सावन का अन्धा
प्रदीप कुमार
सावन में अंधा होने का मजा ही कुछ और है। बाहर भले ही सूखे से जमीन में दरार पड़ी हो पर अंदर कूल-कूल का अहसास बना रहता है। बन्द आँखों से चौतरफा हरियाली दिखती है। मन मयूर बराबर नृत्य मोड में रहता है। मैं जब भी सावन के ऐसे अंधों को देखता हूँ, ऊपर से नीचे तक ईर्ष्या की आग में झुलसने लगता हूँ।
अहसास करा रही है और बेरोजगारी सावनी फुहार का
आखिर मैं क्यों न हुआ सावन का अंधा? बिलावजह सर पर मुश्किलों का पहाड़ उठाये टहल रहा हूँ । तन भी सूखा, मन भी सूखा। उधर देखिए वो मगन हैं उन्हें चारों दिशाएं हरी-हरी नजर आ रहीं। महंगाई उन्हें सावनी बयार का अहसास करा रही है और बेरोजगारी सावनी फुहार का। दूसरी तमाम परेशानियां भी वर्षा की मोटी-मोटी बूंदों की तरह तन मन को तृप्ति प्रदान करती हुई। किसी तरह की खलल बर्दाश्त नहीं। अगर पड़ी तो हत्थे से उखड़ जाते हैं।
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एलानिया कहते हैं – हम तो सावन के अंधे बने रहेंगे। रामचित मानस में महाकवि पहले ही लिख गए हैं–दुख और सुख मन की स्थितियों पर निर्भर करता है। दुख में भी सुख की अनुभूति कीजिये मन प्रसन्न रहेगा। मत सोचिये पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की आसमान छूती कीमतों के बारे में, ये सोचिये कि इंटरनेट डाटा सस्ता है। बेरोजगारी से परेशान मत होइए, फेसबुक और व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर हिन्दू बनाम मुसलमान की बहस में भिड़ जाइये और सावन की हरियाली का मजा लीजिये। इससे भी चैन न मिले तो और भी ऑप्शन हैं।
पहले हर-हर घर-घर मन्त्र जाप आवश्यक है…
सावन के अन्धों का लिखा मौलिक इतिहास पढ़िए। आपको अपने आसपास ऐसी दुनिया नजर आएगी जिसमें इंसानियत और भाईचारा छोड़कर नफरत के सारे साजो सामान मौजूद हैं। बस इसे पढ़ने के लिए आंखों पर सावन के अंधों की पट्टी बांधनी होगी ताकि सब कुछ हरा हरा नजर आए। मुदहुँ आँख कतहुँ कछु नाहीं में विश्वास रखने वाले ही इस सम्प्रदाय का हिस्सा बन सकतें हैं। लेकिन इस ध्यान योग को साधने के लिए पहले हर-हर घर-घर मन्त्र जाप आवश्यक है। हर-हर घर-घर से होते हुए ही आप हरा-हरा तक की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं और सावन के अन्धों की बिरादरी में शामिल हो सकते हैं। एक बार शामिल हो जाइए फिर सूखी मैली गंगा भी आपको अविरल निर्मल नजर आएंगी और काशी स्वच्छ।
इतनी आसान बात मुझे अब तक समझ में नहीं आई । मैं तो बैसाखनंदन बना जिंदगी के बोझ का गठ्ठर ढोता रहा। मुश्किलों के जंगल में खड़े एक आम आदमी के खोल से बाहर ही नहीं निकल पाया। आखिरी पायदान बैठा टुकुर-टुकुर निहारता रहा बेईमानी, भ्र्ष्टाचार, जुल्म , अन्याय को, किसानों की बदहाली को, बढ़ती महंगाई को , बेरोजगारी की मार से मुरझाये नवजवान चेहरों को, मेहनतकशों के शोषण को, जाति और सम्प्रदाय की घृणा में झुलसते समाज को,जुमलों से ठगे जाते आवाम को। कितना गिनाऊँ, कितना बताऊं। बस इतना समझ लीजिए कि – हजारों मुश्किलें ऐसी कि हर मुश्किल पे दम निकले। पर थका नहीं हूँ, मुकाबले का हौसला बाकी है। आपसे भी कहूँगा हिम्मत मत हारियेगा। सावन के अन्धों का मायाजाल टूटेगा, सुबह जरूर होगी।
(प्रदीप कुमार का नाम बड़े पत्रकारों में शुमार है)
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