तुमसे कोई शिकायत नहीं. लव यू जिंदगी- रवि प्रकाश

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जख्‍म नासूर हुआ और दर्द से मैंने दोस्‍ती कर ली
जब भी उठता है तो दोस्‍तों सा सुकूं देता है
अब तो आलम है कि अक्‍सर उसे बुला लिया करता हूं
वो आता है और दर्द ए राहत दिया करता है
किसी शायर की इन लाइनों में जिंदगी को सकारात्‍मक नजरिया देने का फलसफा छिपा है. अपनी जिंदगी को कुछ ऐसा ही नजरिया वरिष्‍ठ पत्रकार रवि प्रकाश ने दिया हैं. प्रभात खबर, दैनिक भास्‍कर, दैनिक जागरण जैसे अखबारों में संपादक रहे और वर्तमान में बीबीसी के लिए लिख रहे रवि प्रकाश तकरीबन तीन सालों से लास्‍ट स्‍टेज कैंसर से जूझ रहे हैं, लेकिन‍ जिंदगी से उन्‍हें कोई शिकायत नहीं है. जिंदगी से अपनी ‘नाशिकायत’ को उन्‍होंने अपने फेसबुक वॉल पर शब्‍द रूप में सहेजा है. हम आपको ठीक वैसा ही परोस रहे हैं जैसा उन्‍होंने रचा है.

डियर जिंदगी,

हम तुम्हें ठीक रखने की कोशिशें कर रहे हैं। यकीनन तुम भी यही करती हो। लिहाजा, तुमसे कभी कोई शिकायत नहीं रही। कभी नहीं। भविष्य में भी शिकायतों की गुंजाइश नहीं।

मैंने तब भी कुछ नहीं कहा, जब तुम कैंसर लेकर आयी। मैं तब घबराया। रोया। फिर पता चला कि यह अंतिम स्टेज वाला कैंसर है, तो उसे भी हमसफ़र बना लिया। तुमने भी साथ दिया और हम तीनों पिछले पौने तीन साल से साथ हैं। शायद, तुम्हें भी ठीक लगता होगा यह साथ।

मैं जानता हूँ कि एक रोज तुम मुझे मौत के हवाले कर दोगी। तब यह साथ छूटेगा। तभी तो मैंने पिछले साल मौत के नाम खत लिखा था। उससे कहा था कि जल्दी क्या है। थोड़ा इत्मीनान से आना। कुछ और काम बाकी है। मौत भी पढ़ाकू है। रेस्पांसिव भी। उसने भी खत की मर्यादा रखी। हमें वक्त दिया। मैं, तुम और मेरा कैंसर तभी तो साथ चल पा रहे हैं। कुछ-कुछ कर भी पा रहे हैं।

हाँ, एक दुःख है कि पहले वाली पत्रकारिता नहीं हो पा रही। मैं ग्राउंड पर जाने की छटपटाहट में हूँ। परिस्थितियाँ नहीं बन पा रहीं। लेकिन, मुझे जाना है। हे जिंदगी, मैं जल्दी ही झारखंड के किसी सुदूर गाँव में तुम्हें डेट पर लेकर चलना चाहता हूँ। वहाँ हम तीनों (मैं, तुम और कैंसर) आदिवासियों के साथ संभव हुआ तो चाय पिएँगे। फिर कुछ कहानियाँ निकलीं, तो सुनेंगे-सुनाएँगे।

ऊँची दीवारों से घिरे कुछेक स्क्वैयर फीट की बनावट में कैद रहना ठीक नहीं लग रहा। राँची-मुंबई-राँची और मेडिका-टीएमएच-मेडिका वाली दिनचर्या मोनोटोनस लगने लगी है। सुबह जगते ही और रात में सोने तक जो दर्जन भर दवाइयाँ मैं खाता हूँ न, मेरी जीभ उनके स्वाद की आदी हो चुकी है। अब उनमें टेस्ट नहीं आता। अपनी ही उँगली में खुद सुई मारकर सुर्ख लाल खून निकालना, फिर उससे ब्लड शुगर की मात्रा मापना। सुबह-शाम अपने ही पेट में सुई चुभोकर इंसुलिन भेजने में कुछ नयापन नहीं लग रहा। सब मोनोटोनस है। बे-रस। बे-स्वाद। खाना खाते हुए बीच में ही रुककर एंजाइम के कैप्सूल खाना। मानो, नमक हो जिसके बगैर स्वाद ही न आए। यह सब करने में कुछ नया नहीं दिख रहा। कुछ नया करना है। जल्दी।

ऐ जिंदगी, तुमने कैंसर दिया। साल भर बाद क्रॉनिक पैंक्रियाटाइटिस। फिर उसकी वजह से डायबीटीज़। पहले शरीर की कुछ कोशिकाओं ने मेरे दिमाग की बात माननी बंद कर दी। कैंसरस हो गईं। फिर शरीर में पर्याप्त एंजाइम बनना बंद हुआ। और, अब पर्याप्त इंसुलिन नहीं बन पा रहा है। कीमोथेरेपी के 45 सत्रों के बाद शरीर में वो क्षमता भी नहीं रही।

 

वो, तो मेरे डॉक्टर्स हैं, जो सारी चीजें मैनेज हो जा रही हैं। इंसुलिन न बने, तो बाहर से दे दिया। एंजाइम न बना, तो कैप्सूल खिला दिया। कीमो से शरीर की कुछ दूसरी कोशिकाएँ कमजोर हुईं, तो उन्हें भी रास्ते पर लाने के इंतजामात कर दिए। कैंसर वाला जेनेटिक म्यूटेशन मिल गया, तो उसके लिए टारगेटेड थेरेपी कर दी। है न कमाल। हे डॉक्टर्स, आप धन्य हो। खैर।

तो ऐ जिंदगी, यह सब ठीक है लेकिन मोनोटोनस है। इसलिए एक गुज़ारिश है। थोड़ा ब्रिदिंग स्पेस भी दो प्लीज। खुदरा-खुदरा कष्ट मत दो। मौत के हवाले कर देना हो, तो बेशक कर दो। लेकिन, ये छोटे-छोटे मौसमी कष्ट मत दो। शरीर कमजोर है। पहले वाली प्रतिरोधक क्षमता नहीं रही। इसलिए डर लगता है। मुझे दर्द से जूझते हुए नहीं रहना। मुझे तो मौत भी शानदार चाहिए। ज़ाहिर है जिंदगी तो बड़ी चाहिए ही।

उम्मीद है कि तुम मेरी बातों पर गौर फरमाओगी।
फिलहाल के लिए बस इतना ही।

लव यू जिंदगी।

तुम्हारा रवि।

#LivingWithLungCancerStage4

(यह लेख वरिष्‍ठ पत्रकार रवि प्रकाश के फेस्बूक हैन्डल से लिया गया है।)

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