आर्थिक और मानवीय संकट की आहट न बने लॉकडाउन
अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को अपने खर्च बढ़ाने होंगे, ताकि मांग बढ़ सके।
कोविड-19 के खिलाफ भारत जैसे-जैसे अपनी जंग आगे बढ़ाता जा रहा है, यह साफ दिखने लगा है कि यह लड़ाई लंबे समय तक जारी रहने वाली है। फिलहाल पूरा ध्यान इस वायरस के प्रसार को रोकने पर है, जो अभी तक ग्रामीण इलाकों में बडे़ पैमाने पर नहीं पहुंचा है। इसीलिए सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी। कमजोर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर के बावजूद लॉकडाउन इस स्वास्थ्य संकट को रोकने में बेशक मददगार साबित हो, लेकिन इसके कई अन्य गंभीर परिणाम निकल सकते हैं। इसकी सबसे भारी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है।
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गिरती मांग और आय के साथ-साथ बढ़ती बेरोजगारी के कारण अर्थव्यवस्था पहले से ही ढलान पर है, लिहाजा लॉकडाउन और इससे पड़ने वाले प्रभावों के कारण देश की आर्थिकी को संभलने में अपेक्षाकृत ज्यादा वक्त लगेगा। कंपनियां बंद होने और अर्थव्यवस्था के ठप पड़ने के कारण आमदनी में ज्यादा गिरावट आएगी। इससे मांग तो खैर प्रभावित होगी ही, इसके अलावा, आपूर्ति शृंखला के टूटने से शहरी क्षेत्रों में महंगाई बढ़ने के साथ-साथ किसानों की फार्म-गेट प्राइस’ (फसल की खेत में मिलने वाली कीमत) के घटने का भी अंदेशा है। कृषि उपज की बिक्री या परिवहन के लिए कोई साधन न होने से फसलों की कटाई में भी देरी हो सकती है। इससे स्वाभाविक तौर पर देश में कृषि संकट बढे़गा। इसके कारण पहले से कमजोर ग्रामीण मजदूरी जमीन पर लोटने लगेगी।
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इसी वजह से यह आवश्यक हो जाता है कि लॉकडाउन में फंसे अनगिनत श्रमिकों और शहरी गरीबों को सरकारें तत्काल राहत पहुंचाएं। विकसित दुनिया के कई देशों ने अपने यहां के गरीबों, छोटे व्यापारियों और अन्य कमजोर वर्गों की सहायता के लिए जल्द ही कदम उठा लिए। मगर भारत की चुनौती कहीं अधिक है। देश के कुल कामगारों में एक-तिहाई हिस्सा तो दिहाड़ी श्रमिकों का है। रोजगार खत्म होने से सबसे ज्यादा प्रभावित वही होंगे। छोटी इकाइयों में स्वरोजगार करने वाले लोगों की आमदनी भी घट सकती है और संभव है कि वे कर्ज के जाल व गरीबी के दुश्चक्र में फंस जाएं। हालांकि बीते गुरुवार को केंद्र सरकार ने गरीबों के लिए राहत पैकेज का एलान किया, जिसमें नकदी हस्तांतरण के साथ-साथ खाद्यान्न और दाल मुफ्त में बांटने की बात कही गई है। मगर एक अच्छी शुरुआत होने के बावजूद यह कदम देरी से उठाया गया है और यह अपर्याप्त है। मुफ्त खाद्यान्न योजना से भुखमरी से बेशक राहत मिलेगी, लेकिन इसे प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि नियत घरों तक सीमित करने की बजाय इसमें तमाम प्रवासियों और जरूरतमंदों को शामिल किया जाए।
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बडे़ खाद्यान्न भंडारों को देखते हुए यह भी लाजिमी है कि सरकार रबी की फसल की खरीद बढ़ाने की अनुमति दे। हालांकि मनरेगा मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने जैसे उपाय नाकाफी हैं और इनसे ज्यादा मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि लॉकडाउन में कोई काम मिलने से रहा। लिहाजा बेहतर होगा कि पिछले साल काम करने वाले मनरेगा से जुड़े हरेक परिवार के खाते में एक महीने की मजदूरी बिना शर्त डाल दी जाए। इसी तरह, सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी परिवारों में नकद हस्तांतरण भी उनकी आमदनी के नुकसान की भरपाई के लिए नाकाफी है, हालांकि मौजूदा संकट से यह उनकी रक्षा जरूर करेगा। लोग इन रियायतों से सही में लाभान्वित हो सकें, इसके लिए इनको कई मोर्चों पर बढ़ाने की भी दरकार है। यदि ऐसा नहीं किया जाएगा, तो लॉकडाउन एक बड़े मानवीय संकट की आहट साबित होगा।
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[bs-quote quote=”(यह लेखक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है।)
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इन राहतों का असर इस पर भी निर्भर करेगा कि इनको कितनी संजीदगी से लागू किया जाता है। अल्पकालिक राहत पैकेज स्वागतयोग्य है, लेकिन इसमें प्राथमिकता तय होनी चाहिए। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सरकार को रणनीति बनानी होगी। दीर्घावधि के सुधार के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को खर्च बढ़ाने होंगे, ताकि मांग बढ़ सके। सुखद बात यह है कि तेल की कीमतों में तेज गिरावट ने केंद्र को आर्थिक रूप से मजबूती दी है। लिहाजा गुरुवार को घोषित राहत पैकेज का एक तात्पर्य यह भी है कि देश में सामाजिक सुरक्षा का ढांचा मौजूद रहना चाहिए, जो संकट के इस समय में कारगर हो सकता है। आक्रामक उपायों का अपनाना ही समय की मांग है।
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