अपने आप बंद हुआ ओजोन लेयर का छेद

कुदरत को पहुंचाए गए हर एक नुकसान का खामियाजा हमें किसी-न-किसी रूप में भुगतना ज़रूर पड़े

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कुदरत को पहुंचाए गए हर एक नुकसान का खामियाजा हमें किसी-न-किसी रूप में भुगतना ज़रूर पड़ेगा, लेकिन क्या बताए- इसकी भी लीला कुछ अलग सी है। एक ओर कुदरत इस घातक वायरस के रूप में मानव जाति को सजा दे रही है तो दूसरी ओर हमारे द्वारा प्रकृति को पहुंचाए गए नुकसान की भरपाई भी कर रही है। करीब 25 दिन पहले वैज्ञानिकों ने कहा था कि हमें सूर्य की घातक अल्‍ट्रावायलेट किरणों से बचाने वाली ओजोन लेयर का छेद भरने लगा है।

अब इससे भी बढ़िया खबर आई है कि आर्कटिक के ऊपर बना ओजोन का ये छेद पूरा बंद हो गया है। यूरोपियन सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फोरकास्ट (ECMWF) के कोपरनिकस एटमॉस्फियर मॉनिटरिंग सर्विस (CAMS) ने इस बात की पुष्टि की है कि यह ओजोन होल अब समाप्‍त हो गया है। बताया गया है कि यह छेद कोई छोटा-मोटा नहीं बल्कि 10 लाख वर्ग किलोमीटर की परिधि वाला था।

लॉकडाउन नहीं है वजह-

कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लगा लॉकडाउन

CAMS ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि वसंत में अंटार्कटिक के ऊपर विकसित होना वाला ओजोन छेद एक वार्षिक घटना है, उत्तरी गोलार्ध में इस तरह के मजबूत ओजोन क्षरण के लिए स्थितियां सामान्य नहीं हैं। शोधकर्ताओं ने ऐसा होने के पीछे तापमान में उतार-चढ़ाव को जिम्मेदार ठहराया है।

रिपोर्टों के अनुसार, इसके पीछे पोलर वोर्टक्‍स प्रमुख वजह है जो Arctic क्षेत्रों में ठंडी हवा लाने और ओजोन परत के बाद के ट्रीटमेंट के लिए जिम्मेदार हैं। वैज्ञानिकों ने कहा है कि यह परिवर्तन मानवीय गतिविधियों में कमी आने के कारण नहीं हुआ है। यानि कि इसके पीछे लॉकडाउन या प्रदूषण का कम होने जैसी कोई वजह नहीं है।

बता दें कि ओजोन एक रंगहीन गैस है जो मुख्य रूप से पृथ्वी के स्ट्रैटोस्फियर में पाई जाती है, जो सूर्य और धरती के बीच एक सुरक्षात्मक परत बनाती है और सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावायलेटरेज़ को प्रिवेंट करती है। मानवीय गतिविधियों के कारण दशकों से ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है।

पहली बार 1985 में चला था नुकसान का पता-

ozone-hole

गौरतलब है कि ओजोन परत को पहली बार 1985 में बड़ी हानि पहुंची थी और इसे अंटार्कटिक ओजोन छिद्र कहा गया। बाद में यह ध्यान दिया गया कि मानव निर्मित रासायनिक यौगिक जिसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) कहा जाता है, स्ट्रैटोस्फियर में ओजोन की सांद्रता में कमी का कारण बना था।

इसके बाद 1987 में, CFCs के उत्पादन और खपत की जांच के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को अपनाया गया, जिसने बाद में इस रासायनिक यौगिक पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया था।

यक़ीनन सिचुएशन अभी तो कंट्रोल में है लेकिन हमें consciousness और ग्लोबल एफर्ट की ज़रूरत है ताकि हम इस प्रॉब्लम से पूरी तरह से मुक्ति पा सके।

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