विजयादशमी विशेष : जब आचार्य बने थे लंकेश, खुद कराई थी राम की जीत की पूजा

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[bs-quote quote=”यह आर्टिकल हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से लिया गया है। वह देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक और TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है।” style=”default” align=”center” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/05/hemant.jpg”][/bs-quote]

रावण तो आज फिर मरेगा। उसे हम हर साल जलायेंगें। लेकिन उसके रक्तबीज फिर पैदा हो जाते है। रावण का बार-बार जलना और फिर पैदा होना उसकी ताक़त का अहसास कराता है। सारी अच्छाई के बावजूद एक अंहकार ने उसे नष्ट कर दिया। वरना वह जो चाहता था करता था। स्वर्ग के लिए सीढ़ी बनाने की कोशिश उसने की, भगवान शिव के न चाहते हुए भी कैलाश को उसने उठा ही लिया था। वह अद्भुत विद्वान था। सभी शास्त्रों का ज्ञाता था। वह महान ऋषि पुलस्त्य का पौत्र, विश्वश्रवा का पुत्र था। अपने समय के महान वास्तुकार मय का जमाता था। फिर अधर्म का प्रतीक क्यों माना गया? क्योंकि वह अलोकतांत्रिक था। अहंकारी था।

रावण जनशक्ति का शत्रु है। उसका जलाया जाना सालाना उत्सव है। पर हर साल जलाए जाने के बाद फिर से जलने के लिए पैदा होना, यही रावण होने का मतलब है। रावण के रक्तबीज चारों तरफ फैले हैं। आप जलाते जाएंगें। वह पैदा होता जायेगा। रावण प्रतीक है अधर्म का, अन्याय का, अंहकार का, अनीति का। समान्यजन के उत्पीड़न का। वह दशानन है। उसके दस सिर और दस मुंह हैं। सिर अंहकार का प्रतीक है। और मुंह एक साथ दस किस्म के बात की गारंटी। राम का पक्ष आम जन का पक्ष है। और रावण अनियंत्रित बेकाबू सत्ता पर सवार शासक।

पर रावण के साथ इतिहास में न्याय नहीं हुआ। वह राक्षस था। अंहकारी था। उसकी प्रवृतियां आसुरी थी। पर कहीं वह अनैतिक नहीं दिखता। वह महापंडित था, ज्ञानी था, उसका यह पक्ष सामने नहीं आया। उसने शिव तांडव स्त्रोत की रचना की। वह ज्योतिष का परम ज्ञानी था। रावण संहिता आज भी ज्योतिष का आधार ग्रंथ है। चिकित्सा और तंत्र में भी उसकी किताबें है। दस शतात्मक, अर्क प्रकाश, कुमारतंत्र, नाड़ी परीक्षा, अरूण संहिता, अंक प्रकाश, प्राकृत कामधेनु और रावणीयम जैसे ग्रंथ की उसने रचना की थी।

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राम कथा के अध्येता फादर कामिल बुल्के ने दुनिया में तीन सौ राम कथाओं के ढूंढ निकाला था। फादर बुल्के बेल्जियम के मिशनरी थे। पूरा जीवन भारत में लगा दिया रामकथा और हिंदी शब्दों की खोज में। लोक में तुलसी की रामचरितमानस ही प्रचलित है। इसी के आधार पर रामलीलाएं होती है। कथावाचक राम का आख्यान कहते है। पर भारत में भी बाल्मिकी और तुलसी के अलावा बंगला की कृतिवास रामायण तमिल में कंबन की इरामावतारम, तेलगू की रंगनाथ रामायण,उड़िया की रूइपादकातेणपदी रामायण, नेपाली की भानुभक्त कृत रामायण खासी प्रसिद्ध है। विदेशों में कंबोडिया, श्रीलंका, वर्मा, तिब्बत, चीन , मलेशिया, इंडोनेशिया, लाओस, थाईलैण्ड, मंगोलिया आदि में भी अलग अलग रामकथा का चलन है।

देशी रामकथाओं में महर्षि कंबन की रामकथा ‘इरामावतारम’ खासी लोकप्रिय है दक्षिण भारत में यही पढ़ी जाती है महाकवि कंबन साढ़े चार सौ साल पहले दक्षिण में जनमे थे। तुलसी से थोडा पहले। एक तरह से समकालीन पर थोड़े सीनियर। ‘इरामावतारम’ नाम से लिखी गई इनकी रामायण तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति मानी जाती है। कंबन के इस ग्रंथ में एक हजार पचास पद हैं। यह बालकांड से लेकर राम के राज्याभिषेक तक छह कांडों में बंटी है।

कंबन रामायण का प्रचार-प्रसार केवल तमिलनाडु में ही नहीं, उसके बाहर भी हुआ। तंजौर जिले में स्थित तिरुप्पणांदाल मठ की एक शाखा बनारस में भी है। लगभग चार सौ साल पहले ‘कुमारगुरुपर’ नाम के एक संत इस मठ में रहा करते थे। वे नित्यप्रति सायंकाल गंगातट पर आकर कंबन रामायण की व्याख्या हिंदी में सुनाते थे। तुलसी पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास उन दिनों काशी में ही रह ‘रामचरितमानस’ की रचना कर रहे थे। तुलसीदास ने कंबन रामायण से सिर्फ प्रेरणा ही नहीं ली, बल्कि मानस में कई स्थलों पर अपने ढंग से, उसका उपयोग भी किया।

कंबन की इस रामकथा में एक ऐसा अद्भुत प्रसंग है, जो ‘वाल्मीकि रामायण’ और तुलसी रामायण में भी नहीं है। यह प्रसंग उस समय का है, जब राम ने लंका विजय के लिए रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना की थी। वही रामेश्वरम् जो हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहां जब राम शिवलिंग की स्थापना कर रहे थे तो उन्हें इस कर्मकांड के लिए एक आचार्य चाहिए था। उन्होंने भल्लराज जामवंत से कहा, “कोई ब्राह्म‍ण ढूंढ़कर लाइए, जो हमारा यज्ञ करा दें।”

जामवंत ने उत्तर दिया कि प्रभु, इस जंगल में समुद्र तट पर केवल पेड़ हैं, जंगली जानवर हैं, वनवासी हैं। यहां कहां पंडित मिलेगा। हममें से किसी को किसी आचार्य के बाबत पता नहीं है।

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राम ने कहा कि आचार्य तो चाहिए और ऐसा, जो शैव और वैष्णव दोनों परंपराओं को जानता हो, जिसे दोनों चीजें आती हों। बहुत सोच-विचार कर जामवंत ने कहा कि ऐसा तो इस इलाके में एक ही आदमी है, पर वह हमारा शत्रु है। वह विश्श्रवा का पुत्र है, पुलस्त्य मुनि का पौत्र है और मय का जामाता है। परम वैष्णव है और शिव का भक्त भी है। धर्म की दोनों ही परंपराओं का पोषक और कर्मकांडी है। सब जानता है। सारी नीति-रीति का ज्ञाता है। राम ने कहा कि एक बार जाकर बात करके देखिए। जामवंत नीति-कुशल थे। उन्होंने कहा, “प्रभु, यह यज्ञ तो उसी के खिलाफ है। हम उससे क्या कहेंगे?” राम ने कहा, “वही, जो हमारी जरूरत है।”

इरामावतारम के मुताबिक राम के कहने पर जामवंत लंका पहुंचे। जामवंत रावण के पितामह के मित्र थे। जब यह बात रावण को पता चली कि जामवंत आए हैं तो उसने सोचा कि मेरे बाबा के दोस्त हैं, सो मुझे आदर करना चाहिए। उसने राक्षसों से कहा कि मेरे महल तक उन्हें आने में कोई कष्ट न हो, इसलिए रास्ते में हर जगह हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ। राक्षस जिधर की तरफ इशारा कर देंगे, उधर की तरफ जामवंत चलेंगे। राक्षसगण उन्हें रास्ता दिखाते-दिखाते रावण के पास ले गए।

रावण ने उस वनवासी भल्लराज को खड़े होकर प्रणाम किया, पैर छुए और कहा, “मैं राक्षसराज रावण आपका स्वागत करता हूं। आपके आने का प्रयोजन महाराज?” जामवंत ने कहा, “जंगल में मेरे एक यजमान हैं। उन्हें एक यज्ञ करना है। मैं चाहता हूं कि आप मेरे यजमान के आचार्य बन जाएं।”

रावण ने जामवंत से पूछा, “आपका यजमान कौन है और कहां है?” जामवंत ने कहा, “अयोध्या के राजकुमार और महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम मेरे यजमान हैं। समुद्र के उस पार वे एक यज्ञ करना चाहते हैं, भगवान शंकर के विग्रह को स्थापित करके। एक बड़े संकल्प के लिए।”
रावण ने पूछा कि “कहीं यह बड़ा संकल्प लंका विजय का तो नहीं है?” जामवंत ने कहा, “आचार्य, आप ठीक समझ रहे हैं। यह लंका विजय के लिए यज्ञ है। तो क्या आप आचार्य बनना स्वीकार करेंगे?”

रावण भी प्रतिभाशाली था। उसे पता था कि कौन व्यक्ति आया है मुझे आचार्य बनाने के लिए। इतना बड़ा अवसर मिल रहा है। उसने कहा, “मैं उनके विषय में ज्यादा नहीं जानता, पर वे वन में भटक रहे हैं, उनके पास कोई सुविधा नहीं है, आप जैसे दूत उनके साथ हैं तो अच्छे व्यक्ति ही होंगे, और ब्राह्म‍ण तो लोगों की मदद और मार्ग दिखलाने के लिए ही होता है, सो मैं शरण में आए यजमान का आचार्य अवश्य बनूंगा।”
आचार्य के मिलते ही जामवंत को यज्ञ सामग्री की चिंता सताने लगी। जामवंत बोले, “आचार्य! हमें यज्ञ के लिए क्या व्यवस्था करनी पड़ेगी? कौन-कौन से सामान मंगाने पड़ेंगे?”

आचार्य रावण बोला, “चूंकि हमारा यजमान वनवासी है और अपने घर से बाहर है, इसलिए शास्त्र की एक विशिष्ट परंपरा यहां लागू होती है। शास्त्र कहता है कि अगर यजमान का घर न हो और बाहर कहीं पूजा करानी पड़े तो सारी चीजों की तैयारी आचार्य को स्वयं करनी होती है। तो आप अपने यजमान से कह दीजिए कि वह सिर्फ स्नान करके व्रत के साथ तत्पर रहें। मैं सभी चीजें उपलब्ध करा दूंगा।”

रावण ने अपने सहयोगियों से कहा, “मुझे यज्ञ के लिए जाना है, आप सारा इंतजाम कर दें।” इसके बाद रावण एक रथ लेकर मां सीता के पास गया। उसने सीता से कहा, “समुद्र पार तुम्हारे पति और मेरे यजमान राम ने लंका विजय के लिए एक यज्ञ आयोजित किया है और मुझे उस यज्ञ में आचार्य के रूप में बुलाया है। अब चूंकि जंगल में रहने वाले किसी भी यजमान की सारी व्यवस्था करना आचार्य का काम होता है। इसलिए उसकी अर्धांगिनी की व्यवस्था करना भी मेरे जिम्मे है। ये रथ खड़ा हुआ है। ये पुष्पक विमान है तुम इसमें बैठ जाओ, लेकिन याद रखना कि वहां भी तुम मेरी ही संरक्षा में हो। मेरी ही कैद में हो।”

यह सुनकर सीता ने रावण को आचार्य कहकर प्रणाम किया और कहा, “जो आज्ञा आचार्य।” उनके प्रणाम करने पर रावण ने उसी सीता को ‘अखंड सौभाग्यवती भव’ का आशीर्वाद भी दिया।

अब आचार्य रावण राम के पास पहुंचे तो दोनों भाइयों ने उठकर आचार्य को प्रणाम किया। राम ने कहा, “आचार्य रावण! मैं आपका यजमान आपको प्रणाम करता हूं। मैं लंका विजय के लिए एक यज्ञ कर रहा हूं और मैं चाहता हूं कि यहां शिव का विग्रह स्थापित हो, ताकि देवाधिदेव महादेव मुझे आशीर्वाद दें कि मैं लंका पर विजय प्राप्त कर सकूं।” राम ये बात लंकेश से कह रहे थे, लेकिन वह अब आचार्य रावण था। आचार्य रावण ने कहा, “मैं आपके यज्ञ को पूरी तरह संपादित करूंगा। ईश्वर और महादेव चाहेंगे तो आपको उस यज्ञ का फल प्राप्त होगा।”

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तैयारियां शुरू हुईं तो राम ने बताया कि हनुमान गए हैं, शिवलिंग लाने के लिए। आचार्य रावण ने कहा, “पूजा में देरी संभव नहीं है। मूहूर्त नहीं टल सकता। इसलिए आप बैठिए; और आपकी धर्मपत्नी कहां हैं? उन्हें भी बुलाइए।” राम ने कहा, “आचार्य, मेरी धर्मपत्नी तो उपस्थित नहीं हैं यहां पर, अगर ऐसी कोई शास्त्रीय विधि हो कि उनकी उपस्थिति बिना यह यज्ञ हो जाए!” रावण ने कहा, “यह संभव नहीं है। केवल तीन प्रकार से इसकी अनुमति है। एक या तो आप विधुर हों और आपकी पत्नी नहीं हों। दूसरे आप अविवाहित हों यानी आपका विवाह न हुआ हो। तीसरे आपकी पत्नी ने आपको त्याग दिया हो। क्या तीनों स्थितियां हैं?” राम ने कहा, “तीनों ही स्थितियां नहीं हैं।” राम कैसे यह बात कहते कि आप ही इसकी वजह हैं! क्योंकि वह तो आचार्य रावण से बात कर रहे थे।

जामवंत ने पूछा कि फिर इसकी क्या व्यवस्था है? जब कोई यजमान जंगल में हो और उसके पास यज्ञ को पूरा करने के समस्त साधन न हों तो आचार्य की जिम्मेदारी होती है कि वह यज्ञ के साधन उपलब्ध कराए। इस पर रावण बोला, “आप विभीषण और अपने अन्य मित्रों को भेज दीजिए। मेरे यान में सीता बैठी हुई हैं। उनको यहां ले आइए।” सीता आईं। उसके बाद विधिवत् पूजन हुआ। मां सीता ने अपने हाथ से शिवलिंग स्थापित किया जो आज भी वहां लंकेश्वर के शिवलिंग के रूप में मौजूद है। जनश्रुति है कि जब इस बीच हनुमान अपना शिवलिंग लेकर लौटे तो उन्होंने कहा, “इसे हटाओ, मैं यहां पर अपना लाया हुआ शिवलिंग लगाऊंगा।”

राम ने उन्हें समझाया, “इसे रहने दो।” पर हनुमान नहीं माने। उन्होंने कहा, “…लेकिन भगवन्… मैं तो इसे लेकर आया हूं।” राम समझ गए कि हनुमान को अपने बल पर थोड़ा घमंड आ रहा है। उन्होंने हनुमान से कहा, “ठीक है, इसे हटा लो।” हनुमान ने अपनी पूरी ताकत लगा ली, लेकिन वह शिवलिंग को हटा नहीं पाए। फिर भगवान राम ने उन्हें आशीर्वाद के रूप में कहा, “तुम्हारा लाया शिवलिंग भी यहां स्थापित रहेगा।” इसलिए रामेश्वर में दो शिवलिंग उपस्थित हैं। इसे हनुमाश्वेरम के नाम से जाना जाता है।

बहरहाल यज्ञ संपन्न हुआ। दोनों यजमानों राम और सीता ने आचार्य को प्रणाम किया। राम ने पूछा, “आचार्य, आपकी दक्षिणा?” आचार्य रावण हंसे और कहा, “आप वनवासी हैं। मैं जानता हूं कि आपके पास कोई दक्षिणा नहीं है और आप मुझे दक्षिणा नहीं दे सकते। वैसे भी स्वर्णमयी लंका के राजा आचार्य को आप क्या दक्षिणा देंगे? इसलिए मेरी दक्षिणा आप पर बाकी रही।” राम संकोच में पड़ गए।

उन्होंने कहा, “फिर आचार्य आप दक्षिणा बता दीजिए, जिससे मैं पूरी तैयारी रखूं। अगर मैं कभी विधिवत् इस योग्य हो पाया तो…।” रावण ने कहा, “आचार्य होने के नाते मैं आपसे दक्षिणा मांगता हूं कि जब मेरा अंतिम समय आए तो यजमान मेरे समक्ष उपस्थित रहें। मैं आपसे बस यही दक्षिणा मांगता हूं।”

रावण की इस दक्षिणा को राम के तीरों ने पूरा किया। राम ने रावण के अंतिम समय में उसे आशीर्वाद देकर मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर किया। कंबन रामायण की यह कहानी राम-रावण युद्ध के बीच नीति और आचार्यत्व के एक अनुपम अध्याय की कहानी है। रामकथा का यह अनसुना अमृत है, जिसे कंबन की कलम ने रामभक्तों की तृप्ति के लिए इतिहास के पन्नों पर उतारकर अजर-अमर कर दिया।

(यह कंबन रामायण की एक कथा मात्र है।)

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