लॉकडाउन खत्म करने की चुनौती

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सप्ताह भर से भी कम समय में भारत सरकार को देशव्यापी लॉकडाउन खत्म करने पर कोई फैसला करना है। दुर्भाग्य है, शायद सरकार के पास एक मुकम्मल फैसला लेने के लिए पूरे आंकड़े नहीं हैं। सरकार जो भी फैसला करेगी, उसके नकारात्मक नतीजे होंगे, या तो सेहत के मोर्चे पर या आर्थिक मोर्चे पर या दोनों पर। अभी पूरी तरह से अकाट्य समाधान उपलब्ध नहीं है।

टीवी चैनलों पर दिखने वाले अधिकांश डॉक्टर बता रहे हैं कि 12-13 अप्रैल तक हमें बेहतर आंकडे़ मिल सकते हैं, जिनसे पता चलेगा कि क्या संक्रमण को संभालना संभव है? इसका मतलब है कि सरकार के पास फैसला लेने के लिए मुश्किल से एक दिन होगा। इसका एक और मतलब यह भी है कि सबसे आसान निर्णय होगा, लॉकडाउन को एक या दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया जाए।

बहरहाल, दो बेहतर विकल्प हैं- एक, कोविड-19 के बड़े केंद्रों को लॉकडाउन से प्रतिबंधित रखा जाए और कम जोखिम वाले इलाकों में कुछ रियायत दी जाए। दूसरा विकल्प, लॉकडाउन में चरणबद्ध तरीके से रियायत दी जाए। एक लंबे दौर में सेक्टर-दर-सेक्टर और इलाका-दर-इलाका ढील दी जाए, शायद ऐसा मई के अंत या जून की शुरुआत तक चले। बड़ा जोखिम यह है कि व्यापार बंद हैं। स्वास्थ्य पर मंडराता जोखिम सप्ताह-दर-सप्ताह नियंत्रण में आ सकता है, लेकिन यह अर्थव्यवस्था की कीमत पर होगा। दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था को फिर शुरू करने से महामारी के तेजी से फैलने का खतरा बढ़ जाएगा, क्योंकि आर्थिक गतिविधियां लोगों को अपने घर से बाहर निकलने और अन्य लोगों से मिलने-जुलने, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने और सार्वजनिक जगहों पर इकट्ठा होने को मजबूर करेंगी।

इसी महीने रबी की फसल आने वाली है और भरपूर फसल की उम्मीद है। यदि हम मानते हैं कि भारत में कुछ सबसे गरीब लोग आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं, तो हम उपज को मंडियों में ले जाने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते। हम लॉकडाउन के खत्म होने का इंतजार नहीं कर सकते कि वह खत्म हो और अनाज मंडी में आएं, ग्राहकों को बिकें। इसका मतलब है, कृषि, कृषि उद्योग और इससे जुडे़ अन्य उद्यमों को लॉकडाउन से बाहर लाने की जरूरत पहले से बनी हुई है। एक बार कृषि को खोला जाएगा, तो मैन्युफैक्चरिंग को भी छूट देने की रणनीति बनानी पड़ेगी, क्योंकि बुनियादी जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में उछाल की संभावना रहेगी।

लॉकडाउन
 ठप पड़ा एयरपोर्ट

एक बिंदु पर, सेक्टर-दर-सेक्टर अलग-अलग देखने का अर्थ नहीं रह जाएगा, क्योंकि सभी उत्पादों की आपूर्ति शृंखला होती है, जिसमें अन्य ऐसे उद्योग भी शामिल होते हैं, जो आधिकारिक परिभाषा में आवश्यक होने की अर्हता पूरी नहीं करते। जैसे, पैकेजिंग उद्योग। क्या हम उत्पादों को पैकेजिंग सेवाओं के बिना स्थानांतरित कर सकते हैं? क्या ट्रक उद्योग कह सकता है कि उसेगैरेज सेवा के बिना चलना है? और कब तक हम घरेलू या व्यक्तिगत सेवाओं, जैसे बिजली मिस्तरी, प्लंबर या नाइयों के बिना जिंदगी जारी रख सकते हैं? फिर भी यह तय करने का तार्किक तरीका होना चाहिए कि किस सेक्टर को लॉकडाउन से बाहर निकालना है। अभी सेवाओं के बीच कुछ अंतर करना होगा। कुछ लोग सीमित शारीरिक नजदीकी के साथ काम कर सकते हैं और कुछ लोगों के लिए नजदीकी शारीरिक संपर्क जरूरी है।

दो अन्य पहलू प्रौद्योगिकी और कॉरपोरेट क्षमताओं से संबंधित हैं। दूर रहकर भी किए जाने वाले कार्य आसानी से शुरू किए जा सकते हैं। ऐसी कंपनियों को अपना काम शुरू करने की मंजूरी दी जानी चाहिए, जो अपने कार्यस्थलों पर संक्रमण के खिलाफ सुरक्षित परिवहन और स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया करा सकती हैं। सार्वजनिक परिवहन की तुलना में निजी परिवहन को पहले चलने की मंजूरी दी जा सकती है।

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जब सार्वजनिक परिवहन शुरू हो जाए, तब भी हम बसों और ट्रेनों में लोगों को ठसाठस सफर करने की मंजूरी नहीं दे सकते। अर्थात बसों, ट्रेनों में यात्रियों के प्रवेश को नियंत्रित करने के लिए हमें ज्यादा पब्लिक वार्डन और रेलवे पुलिस की जरूरत है। अत: सरकारों को कम-कम अंतराल पर अधिक बसें चलानी चाहिए। यह कदम परोक्ष आर्थिक प्रोत्साहन के रूप में भी काम करेगा। पर इससे पहले कि हम धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधि और लोगों की आवाजाही को विस्तार दें, पहला और सबसे बड़ा निवेश हमें शारीरिक सुरक्षा उत्पादों पर करना होगा। हमें कपडे़ के ऐसे मास्क की जरूरत है, जिन्हें धोया या स्टर्लाइज किया जा सके। इसके अलावा, सैनेटाइजर्स की जरूरत है। पानी की कमी वाली जगहों पर लोगों को अपने हाथों को बार-बार धोने के लिए कहना शायद अच्छी सलाह नहीं है।

इसी शृंखला में यह भी उचित है कि कोविड-19 के खतरे का उपयोग किया जाए और कुछ समय के लिए सड़क, रेल जैसे मूलभूत ढांचे के लिए आवंटित धन को भी चिकित्सा मद में डाल दिया जाए। अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण इलाकों में मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया जाए। महामारी से लड़ने में मदद के लिए आयुर्वेद और यूनानी विधा के डॉक्टरों को भी साथ लेना चाहिए।

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कोरोना के भय से सुनसान पड़ी कोलकाता की सड़कें

हमें कोविड-19 की चुनौती से निपटते हुए अपने ध्यान को बिल्कुल अलग करके नहीं देखना चाहिए। इसकी वजह है, कोविड-19 के बिना भी भारत अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं की बड़ी मांग से जूझता रहा है। जब इस महामारी संबंधी संक्रमण और मौतों की संख्या घटाने की जद्दोजहद में अन्य बीमारियां और मौतें या तो नजरंदाज हो जाएंगी या कमजोर देखभाल की शिकार होंगी। अभी दूसरी बीमारियां रडार से परे हैं, उन्हें कोई गिन नहीं रहा। इस नाकामी की सबसे ज्यादा कीमत गरीब ही चुकाएंगे।

[bs-quote quote=”(यह लेखक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है।)

” style=”style-13″ align=”left” author_name=”आर जगन्नाथन ” author_job=”वरिष्ठ पत्रकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/04/R-Jagannathan.jpg”][/bs-quote]

भारत को आगे बढ़कर निवेश करना होगा, ताकि दशकों तक चिकित्सा क्षेत्र में जो कम निवेश हुआ है, उसकी भरपाई हो सके। लोगों को अनंतकाल तक घरों में रहने के लिए मजबूर करके संक्रमण रोकने की बजाय लोगों को सशक्त बनाने पर ध्यान देना होगा, ताकि लोग अपनी स्वयं भी रक्षा करें।

यही उम्मीद काफी नहीं कि सिर्फ शारीरिक दूरी रखने से बीमारी खत्म हो जाएगी। कारगर वैक्सिन या इलाज खोजने में एक साल तक लग सकता है; न तो हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था और न ही हमारी अर्थव्यवस्था इतना इंतजार कर सकती है। हमें स्वास्थ्य सेवा क्षमताओं का विस्तार करने के साथ ही अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए ज्यादा निवेश करना होगा। यह किसी एक पर नहीं, दोनों ही क्षेत्रों पर ध्यान देने का समय है।

 

 

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