हेमंत शर्मा की इतवारी कथा: चूहडमल और पप्पू चायवाले 

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हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से... वह देश के जाने वाले पत्रकार है एवं TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है.

चाय सर्वहारा का पेय है।कल्पना कीजिए चाय न होती तो आम आदमी क्या पीता।चाय थकान मिटाती है।उर्जा देती है।और देती है हमें बौद्धिक विमर्श की खुराक।चुनाचें इस मुल्क में चायखानो में होने वाली बहसो को देखें तो लगेगा कि बस अब क्रांति होने ही वाली है।वैसे चायखानो से अगर क्रांति होती तो इस देश में रोज कोई न कोई क्रांति होती।

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बनारस में चाय के ऐसे अड्डे क्रांति धर्मी लोगों का केन्द्र होते थे।जहां अर्थ भरे भाव से घंटों व्यर्थ की बातें होतीं थीं।मेरे मुहल्ले में ऐसे ही बौद्धिक जुगाली का एक केन्द्र था,चूहडमल की चाय की दुकान।पर गफ़लत में मत रहिएगा।इन चूहडमल का उन टोडरमल से कोई सम्बन्ध नहीं था।जो अकबर के दरबार के नौरत्न थे।हलॉंकि उन टोडरमल की भी बनारस में रूचि थी।ये चूहडमल सिन्धी थे।बँटवारे में उनके पिता जी सिन्ध से बनारस आए और यहीं चाय की दुकान खोल ली।बनारस की चायमिजाजी निराली है।कभी इन्ही चायखानो से साहित्य,संगीत और आध्यात्म के सूत्र निकलते थे।यहॉं होने वाली बहस मुबाहिसो को देख कभी कभी लगता है।कि काशी में शास्त्रार्थ की जो परम्परा आचार्य शंकर और मंडन मिश्र से चली थी वह अब इन अडियों पर सिमट गयी है।

 

चूहडमल मेरे मुहल्ले में रहते थे।कबीरचौरा पर उनकी चाय की दुकान थी।चाय के अलावा उनकी दुकान का मक्खन टोस्ट और ऑमलेट पूरे बनारस में प्रसिद्ध था।चूहडमल की दुकान में कुल दो टेबुल थे जिन पर सिर्फ़ आठ लोग ही बैठ सकते थे।बाक़ी के कोई तीस चालीस लोग सड़क पर रखी बेंचों पर बैठ वैचारिक मिसाईल दागते थे।जाति,सम्प्रदाय के दुराग्रह से आगे चाय की इस अडी पर होने वाली बहस किसी संसद से कम नहीं होती।कबीरचौरा के संगीत घराने,पत्रकार और सामाजिक लोगों के जमावड़े से यह चाय की दुकान हमेशा गुलजार रहती।उस वक्त आठ पेज के ‘आज’ अख़बार को चार टुकड़ों में बॉंट अलग अलग कोनो में खड़े लोग अपनी अगली बहस की सामग्री तलाश रहे होते।मैं उधर से आते जाते अक्सर इस चाय की अडी पर खड़ा हो ज्ञान प्राप्त करता।राजनैतिक विमर्श के संस्कार मुझे यहीं मिलें।बनारस में चाय की दुकानों में गजब का राजनैतिक विमर्श होता है। दुकान चाहे चूहडमल की हो या फिर पप्पू की। सबकी राजनैतिक चेतना चरम पर होती है।

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चूहडमल पढ़े लिखे नहीं थे।जीवन का उद्देश्य भी चाय के तसले के आगे कुछ नहीं था। उनके दो बेटे दुकान चलाने में उनका हाथ बँटाते थे।निहायत मरियल सा उनका एक बेटा था।जो झक सफ़ेद २५ इंच मोहरी का बेलवॉटम और सफ़ेद शर्ट के कॉलर पर लाल रूमाल खोंस अंगीठी पर टोस्ट सेंकता था।चूहडमल ने चाय बनाना किसी अंग्रेज से सीखा था।वे खौलते तसले में दूध वाली चाय तो बनाते ही थे।साथ ही ’लिपटन ग्रीन लेबल’ जो उस वक्त अभिजात्य की चाय होती थी, का अर्क निकाल उसमें नींबू निचोड और लवणभास्कर डाल एक अलग ही किस्म की बेहद उर्जावान चाय भी बनाते थे।इसे वे ‘भास्कर चाय’ कहते थे।

 

दूसरे विश्व युद्ध में चाय के ऐसे बौद्धिक द्वीप बनारस में खूब सक्रिय रहे है।मेरे तो खून में यह अडीबाजी है।पिता जी ऐसी ही एक अडी में पले और बढ़े।वे दारानगर के रामधन सरदार के चाय की दुकान पर ज़ोर ज़ोर से अख़बार पढ खबरे सुनाते थे।बनारस के दारानगर त्रिराहे पर रामधन सरदार की दूध,चाय,रबड़ी,मलाई की दुकान थी।उनके सामने जीउत सरदार की मिठाई की दुकान थी।दारानगर मुहल्ले का नाम औरंगजेब के भाई दाराशिकोह के नाम पर पड़ा था।यहीं रहकर उसने संस्कृत की पढ़ाई की थी ।यह दौर १९४१ के दूसरे विश्व युद्ध का था।रामधन सरदार की दुकान पर ही अखबार आता था।वहॉं जमा ज़्यादातर लोग युद्ध की खबरें जानने की आतुरता में होते।अख़बार एक होता और खबर जानने वाले अनेक थे।इसलिए सुबह सुबह पिताश्री की ड्यूटी अख़बार बॉंच कर सुनाने की थी।वे एक बेंच पर खड़े होकर बुलंद आवाज़ में हिरोशिमा नागासाकी के बर्बाद होने की खबरे बॉंचते।एकदम रामधन सरदार की दुकान के एंकर के लहजे में ।अख़बार वाचन के बदले में रामधन सरदार पिता जी को एक गिलास दूध और जिऊत साव एक दोना बूंदिया देते।जिससे पिता जी की पेट की भूख मिटती और श्रोता समाज की खबरो की भूख।पिताजी की माली हालत ठीक नहीं थी।रामधन सरदार के दूध से उनका शरीर पुष्ट हो रहा था और दूसरी तरफ़ पराड़कर जी तथा पंडित कमलापति त्रिपाठी का संपादकीय बॉंच उनमें भाषा के संस्कार बन रहे थे।अब आप समझ सकते हैं कि मामूली सी दिखने वाली ये चाय की दुकानें हमारे सार्वजनिक जीवन में कितनी उपयोगी है।

 

चूहडमल की चाय की दुकान साहित्य संगीत और समाज का तिराहा थी।यहॉं नियमित आने वालों में राजन,साजन मिश्र,उनके चाचा पं गोपाल मिश्र,शारदा सहाय और तबला सम्राट गुदई महराज भी थे।चूहडमल की दुकान तो गुदई महराज के ड्राईंग रूम जैसी थी।अपनी गली से निकलकर, कमर में लुंगी बॉंधे, कंधे पर गमछा रखे, हाथ में कपड़े का झोला पकडे ,ओंठ के दोनों कोरों से पान की रिसती हुई पीक के साथ वे अक्सर यहॉं बैठे मिलते थे।यह रोजमर्रा का दृश्य था।अगर गुदई महराज आपको पायजामा पहने मिलें तो यह मान लिजिए कि वे या तो एयरपोर्ट जा रहे है या कहीं बाहर से लौट रहे है।वरना वे बनारस में हमेशा लुंगी और गमछे की राष्ट्रीय पोशाक में ही रहते थे।उनके तबले की गूंज से मुहल्ला गुंजायमान होता था।फिल्म ‘मेरी सूरत तेरी आँखें ‘ के गीत ‘नाचे मन मोरा मगन तिक ता धिक् धिक्’ में तबले पर उनकी ही उंगलियोँ का जादू था।फ़िल्म शोले के उस दृश्य में जिसमें गब्बर सिंह के डाकू बसंती का पीछा करते हैं और वह अपने ताँगे से भाग रही होती है, उसकी पृष्ठभूमि से आती तबले की आवाज़ गुदई महराज की उँगलियों का ही कमाल थी।

 

बनारस में पप्पू की चाय की दुकान पर तो फ़िल्म भी बन चुकी है।इस अडी की तवारीख़ में बड़े बड़े राजनेता, साहित्यकार ,पत्रकार और कलाकार दर्ज रहे है। बवासीर की दवा से लेकर फ़्रांस की क्रांति तक,तुलसीदास की भक्ति से लेकर नासा के अभियान तक,पाईथागोरस से लेकर चीनी वाईरस तक, लोहिया से लेकर हाब्स,लॉक,

रूसों और सुदामा से वास्कोडिगामा तक यहॉ घंटो बिना बात के बहस चलती है।आलम यह है कि दक्षिण अफ़्रीका में अगर कोई कवि मर जाय तो इस चाय की दुकान पर उसकी भी शोक सभा हो जाती है।

 

पप्पू यानी विश्वनाथ सिंह के बाबा आज़ादी के बाद सोनभद्र से यहॉं आए।उनके पूर्वज फ़ौज में थे।अफ़सर मेस में बनने वाली चाय के अंग्रेज़ी तरीक़े का उन्होंने बनारसीकरण कर लोगों में अपनी चाय की लत लगा दी।अब तो पप्पू के बेटे मनोज भी इस परम्परा को चलाने के लिए तैयार हैं।इनके चाय बनाने का तरीका भी एकदम अलग है ।उनकी चाय का पानी घंटो पकता है।उस पानी से कपड़े वाली छननी में चाय रख हर गिलास में उसका अर्क बूँद बूँद टपकाते हैं।फिर अलग से दूध चीनी मिलाई जाती है।एक ख़ास तरीक़े से पप्पू का चम्मच हिलाना उनके चाय बनाने के कर्मकाण्ड का हिस्सा है।पप्पू की चाय पीने से ज़्यादा मज़ा उसे बनाते हुए देखने में आता है।

 

आपने चाय की दुकानों पर टोस्ट, समोसा नमकीन मिलते देखा होगा। मगर यह दुनिया की इकलौती चाय की दुकान है, जहॉं चाय के साथ भॉंग भी मिलती हैं।१९६७ के हिन्दी आन्दोलन से लेकर जेपी आन्दोलन तक का केन्द्र यह चाय की दुकान रही। फ़िल्म वाटर के विरोध का आन्दोलन तो इसी दुकान से निकला। मौलिक,क्रान्तिकारी,रेडिकल और दायॉं-बॉंया, सब तरह के लोगों का यहॉं जमावड़ा रहता है।यहॉं असल भारत की झलक मिलती है।पप्पू की अडी पर जनता की नब्ज समझने समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज, राज नारायण ,भाजपा नेता राजनाथ सिंह, कलराज मिश्रा ,मोहन प्रकाश,अनिल शास्त्री, सुनील शास्त्री और रुस्तम सैटिन का आना जाना लगा रहता था।यहॉं अड़ी लगाने वालों में साहित्यकारों की भी एक नामचीन विरासत थी जिसमें डॉ नामवर सिंह , केदारनाथ सिंह, पं चन्द्रशेखर मिश्र,काशीनाथ सिंह, कवि धूमिल, रूद्र काशिकेय, राहगीर जैसे ढेर सारे कवि थे।पप्पू की अड़ी छात्र नेताओं का भी अखाड़ा थी। इनमें डी मजूमदार, मोहन प्रकाश, चंचल, मार्कण्डेय सिंह, रामबचन पांडे, लालमुनी चौबे जैसे नेता शामिल थे। जिन्होंने बाद में देश की राजनीति में अपनी भूमिका निभाई।

 

पप्पू की चाय की इस दुकान ने बनारस में बौद्धिक विमर्श के नए आयाम स्थापित किए।सिर्फ़ बनारस ही नहीं समूची दुनिया में आपको ऐसे चायखाने मिलेगें जिनकी दीवारों पर सृजन की बेजोड़ विरासत टंगी है।मैं पेरिस के उस चायखाने में भी गया हूँ जहॉं अस्तित्ववादी चिन्तक ज़्याँ पाल सार्त्र बैठते थे।पेरिस के Cafe de Flore एवं Les Deux Magots में ज्यां पाल सार्त्र और उनके रचना संसार की साथी सिमोन द बोउआर चाय की चुस्कियों के साथ साहित्य रचते रहे।उनकी हस्तलिपि आज भी इस चाय खाने में  फ़्रेम कर टॉंगी गयी है।ये दोनो ही कैफे उस दौर में लेखकों के राइटिंग रूम के तौर पर मशहूर थे।इसी तरह पेरिस का मशहूर चायखाना La Rotonde मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो के चिंतन की जमीन थी ।

 

चाय एक जुनून है। इस जूनून से जुड़ी प्रसिद्ध शख्सियतों का सिलसिला दुनिया भर में पाया जाता है।पाकिस्तान में लाहौर का ‘पाक टी हाउस’ बौद्धिक विमर्श का एक ऐसा ही मशहूर अड्‍डा रहा है।1940 में अपनी स्थापना के वक्त से ही यह अविभाजित भारत की कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी सुप्रसिद्ध हस्तियों का पसंदीदा ठिकाना रहा है। 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान की प्रगतिशील सोच ने इसी चायखाने को विमर्श का केंद्र बनाया।इस चायखाने की दरो दीवार पर फैज़ अहमद फैज़, इब्न ए इंशा, अहमद फराज़, साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम, मजरूह सुल्तानपुरी, फिराक गोरखपुरी और राजेंद्र सिंह बेदी से लेकर हिंदी कथा साहित्य के सम्राट मुंशी प्रेमचंद भी शामिल रहे हैं।२००३ में प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी और राष्ट्रपति मुशर्रफ की शिखर वार्ता होनी थी।अटल जी की टोली में मैं भी पाकिस्तान गया।बातचीत काश्मीर पर अटकी थी।मै इस्लामाबाद से लाहौर चला गया मुल्क को समझने के लिए ।उन दिनों पाकिस्तान के मशहूर अख़बार ‘जंग’ के संपादक बाराबंकी के रहने वाले एक किदवई साहब थे।उन्होंने मुझे लाहौर में देखने वाली चीजों में उस चायखाने का भी ज़िक्र किया।मैंने लाहौर का सिर्फ़ अनारकली बाज़ार ही सुन रखा था।इतिहास से बाबास्ता होने के लिए मैं इस चाय खाने में गया भी।

 

आप कुछ भी कहे चाय से क्रांति का रिश्ता रहा है।चाय के सवाल पर कभी अमेरिका में क्रांति हो गई थी।अंग्रेजी हुकूमत की तानाशाही के विरोध में 16 दिसंबर, 1773 को अमेरिकी क्रांतिकारियों के एक समूह ने बॉस्टन के बंदरगाह में घुसकर चाय की पेटियों को समंदर में फेंक दिया। ब्रिटेन की संसद के ‘टी एक्ट’ के विरोध में अमेरिकियों ने उस अंग्रेजी चाय को खारे पानी में मिला दिया।उस रोज कुल 342 चाय की पेटियां समंदर में बहाई गईं।इस घटना को इतिहास में ‘बॉस्टन टी पार्टी’ के नाम से जाना गया।चाय के नाम हुई क्रांति की इस शुरूआत ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं।महज तीन सालों के भीतर अमेरिका आज़ाद हो गया। ४ जुलाई १७७६ की सुबह अमेरिकी आजादी की सुबह थी जो करीब तीन साल पहले बॉस्टन के समंदर में घुली चाय से पैदा हुई संघर्ष का नतीजा थी।

 

चाय अपने आप में एक इतिहास है।पाँच हज़ार साल के चाय के इस इतिहास में एक रोज़ चीन के शासक शान नुंग के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में कुछ सूखी पत्तियों आकर गिर गयीं।जब सम्राट नें उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद पंसद आया और तभी से यह चीन का ख़ास पेय बन गया। भारत में चाय बाग़ान की शुरुआत साल १८३४ के आस पास अंग्रेजों ने की, जहॉं से चलते चलते अब यह तमाम रूपों में नमूदार हो चुकी है। इनमें हर्बल टी, स्ट्रेस रीलिविंग टी, रिजुविनेटिंग टी, स्लिमिंग टी जैसे न जाने कितने रूप शामिल हैं। भारत में सबसे महँगी व्हाइट टी पच्चहतर हज़ार किलो तक मिलती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया की सबसे मंहगी चाय चीन की ‘हॉंग पाओ‘ टी है।

 

लौटते हैं बनारस पर क्योंकि बनारस में चाय महज एक उत्पाद नही बल्कि जीवनशैली है।बनारस में चाय के लिए कुल्हड का चलन व्यापक है। पर न जाने क्यों चाय की अड़ियों पर कॉंच के कटिंग ग्लास का ही इस्तेमाल होता हैं। शायद उसमें चाय लेकर देर तक गप्प लड़ाने में सुविधा होती है! चाहे कबीरचौरा पर चूहडमल की दुकान हो,या लंका पर टंडन जी की, अस्सी की पप्पू की चाय की अडी हो या चौक का लक्ष्मी चायवाला।या फिर लहुराबीर की मोती की कैंटीन।हर जगह चाय के ग्लास में ही क्रान्ति का तूफ़ान पैदा होता है।

 

बनारसी कुल्हड़ यहीं पिछड़ जाता है। कुल्हड़ के सवाल पर कालजयी साहित्यकार  विद्यानिवास मिश्र का कहा अद्भुत हैं। वे बनारस के बादशाहबाग में रहते थे।उनके घर जाइए तो गर्मियों में आवंले का मुरब्बा और सर्दियों में चाय मिलती थी। पंडित जी पूछते “बालक ! चाय पियोगे ?”अगर आपने हॉं कहा तो उनका अगला सवाल होता “चरित्रवान चाय पियोगे या चरित्रहीन ?” आने वाला अचकचा जाता।फिर मोटे चश्मे से  झॉंकती उनकी आँखें घूर कर खुद बतातीं “बेटा ! चीनी-मिट्टी के कप में जो चाय आती है वो चरित्रहीन है।हर बार धुल-पुछकर नए रूप में, नए साज-सिंगार में आकर पीने वाले के अधरो को चूमती है ! पर जो चाय कुल्हड़ में पी जाती है वह तो पंचतत्वों से स्वयं को तपाकर तैयार होती है और किसी अधर से एक बार जब छू जाए तो अपना नश्वर शरीर त्याग देती है।फिर उसी अग्नि में तपकर नया जन्म लेती है, नए प्रेमी के अधर छूने के लिए ।“ अब तो आप कुल्हड़ की चाय की आध्यात्मिकता को समझ गए होंगे।

 

चाय अपने आप में अध्यात्मिकता की एक सीढ़ी है जो वह दृष्टि पैदा करती है जिससे सभी समस्याओं का हल चुटकी में होता है।वह दुनिया के किसी भी हिस्से की समस्या सुलझा सकता है।वह चाय का लुत्फ लेते हुए इजरायल और फिलिस्तीन के बीच सुलह भी करवा सकता है और चुनाव हारने के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का दोबारा राष्ट्रपति भी बनवा सकता है।समुद्र मंथन के समय दो ही विकल्प थे, अमृत और विष। अगर तीसरा विकल्प चाय का होता तो बनारसी अवश्य ही अमृत छोड़कर चाय की ओर लपकते।

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