यहां खुदा के नाम पूजे जाते हैं भगवान शिव!

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उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में ‘खुदा पूजा’ शुरू हो गई है, जिसमें भगवान शिव के ‘अलखनाथ’ स्वरूप की पूजा होती है। राज्य के लोगों की इस पूजा में अगाध आस्था है। चीन से लगती मुनस्यारी तहसील में सोमवार से यह खुदा पूजा शुरू हुई है। दरअसल यहां पर ‘आधा संसार, आधा मुनस्यार’ की कहावत काफी पहले से प्रचलित रही है।पिथौरागढ़ जिले की इस सीमांत तहसील के दर्जनों गांवों में यह अद्भुत पूजा काफी चर्चित है। सनातन धर्म को मानने वालों द्वारा की जाने वाली इस पूजा में हिंदू भगवान शिव के अलखनाथ रूप की पूजा करते हैं। शिव की पूजा यहां पर ‘खुदा’ के नाम पर करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

यह है मान्यता

मान्यता है कि मुगल शासनकाल में जब ग्रामीण भगवान अलखनाथ की पूजा कर रहे थे, तो मुगलों ने उन्हें देख लिया। मुगलों द्वारा पूछने पर ग्रामीणों ने खुदा की पूजा करने की बात कही। खुदा की पूजा का नाम सुनकर मुगलों ने ग्रामीणों को इसकी अनुमति दे दी। तभी से इसका नाम ‘खुदा पूजा’ पड़ गया। चार सदियों के बाद भी भगवान अलखनाथ की पूजा खुदा पूजा के नाम पर ही हो रही है। यह पूजा वैसे तो विषम वर्षों में होती है, लेकिन कुछ गांवों में इसे 12 साल बाद करने की परंपरा है।

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मार्गशीर्ष और पौष माह के शुक्ल पक्ष में होने वाली यह पूजा तीन से लेकर 22 दिन तक चलती है। इसके अलावा एक खास बात यह है कि खुदा पूजा रात के अंधेरे में होती है। जिस मकान में अलखनाथ की पूजा होती है, उसकी छत का एक हिस्सा खुला छोड़ा जाता है। मान्यता है कि छत के इसी खुले हिस्से से भगवान अलखनाथ पूजा में आते हैं। पूजा के पहले दिन श्रद्धालु पूजा में आमंत्रित देवडांगरों को गाजे-बाजे के साथ पवित्र नदियों, नौलों में स्नान कराते हैं। पूजा स्थल को जलाभिषेक और पंचामृत छिड़क कर पवित्र किया जाता है। दिन में अलखनाथ, दुर्गा, कालिका के साथ स्थानीय देवी देवताओं की स्थापना की जाती है।

गणेश पूजन के साथ महाआरती

सायं काल को गणेश पूजन के साथ महाआरती होती है। आरती के बाद जगरिए अलखनाथ की गाथा का गायन करते हैं। इसके बाद देवता अवतरित होते हैं और ढोल नगाड़ों की थाप पर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। पूजा के शक्तिस्थल पर कपड़े का पर्दा लगाया जाता है। माना जाता है कि अलखनाथ भगवान शिव के रूप हैं। वह एकांत में शुचिता वाले स्थान पर रहना पसंद करते हैं। खुदा पूजा के दौरान पद्म वृक्ष को न्यौता दिया जाता है। पद्म वृक्ष पुराणों से लेकर स्थानीय धार्मिक कार्यों में अति महत्व का माना जाता है। जब ग्रामीण पद्म के वृक्ष को न्योता देने उसके पास जाते हैं तो वहां पर मेला लगता है। जागरण के दिन पद्म वृक्ष की टहनियों को गाजे बाजे के साथ डलिया में रखकर पूजा स्थल तक लाया जाता है। इस दिन रात्रि को चार बार महाआरती का आयोजन होता है। दूसरी सुबह विशाल भंडारा होता है।

(साभार-एनबीटी)

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