बदहाली में जीने को मजबूर ‘अम्मा के किसान पुत्र’

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देश की अर्थव्यस्था में कृषि का व्यापक योगदान है, लेकिन कृषि और किसान कभी भी राजनीति की चिंता नहीं बना, हालांकि उसकी बदहाली पर राजनीति खूब की जाती है और घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। किसानों की अंतहीन पीड़ा को केवल वोट बैंक तक सीमित रखा जाता है। किसान राजनीति और सरकारों के लिए गन्ने की तरह है, जिसे चूसकर बेदम कर दिया जाता है। उसे केवल चुनावी मोहरा समझा जाता है। स्वतंत्र भारत में आज तक कृषि को उद्योग का दर्ज नहीं मिल पाया। दूसरी तरह किसानों की समस्याओं को लिए कोई कारगर और ठोस नीति नहीं तैयार हो पाई। बदहाल कृषि और उसे सीधे अर्थव्यवस्था से जोड़ने एवं किसानों की बदहाली को दूर करने के लिए आज तक कोई नीतिगत उपाय सरकारों ने नहीं खोजा।

देश में किसान और कृषि हित के लिए जो भी योजनाएं बनीं या बनाई गईं, उसका लाभ किसानों को नहीं मिला। इसकी वजह क्या रही इस पर भी कभी विचार करने की कोशिश नहीं की गई। दिल्ली हो फिर राज्यों की सरकारें कभी किसानों की समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया। देशभर में सबसे अधिक किसान दक्षिण भारत में आत्महत्या करते हैं।

सच तो यह है कि किसानों की खुदकुशी को सत्ता से बेदखल रहने वाला दल खूब मुद्दा बनाता है, लेकिन जब वह सरकार में आता है तो सब कुछ भूल जाता है।  तमिलनाडु के किसान राजधानी दिल्ली में जंतर-मंतर पर 14 मार्च से अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। किसान अपनी बदहाली दूर करने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी से मिलने तक गए, लेकिन बात नहीं बन पाई। किसानों ने अपनी आवाज सरकारों तक पहुंचाने के लिए हर उपाय अपनाए, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में उनकी तकलीफ बहस का मुद्दा नहीं बन पाई।

मीडिया में तलाक, गोरक्षा, उपचुनाव, दिल्ली नगर निगम और दूसरे मसले छाए रहे, लेकिन किसानों की बात प्रमुखता से नहीं उठाई गई। किसानों ने सरकार और मीडिया का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए तपती धूप में सारे उपाय किए। मरे किसान साथियों की खोपड़ियों के अलावा नग्न प्रदर्शन, सांपों-चूहों के साथ भी प्रदर्शन किया। यहां तक की मूत्रपान तक किया। लेकिन सरकारों की सेहत पर इसका कितना असर पड़ा, यह आप खुद समझ सकते हैं।

तमिलनाडु में 150 साल का अब तक का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है। इस वजह से राज्य के किसान कर्ज में डूब गए हैं, वहां के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राज्य में एक साल के दौरान तकरीन 400 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। किसानों की तरफ से जो मांग रखी गई है, उसमें कोई बुराई नहीं है। राज्य के किसानों का 7000 करोड़ कर्ज माफ करने की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा सूखा राहत निधि से 40 हजार करोड़ रुपये की सहायता के अलावा सूखे से निपटने के लिए राज्य की सभी नदियों को जोड़ने की बात रखी है।

फसल का उचित दाम दिलाने के साथ मृतक किसानों के आश्रितों को सरकारी पेंशन देने की मांग भी रखी है। किसानों की मांगों में कहीं से भी कुछ नाजायज नहीं दिखता है। केंद्र और राज्य सरकारें तमाम तरह की सामाजिक पेंशन योजनाएं लागू कर अरबों रुपये लुटा रही हैं। इन योजनाओं का लोग बेजा लाभ भी उठा रहे हैं, लेकिन किसानों के लिए यह सुविधा नहीं दी जाती है। पेंशन कोष की स्थापना तक नहीं की गई।

सूखा, बाढ़ और दूसरी आपदाओं से निपटने के लिए बीमा सुविधाएं उपलब्ध हैं, लेकिन वह इतनी उलझी हुई हैं कि उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में चुनावी सपने पूरे होने के बाद किसानों की कर्जमाफी का ऐलान हो सकता है। फिर दूसरे राज्यों के किसानों का कर्ज क्यों नहीं माफ किया जा सकता।  राजनीति और सियासी दल किसानों को राज्य और क्षेत्र की सीमा में क्यों बांधने की कोशिश करे हैं। देशभर के किसानों की समस्याएं एक जैसी हैं, लिहाजा इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। समता और समानता के आधार पर किसानों को एक जैसी सहूलियतें मिलनी चाहिए।

तमिलनाडु के किसान कर्ज माफी और स्पेशल पैकेज की मांग कर रहे हैं। ये किसान उस राज्य के हैं, जहां कभी अम्मा की लोकप्रिय सरकार थीं। वह गरीबों और आम आदमी में सबसे लोकप्रिय रहीं। लेकिन किसानों की बदहाली दूर करने के लिए भी उन्होंने भी कुछ खास कदम नहीं उठाया। अगर उनकी तरफ से पहल की गई होती तो राज्य के किसानों की बदहाली दूर हो सकती थी। उन्हें दिल्ली आकर अपनी पीड़ा न व्यक्त करनी पड़ती।

तमिलनाडु के किसानों ने 40 दिन तक दिल्ली में अपनी बात रखने को तरह-तरह के तरीके अपनाए, लेकिन अम्मा के उत्तराधिकार वाली सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। हालांकि बाद में राज्य के एक जिम्मेदार नेता ने प्रदर्शन स्थल पर पहुंचकर किसानों की पीड़ा सुनी।

लेकिन सवाल यह है कि किसानों को दिल्ली तक आना ही क्यों पड़ा। क्या यह राज्य सरकारों का दायित्व नहीं है? सरकारें भी राजनीति करती हैं। किसानों की कर्जमाफी के लिए उनके अपने संसाधन नहीं रहते हैं। वह केंद्र की सरकार पर अपनी बात ठेलती हैं। राज्य सरकारों की यह नैतिक जिम्मेादी बनती है कि वह लोकलुभावन योजनाओं को बंद कर किसानों के व्यापकहितवाली योजनाओं को अमल में लाएं, जिससे किसानों की माली हालत को में सुधार आए। कोई भी किसान आत्महत्या को मजबूर न हों।

ऐसी व्यापक ठोस नीति तैयार की जाए, जिससे किसानों को प्राकृतिक संसाधनों और सुविधाओं पर अधिक आत्मनिर्भर न होना पड़े। बाढ़ और सूखे की स्थिति में भी किसान अच्छी फसल उगाएं और उनकी मेहनत का परिणाम मिले। मंडियों तक उनकी उपज की पहुंच सुलभता से हो, जहां उनकी तरफ से उगाई गई फल, सब्जियों और दूसरी वस्तुओं को बेहतर दाम मिल पाए।

इसके अलावा परंपरागत कृषि के बजाय उन्हें अधिक फल, सब्जियों और औषधीय खेती की ज्ञान और तकनीक उपलब्ध कराई जाए। किसानों के कल्याण के लिए बनाई गई संस्थाओं को अत्यधिक पारदर्शी और क्रियाशील बनाया जाए। सस्ते, सुलभ खाद-बीज की उपलब्धता के साथ बेहतर तकनीकी जानकारी का उन्हें लाभ मिले।

फसलों के खराब होने की स्थिति में उन्हें मुआवजे की व्यापक नीति बनाई जानी चाहिए। किसानों की मूल समस्या की वजह सिंचाई की सुविधा का अभाव है। सरकारों को नदी जोड़ योजना पर व्यापक नीति तैयार करनी चाहिए। यह किसानों और कृषि के लिए वरदान हो सकता है।

तमिलनाडु के किसान अगर बदहाल हैं तो अम्मा की आत्मा के लिए यह कष्टदायी पल होगा। सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए राज्य के किसानों को संकट से उबारे और उनकी जिंदगी को खुशहल बनाए, क्योंकि यह चुनी हुई सरकार का दायित्व है।

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