शूलटंकेश्वर महादेव: यहीं पर भगवान शिव ने त्रिशूल से रोका था मां गंगा के वेग
गंगा का शूल हर लिया और लिये थे दो वचन तो नाम पड़ा शूलटंकेश्वर
वाराणसी के रोहनिया क्षेत्र के माधोपुर में गंगा के सुरम्य तट पर शूलटंकेश्वर महादेव मंदिर का काशी के महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है. मान्यता है कि शूलटंकेश्वर महादेव यहां आनेवाले भक्तों के समस्त शूल हर लेते हैं. भगवान शिव ने इसी स्थान पर अपने त्रिशूल से गंगा के वेग को रोक कर उनसे वचन लिया था कि वह काशी को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होंगी. साथ ही काशी में गंगा स्नान करने वाले किसी भक्त को जलीय जीव से हानि नहीं होगी. गंगा ने जब दोनों वचन स्वीकार कर लिए तब शिव ने अपना त्रिशूल हटाया. इस जगह को काशी खंड में ‘आनंद वन‘ के नाम से जाना जाता था. इसे काशी का दक्षिण द्वार भी कहा जाता है. यही वजह है कि पूरे वर्ष तो यहां भक्त दर्शन को आते ही हैं लेकिन अपने कष्टों से मुक्ति के लिए सावन में भक्तों की भीड़ ज्यादा होती है.
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भगवान शिव ने दूर किया था मां गंगा का शूल
गंगा के अवतरण से जुड़ी मान्यताओं में कहा जाता है कि स्वर्ग से मां गंगा को धरती पर अवतरित होने का ब्रह्मा जी ने आदेश दिया. क्योंकि राजा भगीरथ के पुरूखों को तारने के लिए भगवान शिव ने उन्हें बचन दे दिया था. लेकिन मां गंगा स्वर्ग लोक छोड़ने के लिए राजी नही थीं. उन्हें इसका कष्ट यानी शूल था. चूंकि भगवान शिव का बचन और ब्रह्मा जी के आदेश के कारण उन्हें धरती पर उतरना पड़ा तो इससे नाराज होकर गंगा पूरे वेग से चलीं. क्योंकि धरती पर जाने का आदेश गंगा को काफी अपमानजनक लगा था. उनका वेग देख भगीरथ ने घबरा गये और उन्होंने शिवजी से प्रार्थना की कि वे गंगा के वेग को कम कर दें. गंगा पूरे अहंकार के साथ शिव के सिर पर गिरने लगीं. लेकिन शिवजी ने शांति पूर्वक गंगा को अपनी जटाओं में बांध लिया और केवल उनकी छोटी-छोटी धाराओं को ही बाहर निकलने दिया. शिव जी का स्पर्श प्राप्त करने से गंगा और अधिक पवित्र हो गयीं. पाताललोक की तरफ़ जाती हुई गंगा ने पृथ्वी पर बहने के लिए एक अन्य धारा का निर्माण किया ताकि अभागे लोगों का उद्धार किया जा सके.
तीनों लोकों स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में बहती हैं माता गंगा
गंगा एकमात्र ऐसी नदी है जो तीनों लोकों स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में बहती हैं. इसीलिए इनका नाम त्रिपथगा भी है. कहा जाता है कि इससे भी मां गंगा का शूल (कष्ट) कम नही हुआ. काशी भगवान शिव की नगरी है. जब मां गंगा काशी की ओर बढ़ी तो उनका वेग देख फिर शिव को शूलटंकेश्वर में त्रिशूल गाड़कर उनका वेग रोकना पड़ा. यहां शिव ने उनका शूल दूर किया और काशीवासियों के लिए दो वचन लेने के बाद उन्हें आगे जाने दिया था. तभी से मान्यता है कि जिस तरह से मां गंगा के शूल नष्ट हुए उसी तरह शूलटंकेश्वर का दर्शन करने वालों के सभी दुख दूर हो जाते हैं. वाराणसी कैंट स्टेशन से 15 किलोमीटर और अखरी बाईपास से चार किलोमीटर की दूरी पर यह मंदिर है. चुनार रोड पर खनांव के पास एक बड़ा द्वार बनाया गया है. शूल का अर्थ है कष्ट और जब मां गंगा को शूल यानी कष्ट था जो यहीं नष्ट हुए. दर्शन-पूजन के लिए यहां आम दिनों में तो श्रद्धालु आते ही हैं, शिवरात्रि और सावन में काफी भीड़ होती है. पौराणिक महत्व के इस मंदिर का शिव पुराण में भी उल्लेख है. काशी के दक्षिण में बसे मंदिर के घाटों से टकराकर गंगा काशी में उत्तरवाहिनी होकर प्रवेश करती हैं.
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माधव ऋषि ने की थी शिवलिंग की स्थापना
इस मंदिर में हनुमानजी, मां पार्वती, भगवान गणेश, कार्तिकेय के साथ नंदी विराजमान हैं. मंदिर के पुजारी मस्तराम उर्फ बदन बाबा ने बताया कि माधव ऋषि ने गंगा अवतरण से पहले शिव की आराधना के लिए यहां शिवलिंग की स्थापना की थी. गंगा तट पर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों ने इस शिवलिंग का नाम शूलटंकेश्वर रखा. द्वापर में ब्रह्मा ने यहां वीरेश्वर महादेव के शिवलिंग की स्थापना की थी. मान्यता यह भी है कि दक्षिण दिशा में विराजमान शूलटंकेश्वर विपत्तियों से इस नगरी की रक्षा करते हैं. कालांतर में एक राजपरिवार की ओर से इसे छोटे मंदिर का रूप दिया गया, जिसे स्थानीय लोगों ने 1980 के दशक में विस्तार दिया. गंगा का किनारा और खुला-खुला मंदिर लोगों को आकर्षित करता है. यहां मंदिर परिसर में सीकड़ बाबा की कुटिया है. सावन और शिवरात्रि के अलावा छठ पूजा और देव दीपावली पर भी काफी श्रद्धालु जुटते हैं. यहां दर्शन-पूजन के साथ सैर-सपाटा के लिए भी अब बड़ी संख्या में लोग आने लगे हैं. उन्होंने बताया कि गंगा अवतरण के पूर्व शिव की आराधना के लिए शिवलिंग की स्थापना हुई थी.