आरक्षण : 33 प्रतिशत मिला नहीं 50 की मांग हो रही है!

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महिला आरक्षण विधेयक पारित होने की बाट जोहते-जोहते एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई। इस बीच, लोकसभा एवं विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी के बजाय 50 फीसदी आरक्षण की मांग उठने लगी है। विभिन्न राजनीतिक दलों से लेकर तमाम महिला संगठन चाहते हैं कि संसद के मानसून सत्र में ही इस विधेयक को पारित किया जाए, लेकिन एक आशंका यह भी है कि 50 फीसदी आरक्षण की मांग के चक्कर में कहीं महिला संगठनों के वर्षो के संघर्ष पर भी पानी न फिर जाए। यह विधेयक पहली बार 1996 में संसद में पेश हुआ था और 14 साल बाद 2010 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में राज्यसभा से पारित हुआ था, लेकिन दो सदियां बीतने के बाद भी यह अधर में लटका हुआ है।

संसद एवं विधानसभाओं में महिला आरक्षण की मुहिम में अग्रणी भूमिका निभाने वालों में से एक मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता वृंदा करात ने बताया, “सीपीएम लंबे अर्से से महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने की मुहिम छेड़े हुए है।

हमने संसद सत्र शुरू होने से पहले भी सदन के एजेंडा में इस विधेयक को जुड़वाने की मांग की थी, लेकिन हमें सरकार की ओर से कोई सटीक जवाब नहीं मिला। हमने इस मुद्दे को एक बार फिर संसद के भीतर और बाहर रखने का फैसला किया है। इसके पक्ष में जंतर मंतर पर विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इकट्ठा होकर सरकार तक अपनी बात भी पहुंचाई।”

अब 33 के बजाय 50 फीसदी आरक्षण की उठ रही मांगों के बारे में पूछने पर वह कहती हैं, “मैं समझती हूं कि हमें पहले 33 फीसदी आरक्षण के प्रावधान वाले विधेयक पर ही बने रहना चाहिए। पहले 33 फीसदी आरक्षण लोकसभा से भी पारित हो जाए, उसके बाद उसमें संशोधन कर 50 फीसदी भी किया जा सकता है। हमें फिलहाल मुद्दे से भटकना नहीं है।”

एक अध्ययन के मुताबिक, संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की उपस्थिति के लिहाज से भारत का स्थान 140 देशों में से 103 पर है। मौजूदा समय में महिलाओं की लोकसभा में 12 फीसदी, जबकि विधानसभाओं में नौ फीसदी भागीदारी है।

कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी भी वृंदा करात की बातों से सहमति जताते हुए कहती हैं, “फिलहाल महिला आरक्षण 33 फीसदी ही रहे तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि 50 फीसदी की मांग करने से यह विधेयक लंबे समय के लिए अधर में लटक सकता है। इसके लिए नए सिरे से प्रयास करने पड़ेंगे, जिसमें लंबा समय लग सकता है। हालांकि, 50 फीसदी आरक्षण महिलाओं का हक है।”

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत संसद एवं विधानमंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे कई देशों से पीछे है। प्रियंका कहती हैं कि पुरुष प्रधान समाज को लगता है कि यदि महिलाएं बड़ी संख्या में नीति-निर्माता बन जाएंगी तो इससे उनके अधिकार क्षेत्र में खलल पड़ेगा। इससे सबसे ज्यादा खलबली क्षेत्रीय पार्टियों में हैं।

विधेयक के 2010 में राज्यसभा से पारित होने के बाद अब इसके अस्तित्व में आने के लिए लोकसभा से हरी झंडी मिलना बाकी है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने को प्राथमिकता दी थी, लेकिन सरकार के कार्यकाल के तीन साल गुजरने के बाद भी पार्टी ने इस दिशा में कोई फुर्ती नहीं दिखाई है।

इसके जवाब में भाजपा सांसद रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, “कई अहम विधेयक सत्र में पेश किए जाने हैं, जो नियत समय पर पेश होंगे। सदन में विपक्ष द्वारा पैदा किए जा रहे व्यवधानों की वजह से इनमें देरी हो रही है। आरक्षण महिलाओं का हक है और भारतीय जनता पार्टी महिलाओं को उनका हल दिलाकर रहेगी।”

कांग्रेस की प्रियंका चतुर्वेदी झुंझलाते हुए कहती हैं, “इस सरकार की पॉलिटिकल विल ही नहीं है कि वह इस विधेयक को पारित कराए। तीन साल बीत गए और इस दिशा में अभी तक कुछ नहीं किया गया।” कांग्रेस हर बार विपक्षी एकता की बात करती है, लेकिन समाजवादी और जनता दल (युनाइटेड) जैसी विपक्षी धड़े की पार्टियां शुरू से ही महिला आरक्षण विधेयक की विरोधी रही हैं। जद (यू) हालांकि अब पाला बदलकर राजग का घटक बन गया है।

बरसों पहले, सदन में शरद यादव के महिलाओं पर कटाक्ष और उनका ‘परकटी’ वाले बयान को भला कौन भुला सकता है। इसका जवाब देते हए प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, “आपको शरद यादवजी का बरसों पुराना बयान याद है, लेकिन मुलायम सिंह यादव का यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान का वह बयान याद नहीं है, जिसमें उन्होंने कहा था कि वह लोकसभा ही नहीं, बल्कि हर चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिए जाने का समर्थन करते हैं। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के संयुक्त घोषणापत्र में भी इसका ऐलान किया गया था।”

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महिला आरक्षण विधेयक की पैरवी करने वाली एक गैर सरकारी संस्था एक्शनएड इंडिया की प्रोग्राम एवं पॉलिसी निदेशक सहजो सिंह कहती हैं, “पहले इस आरक्षण को लेकर महिलाओं में भी सजगता की कमी थी, लेकिन अब काफी बदलाव आया है। पुरुष प्रधान सोच है कि यदि महिलाओं को यह हक दिया गया तो इससे उनके वर्चस्व को खतरा होगा। पंचायतों में पहले से ही महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण लागू है। हालांकि, अब इस विधेयक में 33 के बजाय 50 फीसदी आरक्षण की जो मांग उठ रही है वह जायज है, लेकिन उसे फिलहाल 33 फीसदी ही रहने देना चाहिए।”

सहजो कहती हैं, “महिला सशक्तीकरण को लेकर वैचारिक भ्रम की स्थिति है। आप रेगुलेशन कर रहे हैं तो यह व्यक्ति विशेष में नहीं, व्यवस्था में बदलाव को लेकर है। यहां स्त्री या पुरुष की बात नहीं है बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की बात आती है।” यह देखना दिलचस्प होगा कि संसद के हंगामेदार सत्र के बीच यह विधेयक सदन में कब पेश होता है और पारित हो पाता है या नहीं।

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