जानें क्या, नीतीश-लालू की दोस्ती रहेगी बरकरार?
बिहार राजनीतिक अस्थिरता के मुहाने पर खड़ा दिखता है। राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार(corruption) के लगे आरोप और सीबीआई छापे के बाद जनता दल युनाइटेड (जदयू) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में सियासत गर्म हो गई है। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, बेटी मीसा भारती, पत्नी राबड़ी देवी के साथ राज्य के उपमुख्मंत्री और बेटे तेजस्वी यादव पर आय से अधिक संपत्ति मामले को लेकर सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से की गई कार्रवाई से स्थिति बदल गई है।
चारा घोटाले के बाद लालू का यदुवंशी कुनबा एक बार फिर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गया है। सीबीआई ने छामेमारी के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव सहित सात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है। इसमें लालू की कंपनी भी शामिल है।
बिहार में जिस तरह के राजनीतिक हालात बने हैं, उस स्थिति में क्या महागठबंधन बरकरार रहेगा। राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को रोकने के लिए दोस्ती की गांठ और मजबूत होगी या फिर बिखर जाएगी। राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह सवाल अहम हो गया है। दोनों दलों की तरफ से तल्ख भरी बयानबाजी शुरू हो गई है।
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राजद की मीटिंग में यह फैसला लिया गया कि तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगे और गठबंधन पर कोई आंच नहीं आएगी। वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस मसले पर अपनी चुप्पी भले नहीं तोड़ रहे, लेकिन दोनों दलों के नेताओं में बयानबाजी तेज हो चली है। जद (यू) की बैठक के बाद तेजस्वी को चार दिन का समय दिया गया है और जनता की अदालत में लगे आरोपों की सफाई देने की बात कही गई है। पार्टी भ्रष्टाचार को लेकर अभी जीरो टॉलरेंस अपना रही है।
हालांकि तेजस्वी की तरफ से इस पर कोई सफाई नहीं आई है। बस वहीं रटा रटाया बयान आ रहा है कि भाजपा की तरफ से बदले की कार्रवाई की गई है। उस हालात में महागठबंधन की उम्र को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं, लेकिन अगर तेजस्वी यादव सरकार से बायकाट करते हैं तो महागठबंधन का बिखराव तय हैं, लेकिन फिलहाल अभी सब कुछ इतना जल्द होने वाला नहीं है। जद (यू) की तरफ से गठबंधन तोड़ने के लिए पहला कदम भी नहीं उठाया जाएगा।
हालांकि तेजस्वी प्रकरण को लेकर नीतीश सरकार के लिए संकट खड़ा हो गया है। क्योंकि उनकी राजनीतिक छवि सुशासन बाबू की है और राष्ट्रीय राजनीति में भी बेदाग छवि के माने जाते हैं। उनकी पार्टी भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस रखती है। वह कई नेताओं को बाहर का रास्ता भी दिखा चुकी है। लेकिन दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने वाली सरकार उप्र और बिहार को बाईपास नहीं कर सकती। तेजस्वी यादव को लेकर अगर महागठबंधन टूटता है तो इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा।
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भाजपा 2019 को लेकर रणनीति बनाने में जुटी है। वह चाहती है कि राज्य महागठबंधन की गांठ जब तक कमजोर नहीं होगी, उसकी दाल गलने वाली नहीं है। उस स्थिति में वह हर हाल में महागठबंधन का बिखराव चाहती है। वह यह भी चाहती है कि नीतीश बाबू उसके हाथ में खेलें। फिलहाल तेजस्वी को लेकर दोनों दलों में तल्खी भले दिखती हो, लेकिन महागठबंधन बिखर जाएगा यह संभव नहीं दिखता है। फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव तक ऐसा होने वाला नहीं है।
नीतीश यह कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी राजनीति भाजपा के हाथ का खिलौना बने। वह जिस तरह का दबाव महागठबंधन पर बना सकते हैं, वैसा भाजपा के साथ कभी नहीं हो सकता है। लिहाजा, वह इस तरह का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे, जिससे की उनकी सियासत पर खतरा हो। दूसरी तरफ महागबंधन टूटने से मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण लालू और कांग्रेस की तरफ हो सकता है। क्योंकि 2019 में महागठबंधन के लिए नीतीश प्रधानमंत्री का चेहरा बन सकते हैं।
उन्हें राजनीति का चतुर खिलाड़ी माना जाता है। राष्ट्रपति चुनाव में जहां उन्होंने मीरा कुमार के बजाए रामनाथ कोविंद को समर्थन किया वहीं उपराष्ट्रपति के लिए महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी को समर्थन करने का ऐलान किया है। इस पैतरेबाजी से साफ दिखता है कि अभी वह खतरे की स्थिति में विकल्प की राजनीति कर रहे हैं।
लालू यादव ने साफ कहा है, “मुझे भाजपा और आरएसएस के खिलाफ बोलने की सजा दी जा रही है, मैं किसी से डरने वाला नहीं हूं।”
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बिहार की राजनीति में लालू की अहमियत को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। यहां की पिछड़ी जातियों में उनकी अच्छी पकड़ है। महागठबंधन ने नीतीश को सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात महागठबंधन की तरफ से जीएसटी समारोह का विरोध किया गया, बावजूद नीतीश संसद के सेंट्रल हॉल में भले न दिखें हो, लेकिन उनका दल शामिल हुआ। नोटबंदी पर भी विपक्षी एकता को ‘लुआठ’ दिखा चुके हैं। इससे यह साफ जाहिर हो रहा है कि नीतीश महागठबंधन की राजनीति खुद पर हावी होना नहीं देना चाहते।
वह लालू और कांग्रेस की निगाह में यह कत्तई साबित नहीं होने देना चाहते हैं कि महागठबंधन नीतीश की मजबूरी है। वह खुद की राजनीति से यह जताने की पूरी कोशिश करते हैं कि वह दबाव की राजनीति से परे हैं। खुले गेम में वह अधिक विश्वास रखते हैं। वह विकल्प खुला रखना चाहते हैं। जद (यू) संग भाजपा की सिमटी दूरियां कुछ अलग खिचड़ी पकने का संकेत भले दे रही हों, लेकिन महागठबंधन की गांठ फिलहाल अभी ढिली होने वाली नहीं है। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के बाद स्थितियां बदल सकती हैं।
2019 को देखते हुए कांग्रेस महागठबंधन बचाए रखने के लिए लालू पर दबाव भी बना सकती है। भाजपा और मोदी का सामना करने के लिए कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की नीति को आगे बढ़ाना। उस स्थिति में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को सारे जहर पीने पड़ सकते हैं, क्योंकि महागठबंधन के बिखराव से जहां बिहार के साथ राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा मजबूत होगी, वहीं इसका प्रभाव विपक्षी एकता पर भी पड़ेगा।
कांग्रेस और गैर भाजपाई दलों के पास प्रधानमंत्री मोदी के विजय अभियान को रोकने के लिए मात्र यही विकल्प होगा। दूर की राजनीति के लिए लालू यादव तात्कालिक स्वार्थ से हट कर महागठबंधन की एकता के लिए सब कुछ न्यौछावर कर सकते हैं। यही स्थिति राजद, जद (यू) और कांग्रेस के साथ वामदलों के लिए अच्छी होगी। क्योंकि उसके पास 2019 में भाजपा का सामना करने के लिए फिलहाल कोई विकल्प नहीं दिखता है।
भविष्य को देखते हुए नीतीश कुमार भी इस मसले को ठंडे बस्ते में डाल सकते हैं, लेकिन अभी स्थितियां वैसी नहीं बन रही है। इसके लिए हमें इंतजार करना होगा। लेकिन अभी महागठबंधन सुरक्षित दिखता है। राजनीति क्रिकेट की तरह अनिश्चिताओं का खेल हैं यहां कब बाजी पलट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है। नीतीश क्या स्टैंड अपनाते हैं यह देखना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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