कश्मीर को समाधान चाहिए, सियासत नहीं
कश्मीर के मौजूदा हालात पर जिस तरह की सियासत हो रही है, उसे देखकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चंद पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं। उन्होंने कहा था, “सत्ता का खेल तो चलेगा, सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए..।” लेकिन आज की स्थिति अटल जी के इन कथ्यों के ठीक उलट है।
विभिन्न मौकों पर ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि राष्ट्रहित की जगह पार्टी हित ने ले ली है, क्योंकि कश्मीर मुद्दे से जिस तरह से निपटा जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि हमें समाधान की नहीं, सियासत की ही जरूरत है।
जीप से बांधने पर हो-हल्ला क्यों
कश्मीर में पत्थरबाजों से लोगों की जान बचाने के लिए सेना द्वारा एक स्थानीय युवक फारूक अहमद डार को ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया। इस मामले को लेकर काफी हो-हल्ला मचा और स्थानीय पुलिस ने इसकी प्राथमिकी दर्ज की और सेना ने भी इसके खिलाफ जांच बिठाई।
लेकिन इस आधिकारिक कार्रवाई के उलट यह मुद्दा भी राजनीति का मुद्दा बन गया। संवैधानिक पद पर बैठे लोगों तक ने इस घटना को जायज ठहराया। इससे तो यही प्रतीत होता है कि पार्टी का हित पहले है, देश हित बाद में।
उड़ी हमला और सर्जिकल स्ट्राइक
जम्मू एवं कश्मीर के उड़ी में सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर आतंकवादियों के भीषण हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में जाकर आतंकवादियों के लॉन्च पैड पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को सरकार ने जिस तरीके से मीडिया में पेश किया और इसके बाद घाटी में चल रही निरंतर सैन्य कार्रवाइयों का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की गई, उससे एक नई परंपरा चल पड़ी, जो देशहित में तो बिल्कुल नहीं है। सेना वक्त-वक्त पर इस तरह की कार्रवाइयों को पहले भी अंजाम देती रही है, लेकिन कभी भी इसका ढिंढोरा नहीं पीटा गया।
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में रह चुके रक्षा मामलों के जानकार और सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक सी. उदय भास्कर ने कहते हैं, “पिछले कुछ दिनों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तथा विपक्ष के बीच जिस तरह तू-तू,मैं-मैं हुई है, उसे टाला जा सकता था। कश्मीर मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार और फौज को कश्मीर में हो रही कार्रवाई को इतने वृहद पैमाने पर सार्वजनिक करने की कोई जरूरत नहीं थी। फौज ने पहले भी कार्रवाई की है। तब हम इसका इतना राजनीतिकरण नहीं करते थे, जितना अब दिखाई दे रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए।”
इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दल मुद्दे पर सियासत तो करते हैं, लेकिन उसे सुलझाने के लिए कोई पहल करने से गुरेज करते हैं। समस्या के समाधान के लिए संवैधानिक रूप से सरकार जिम्मेदार होती है। लेकिन अक्सर सरकार भी समाधान के बदले राजनीति का ही रास्ता पकड़ती है, और मामला जहां का तहां पड़ा रह जाता है, जिसका परिणाम आज कश्मीर के रूप में सामने है।
पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित आतंकवाद की आग में झुलस रही कश्मीर घाटी में पिछले कई दशकों से सेना जिन हालात में अपने काम को अंजाम दे रही है, यह समय-समय पर उनकी शहादत से पता चलता है। वह आतंकवादियों की गोलियों का सामना तो पहले से कर रही थी और अब पत्थरबाज उनपर नई मुसीबत बनकर टूटे हैं। ये सारी मुसीबतें भी राजनीति का परिणाम हैं।
पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने मानव ढाल की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, लेकिन उन्होंने सेना को रियायत भी दी कि यह एक असाधारण मामला है। वहीं, एक अन्य पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी. पी. मलिक ने इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन कहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि कश्मीर घाटी में असाधारण परिस्थिति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
मेजर गोगोई को सम्मान से प्रतिकूल असर
यह बात भी स्पष्ट है कि मेजर गोगोई को सम्मानित करने में जल्दबाजी दिखाई गई, यही नहीं सरकार के लोगों ने इसका खुलेआम समर्थन किया। जाहिर तौर पर इसका कश्मीरियों की भावना पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और हालात और बिगड़ेंगे।
उदय भास्कर ने कहा, “सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश के किसी भी हिस्से में राष्ट्र के किसी भी चिन्ह या ड्यूटी पर तैनात कर्मी पर किसी भी तरह का हमला कतई स्वीकार नहीं करेंगे, चाहे ऐसा करने वाले कश्मीरी पत्थरबाज हों या कोई और। यह कानून का उल्लंघन है। गोगोई मामले में तुरंत किसी को सही या गलत ठहराना जल्दबाजी होगी।
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इसे हमें संपूर्ण तरीके से देखना चाहिए। कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी अभी चल रही है और सेना ने जिस तरह बेहद जल्दबाजी में गोगोई को प्रशस्ति पत्र दे डाला और हुकूमत ने इसका राजनीतिक तरीके से समर्थन करने की कोशिश की, वह बेवजह थी। गोगोई की वजह से नहीं, बल्कि कश्मीर के अंदर जो मसला है, उसकी वजह से इस मामले से सहानुभूति पूर्वक निपटना चाहिए था।”
सैन्य शक्ति से समाधान नहीं
केंद्र सरकार कश्मीर के हालात सुधारने के लिए सैन्य समाधान पर जोर देती है, जबकि सच यह है कि दुनिया के किसी मसले का सैन्य समाधान सफल नहीं हो पाया है, और कश्मीर इससे अलग नहीं है।
उदय भास्कर कहते हैं, “सरकार सोचती है कि कश्मीर समस्या का समाधान सैन्य उपायों से हो जाएगा, जबकि मेरे खयाल से ऐसा नहीं होने वाला है। इससे यही होगा कि अलगाववाद, पत्थरबाजी की समस्या और बढ़ेगी।”
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