताइए? क्या बताऊं? कमरे में बैठे-बैठे मन उदास है. दिमाग जैसे निष्क्रिय सा है. पौत्र को टालता हूं, जाओ बाद में आना और 65 वर्ष पुरानी यादों में चला जाता हूं. उस समय हमारे उम्र के बच्चों के लिए सावन का मतलब तो सबसे ज्यादा झूला ही हुआ करता था. सावन का महीना लगते ही बरामदे में लगी करीब-करीब हर चिरई में रस्सियों का झूला लटक जाता था और स्कूल जाने के पहले और वापस लौटते ही झूले पर पेंग भरना शुरू हो जाता था. यह भी जान गया था कि सावन में कृष्णजी झूला झूलते थे, तो झूलते समय अपने आप बोल फूट बड़ते थे- ‘झूला पड़ा कदम की डारी, झूलें कृष्ण मुरारी ना.’ झूले पर बैठने से पहले रामजी औरे कृष्णजी को झूला झुलाते थे. मतलब झूले को पांच बार खाली ही झुलाया जाता था. यह तो था हम बच्चों का झूला. उम्र में बड़े लोगों का झूला हमारे झूले जैसा नहीं, बल्की घर के बाहर नीम के पेड़ पर उनका केवाड़ा पड़ता था. केवाड़ा भी झूला होता है, परन्तु उसकी रस्सी पुरवट खींचने वाले नार (खूब मोटी सन की बनी रस्सी) का होता था और दुहरा होता था. रस्सी के एक ओर किसी दरवाजे के एक किवाड़ को बांधा जाता था और दूसरी ओर दूसरा सिरा. बीच में दो-तीन लोग बैठ जाते थे और केवाड़े के दोनों ओर दो युवक रस्सी के मजबूती से पकड़ कर खडे़ होते थे और शुरू हो जाता था कजरी गाते हुए पेंग भरने का सिलसिला. इसी तरह बड़ी लड़कियों का किवाड़ा घर के पिछवाड़े पेड़ पर पड़ता था.

जिला मिर्जापुर होने के कारण विशेष रूप से सावन और कजली का सम्बन्ध चोली-दामन का था. गांव में मर्दों की कजली का रिवाज कम हो चला था. मर्दों की कजली के अखाड़े थे और उनका दंगल होता था. उसमें पुरस्कार भी दिये जाते थे, लेकिन औरतों की कजली का आलम ही कुछ दूसरा ही होता था. औरतों की कजली घर के पिछवाड़े या किसी बड़े आंगन में रात को जमता था. पुरुष वर्ग खा-पीकर घर के बाहर सोने के लिए निकल जाता था और औरतों की कजली जमती थी, जो देर रात तक चलती थी. इस कजली में पुरुषों का पहुंचना निषिद्ध था. हम बच्चे यदि जगे हैं तो कभी कभार पहुंच गये तो सोने के लिए भेज दिया जाता था और आपस में हंसी-ठिठोली के बीच कजली के बोल गूंजते रहते थे. औरतों की कजली घूमर कही जाती थी क्यों कि वे आपस में एक घेरा बना कर आगे-पीछे होते हुए घूमती हुई गाती थीं. उनके गीतों में साजन के प्रति टेर जादा होती थी. ‘हरि हरि बेला खिलय आधी रात, सजन नहीं आये रे हरी’ या ‘हरि हरि सावन बीत गइल मोरी सजनी, सजन नहिं आये रे हरी.’ जैसे बिरह प्रधान ज्यादा होते थे. कज्जला तीज की रात तरह-तरह की पुतलियें से सजी कजली गाते हुए औरतों की बारात भी निकलती थी, परन्तु यह सब बात तो अतीत की है. नाग पंचमी भी एक महत्वपूर्ण तिथि होती थी. इस दिन छोटे-छोटे दोने में दूध और धान का लावा घर के हर कमरे में, घर के हर कोने अतरे में, बरदौली में, गोशाला में यहां तक कि कूएं और हल के ऊपर दूध और धान के लावा के दोने में रखे जाते थे. यह काम हम बच्चों का होता था और हममें होड़ रहती थी कि कौन कितनी जगह नाग देवता के लिए दूध-लावा रख आता है. घर की रसोई के दरवाजे पर दोनों ओर काजल और सिंदूर से नाग-नागिन बनायी जाती थी. यह काम घर की औरतों का था. इसके बाद एक और काम होता था. घर की लड़कियां जरई बोती थीं जो कज्जला तीज के पहले की रात तक सुरक्षित रखी जाती थी. उस रात जरई की अंतिम रात होती थी. इसके पहले घर की लड़कियां गीली मिट्टी से तरह-तरह के खिलौने बनाती थीं फिर उसे सुखा कर मिट्टी के घड़े में रख कर बंद कर देती थीं. इसे उनका घरौंदा कहा जाता था. तीज के पहले की रात रतजगा होता था. रात भर कजली गायी जाती थी और सुबह भाई लाठी से मार कर उस घंरौदे को तोड़ देता था. तीज की सुबह लड़कियां अपनी-अपनी जरई ले कर गंगाजी जाती थीं और जरई की मिट्टी बहा कर जरई ले कर वापस आती थीं, फिर उसे घर के मर्दो की शिखा में बांधती थीं. जिसके सिर में बाल ही नहीं होती थी, उसके कान पर ही जरई रख दी जाती थी. अब तो यह सब गांव से भी खत्म हो रहा है. फिर शहर में इन सब का क्या मतलब?…

बारिश रुकने के बाद दिन में जब मिट्टी थोड़ी सूख जाती है तो जहां से पानी बहा है वहां आयी साफ मिट्टी में हम बर्फियां काटते थे, किसी टीन के ढक्कन से पेंड़े काटते थे और उसी गीली मिट्टी से लड्डू बना कर अपनी दुकानें सजाते थे. दिन में एक और काम या खेल होता था बीरबहूटियां इकट्ठी करने का. वर्षा रुकने के बाद जमीन में से बीरबहूटियों की लाल-लाल कतारें निकलती थीं और हमारे जरा सी छूने पर मखमल की तरह लाल और मुलायम वे बीरबहूटियां पैरों को समेट गोल-गोल मरे हुए की तरह पड़ जाती थीं. बीते दिनों की तरह बीरबहूटियां भी गायब हो गयी हैं. वर्षों हो गये बीरबहूटियों को सामने से देखे.

बकौल पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी अशोक और कुरबक के फूलों का उल्लेख साहित्य से कालिदास के बाद समाप्त हो गया तो बीरबहूटी जैसे मुलायम कीड़े की साहित्य में क्या जरूरत? उसे तो रासायनिक उर्वरकों ने खेतों-मैदानों से करीब करीब गायब ही कर दिया है. आधुनिक हिन्दी कविता से बीरबहूटी तो पूरी तरह साफ हो गयी है. बहुत पहले धर्मवीर भारती की एक कविता पढ़ी थी –

गोरी-गोरी सोंधी धरती कारे कारे बीज
बदरा पानी दे!
क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत
बोने वालों! नयी फसल में बोओगे क्या चीज?
बदरा पानी दे!
मैं बोऊंगा बीरबहूटी इन्द्रधनुष सतरंग
नये सितारे, नयी पीढ़ियां, नये धान का रंग
बदरा पानी दे!
हम बोएंगे हरी चुनरियां कजरी मेंहदी
खादी के कुछ सूत और सावन की पहली तीज
बदरा पानी दे!
या उमाशंकर तिवारी के इस गीत के बोल में-
आयी बरसा बहार, फूले केतकी अनार,
गाये बिजुरी मल्हार जियरा जारि जारि के
……………………
सुगना गाये बार-बार हियरा हारि-हारि के
……………………
आदि कुछ इनी गिनी कविताओं और गीतों को छोड़, कविता से सतरंगे इन्द्रधनुष, केतकी, अनार, बेला आदि देशज फूलों की गंध तो गायब ही हो गयी है. कविता का रंग जैसे धूसर हो गया है. सलेटी धूसर. कभी-कभी इस धूसर रंग में दूसरे रंगों की आभा भी दिखाई दे जाती है, परन्तु मूल रंग धूसर ही है.

पूजा- अर्चना आदि से हम बच्चों का क्या लेना-देना. याद है सावन में गांव से दो-तीन किलोमीटर दूर सारनाथ का मेला लगता था. सावन के प्रति सोमवार को सारनाथ मंदिर पर लगने वाले इस मेले का बहुत आकर्षण होता था. खोजियों से दूर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के इस मंदिर पर लगने वाले मेले के तो वही समझ सकता है जिसने गांव का कोई मेला देखा हो. किशोर होने के पूर्व ही गांव को छोड़ना पड़ा. फिर भी वहां के इन सब आकर्षणों से मुक्त नहीं हो पाया. बनारस आने पर तो जैसे इन सब चीजों का रूपान्तरण हो गया. बनारस में भी पहले महिलाओं की कजली के बोल रात-रात भर गूंजा करते थे, परन्तु अब तो कजली सुनने के लिए कान तरस ही जाते हैं. कजली लोक से निकल कर पक्के गायक-गायिकाओं के मंच पर आ गयी है और पुरानी फिल्मों के गीतों में ही सिमट कर रह गयी है. घर-घर में टंगने वाले झूले मंदिरों में आ गये हैं. मेले की भीड़ और चहल-पहल मंदिरों के ही इर्द-गिर्द सिमट गयी है. सुना था पहले गुरुधाम मंदिर के विशाल परिसर में जुटने वाला सावन का मेला सड़क पर आ गया और अब उसे हम दुर्गाजी के मेले के नाम से जानते हैं. यहां के इन मेलों में तो मेला देखने की अपेक्षा जेब, साथी और शील की सुरक्षा की चिंता में ही मन चिंतित रहता है. करीब तीस-पैंतीस साल पहले तक पार्कों और शहर के बगीचों में रात में उड़ते तारों की तरह चमकते जुगनू तो जैसे धरती छोड़ आकाश में ही अपना बसेरा बना लिए हैं. नये-नये उभरते कालोनियों के जंगल से हरियाली को तो जैसे हांका लगा कर शहर से खदेड़ा जा रहा है.

मेले का मतलब मिलन होता है. जहां लोग मिलते हैं, अपना सुख-दुख बांटते हैं. पुराने समय के इस तरह के मेलों का कुछ रंग गांव में गंगा दशहरा, बरेठों और बेनु वंशियों (धरकारों) के मेले में देखा है. सावन में अब तो श्रद्धा और विश्वास के नाम पर उन्मादियों की भीड़ देख रहा हूं. उनमें नगर के प्रसिद्ध मंदिर में जल चढ़ाने का उन्माद ही दिखाई देता है. उनके लिए पूरा शासन-प्रसाशन पलक पांवड़े बिछाये रहता है. ‘आपात स्थिति को अवसर में बदलो’ की नीति के अनुसार इस कोरोना काल में यद्यपि शहर इस स्थिति से मुक्त है. न कांवरिये हैं न मंदिरो में भीड़. जैसे पूरा शहर मरघट में तब्दील हो रहा है. चारों ओर कोरोना का आतंक. इस आतंक काल में सावन के आनंद का डेरा कहां? यह स्थिति तो अस्थाई है. शहर इस आतंक से मुक्त होगा और फिर उन्मादियों की भीड़. उन्मत्त भीड़ में श्रद्धा और विश्वास को कहां ढूंढ़ा जाएगा? सावन में प्रकृति और पुरुष के मिलन से फूटती रसधार के बारे में पौत्र को क्या बताऊं? जो मैंने देखा था या जो मैं अब देख रहा हूं? बताया तो वही जा सकता है जिसे देखा हो और उसमें वही जो बताये जा सकने योग्य हो, जिससे ‘सुरसरि सम सब कर हित होई’ का भाव हो. क्या सावन आनंद और उछास, श्रद्धा और विश्वास का महीना नहीं रहा?

लेखक- योगेंद्र नारायण (वरिष्ठ पत्रकार और संपादक )

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