अनिल कुमार
पिछले दिनों इंसानी रिश्तों पर थोड़ा गहराई से चिंतन करने लगा तो अंदर से भय पैदा होने लगा क्योंकि हम तमाम तरक्की के साथ रिश्तों को जीना खो चुके हैं। बचपन और किशोरवय में हम लोगों ने जिस सहजता से भरा जीवन जिया वह हम नई पीढ़ी को नहीं दे पा रहे। नई पीढ़ी का तनाव देख तकलीफ होती है कुछ तो वह प्रगट करते हैं और कुछ अपने मन में रख कुढ़ते हैं।
काउंसलिंग की व्यवस्था होनी ही चाहिए
आज सभी तरह के रिश्तों में तनाव ने पैठ बना ली है। आज स्कूल पढ़ाई लिखाई से ज्यादा तनाव के अड्डे बन गए हैं। जितना ही लिंग भेद खत्म करने की बात हो रही है, यह उतना ही बढ़ रहा है। मुझे लगता है कि समाज में बढ़ रहे रिश्तों के बीच परस्पर अविश्वास, तनाव को कम करने के लिए समाज वैज्ञानिकों के साथ ही वैज्ञानिकों को विषद अध्ययन करने के साथ ही हर स्तर पर काउंसलिंग की व्यवस्था होनी ही चाहिए ताकि समय रहते उपचार हो सके।
बच्चे मैदानी खेलों के बजाय डिजिटल खेल खेल रहे हैं
मानसिक बीमारों की संख्या बढ़ रही है जैसा कि पिछले दिनों डाटा भी आया है। स्कूल परिवार से लेकर आफिस तक हर जगह इसकी आवश्यकता है। लोग तेज भागती और ज्यादा हासिल करने की मनोवृत्ति के कारण जाने अनजाने में शिकार हो जाते हैं। आज बचपन से किशोरवय में बच्चे मैदानी खेलों के बजाय डिजिटल खेल खेल रहे हैं।
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कभी ऐसा होगा वह सोच नहीं पा रहा
हमें लग रहा है कि लड़का स्मार्ट हो रहा लेकिन सच तो ये नहीं है, वह इस खेल में इतना डूब रहा कि पूरी लाइफ को ही उसी थ्रीडी स्क्रीन की तरह सतरंगी समझ ले रहा है। जिस तरह स्क्रीन पर रिश्ते टूटते बनते हैं वैसे ही वह वास्तविक जीवन में कर रहा। इसीलिए कई बार समय से पहले बच्चा अपने को परिपक्व समझने लगता है। संभव है कि वह एक सफल कैरियर वाला बने लेकिन वह जिंदगी की चुनौतियों के आने पर तनावग्रस्त हो जाएगा क्योंकि कभी ऐसा होगा वह सोच नहीं पा रहा।
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आप गौर से बच्चों के कार्टून चैनल देखें। उनमें कुछ ही कार्यक्रम है जो बच्चों को प्रेरित करने वाले होते हैं। कई कार्यक्रम तो बेहद घटिया होते हैं। बच्चों के लिए स्वस्थ और रचनात्मक कार्यक्रमों का अभाव है। पार्क शहरों में घट रहे हैं। स्कूलों से पार्क और खेल का घंटा गायब हैं।
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कैसे और कहां से इस सिस्टम का इलाज हो
बच्चे इंसान कम रोबोट ज्यादा बन गए हैं। पीठ पर किताबों का बोझ बढ़ता जा रहा है। तथाकथित कंप्यूटर क्लास वन टू से बच्चों के सिर मढ़ दिया गया है। हर चीज में जल्दी मची है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञों को तय करना होगा कि कैसे और कहां से इस सिस्टम का इलाज हो। एक समग्र प्लान अपने भारतीय जीवन संस्कृति और परिवेश के मुताबिक बनना चाहिए।
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राजनीतिक चर्चा से ज्यादा अहम है ये विषय
इस मुद्दे पर आप केवल लाइक कर हौसला बढ़ाने के बजाय चिंतन करें क्योंकि किसी राजनीतिक चर्चा से ज्यादा अहम है ये विषय। सोचिए मानसिक बीमार राष्ट्र कौन सा निर्माण करेगा। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जब मानसिक बीमार लोगों की संख्या अधिक हो जाएगी तो आप कुछ नहीं कर सकेंगे। समय रहते सोचें और बदलाव के लिए हर स्तर पर दबाव बनाएं।
(इसे अनिल कुमार के फेसबुक वाल से लिया गया है वैज्ञानिकों)
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