फिर हुई मॉब लिंचिंग!
अतीक अंसारी
फिर हुई मॉब लिंचिंग। झारखण्ड में फिर मारा गया एक अदद नवजवान तबरेज़। फक़त दो महीने पहले उसकी शादी हुई थी। मोदी जी की सर्जिकल स्ट्राइक की हक़ीक़त क्या है, पता नहीं। पर, इतना तो सच है कि भक्तों के दिमाग पर साइकोलॉजिकल स्ट्राईक करने में वे पूरी तरह कामयाब रहे हैं। इसी का नजा है ये मॉब लिंचिंग।
मॉब लिंचिंग को हम सिर्फ एक अपराधिक घटना या एक अदद हत्या तक सीमित करके न देखें। इसका मनोवैज्ञानिक पहलू बड़ा व्यापक है।
हम ग़ौर करें तो पायेंगे कि एक साम्प्रदायिक दंगा,जिसमें दर्जनों या सैकड़ों हत्याएं होती हैं,लेकिन हमारे दिल-दिमाग़ पर उसका वो असर नहीं पड़ता,जो मॉबलिंचिंग के ज़रिये मात्र एक व्यक्ति के मारे जाने पर पड़ता है। दंगों की खबरें हम तक अखबारों व चैनल्ज़ के ज़रिये आती हैं,इतने मरे,इतने घायल। तस्वीरें सब कुछ हो जाने के कई दिन बाद की मिलती हैं। इसका वो मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारे मन पर नहीं पड़ता जो किसी निहत्थे इंसान को दस-बीस लोगों द्वारा किसी बियावान में पेड़ से बांधकर बड़ी ही बेदर्दी से तड़पा-तड़पाकर मारने की वीडियो फुटेज देखकर पड़ता है।
ये असर बड़ा गहरा और दीर्घकालिक होता है। सैकड़ों हत्याओं वाले दंगों से कहीं ज़्यादा। इसका समाज के तीन तबक़े पर तीन तरह का असर पड़ता है। मुसलमान सहम जाता है, इसमें भाजपा को फायदा। भक्तगण का मनमयूर नाच उठता है। ये भी भाजपा के लिये फायदेमंद। हां, हिंदुओं का इंसाफ परस्त तबक़ा तड़प उठता है,तो इससे भाजपा को कुछ लेना-देना नहीं। वे तड़पें,भाजपा की बला से।
अब रहा सवाल मुसलमानों के सहम जाने का,तो उसकी एक सीमा है। एक सीमा के बाद ये खौफ आक्रोश में तब्दील होगा, ये स्वाभाविक प्रतिक्रिया है और इसी का इंतज़ार है भाजपा को। जैसे ही प्रतिक्रिया हुई,फिर तो भाजपा की पौ बारह। जैसा कि आज सोशल मीडिया पर देखने को मिला।
कुछ हिंदुओं ने झारखण्ड की घटना पर दुख व्यक्त किया। कड़े शब्दों में निंदा की। फिर क्या था,हिंदुओं का ही एक खास तबक़ा उनपर पिल पड़ा। उनकी दलील थी, ‘आपको झारखण्ड का तबरेज़ तो दिखा,मथुरा के यादव बंधुओं के साथ जो हुआ,वो नहीं दिखा? सेक्यूलर कहीं के’।
मुसलमानों को इस मनोविज्ञान को समझते हुए अपनी रणनीति तय करनी होगी। दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज भी मुल्क के हिंदुओं में एक बड़ी तादाद ऐसी है जो मुसलमानों को न सिर्फ पसंद करते हैं, बल्कि उनके साथ मिलजुलकर प्यार से रहना चाहते हैं। मॉब लिंचिंग की प्रतिक्रिया में जैसे ही कोई जवाबी कार्रवाई मुसलमानों की तरफ से हुई नहीं कि इस तबक़े के माथे पर भी बल आ जायेगा और ये भी भाजपा के ही पक्ष में जायेगा।
सो! ये किसी भी हाल में होने ना दें तो बेहतर है। साथ ही मथुरा जैसी घटना पर मुसलमान रहे,उसपर भी उसी तरह तड़प क्यूं नहीं उठे,उसकी भी निंदा क्यूं नहीं की?
रहा सवाल ज़ुल्म-ओ-सितम का तो,हम ये ना भूलें कि ‘ज़ुल्म की एक हद मुक़र्रर है, सब्र की कोई हद नहीं होती’। और चलते-चलते एक शेर मोदी जी के नाम…..’शोहरतें दो घड़ी की साथी हैं-यार!परछाईं क़द नहीं होती’।
(लेखक अतीक अंसारी वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)