काशी के घाटों से गायब हो रही हैं ऐतिहासिक छतरियां
वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों को चार चांद लगाने वाली बांस की छतरियां शीघ्र ही बीते दिनों की बात बनकर रह जायेगी। अब इनकी जगह सीमेंट की छतरियां लेती जा रही हैं। इन छतरियों को अपने कैमरे में कैद करने को सात समंदर पार से सैलानी आया करते हैं। घाटों पर लगीं ये छतरियां गंगा जमुनी तहजीब को भी बयां करती हैं। इन्हें बनाने वाले मुस्लिम व हिंदू परिवारों से थे और वे बनारस के घौंसाबाद में रह कर बनाते थे पर पारिवारिक दिक्कतों ने इस छतरी को बनाने वालों को ही निगल लिया।
धंधा ठप होने से दूसरे काम में लग गए लोग
धंधा मंदा होने के कारण अब सारे परिवार कोई और काम करने लगे जिसका सीधा असर घाटों की सुंदरता पर पड़ने लगा। दूसरी तरफ आसमान छूते बांस के दामों ने भी नुकसान पहुंचाया है। करीब दस किलोमीटर में फैले गंगा के ऐतिहासिक घाट इन छतरियों के बिना सूने लगते हैं। एक छतरी के निर्माण में आठ से दस दिन का समय लगता है और दो-तीन लोग मिलकर इसे तैयार करते हैं।
पंडो को दान में देते हैं छतरी
एक छतरी की कीमत तीन हजार रुपए से अधिक पड़ती है। इन छतरियों को अधिकतर लोग खरीदकर घाट के पन्डों को दान देते हैं। अब ये छतरियां केवल आर्डर देने पर ही बनती हैं। जबसे घाटों को सुंदर बनाने का जिम्मा प्राइवेट कंपनियों को दे दिया गया है तब से इन छतरियों की देख रेख कम होने लगी है। जैसे तैसे पंडा पुजारी छतरियों को कपड़ा-प्लास्टिक लगा कर खड़ा तो रखे हैं पर जो सुंदरता पहले थी वह खत्म हो गयी है।
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छतरी की जगह अब प्लास्टिक ने ले लिया है
छतरियों का स्थान अब चीथड़ों एवं प्लास्टिक ने ले लिया है जो घाटों की शोभा में बदनुमा दाग लगा रही हैं। छतरियां सदियों से तैलचित्रों, रेखाचित्रों तथा फोटोग्राफ के जरिये काशी की खूबसूरत छवि प्रस्तुत करती थीं। बांस की छतरी के नीचे पंडितों या पुरोहितों द्वारा चन्दन घिसकर लगाते कोई फोटो या पेंटिंग अगर देख लेता तो उसे झट धार्मिक नगरी वाराणसी की याद आ जाती थी।
छतरियों के नीचे पंडे और पुरोहितों की चौकियां लगती थीं
एक समय था जब छतरियों के नीचे पंडे और पुरोहितों की चौकियां लगती थीं जिन पर बैठकर पुरोहित अपने यजमानों को न केवल चंदन व टीका लगाते थे बल्कि रामचरित व भागवत का पाठ सुनाते थे तथा सारे धार्मिक कर्मकांड करवाते थे। यही नहीं गंगा स्रान के पश्चात श्रद्धालु बालों में कंघी करते व टीका चंदन लगवाते थे। बाहर से आने वाले यात्री इन्हीं छतरियों के नीचे गंगा स्नान के बाद न केवल कपड़े बदलते थे, बल्कि धूप और वर्षा से अपने को बचाते थे। अब धीरे-धीरे ये बीतें दिनों की बात रह जाने वाली है।