मिर्ज़ा ग़ालिब गए ही कहां… वो तो हर ज़ेहन और ज़ुबां पर हैं
ये ना थी हमारी किस्मत की विसाल-ए-यार होता/ अगर और जीते रहते यही इंतजार होता।’हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले/बहुत निकले मेरे अरमां, फिर भी कम निकले।”न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता/डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता…’कितना मुश्किल है ग़ालिब पर बात करने के लिए कोई ऐसा शेर चुनना, जो अब तक ना सुना गया हो, न कहा गया हो, न चुना गया हो। एक सदी पहले रुखसत हो चुके इस शायर के कलाम इस कदर लोगों के ज़ेहन और ज़ुबां पर चढ़े हैं कि कुछ भी अनछुआ, अनसुना, अनकहा सा नहीं लगता। फिर रंगमंच से लेकर सिनेमा और टेलीविजन तक उनकी जिंदगी के ताने-बाने को इतनी बार बुना गया है कि उनकी गैरमौजूदगी भी कहीं न कहीं उनके होने की वकालत करती नजर आती है।
भारत भूषण बने थे ग़ालिब
हिंदी सिनेमा में ग़ालिब पर पहली फिल्म बनी थी मिर्जा ग़ालिब के ही नाम से सन् 1954 में। इसमें भारत भूषण ने ग़ालिब का रोल निभाया था। फिल्म का संगीत दिया था गुलाम मोहम्मद ने। फिल्म को लोगों ने काफी पसंद भी किया। भारत भूषण भी ग़ालिब के रोल में अच्छे लगे। पाकिस्तान में भी उन्हें वही इज्जत मिली, जो हिंदुस्तान में मिलती रही है।
also read : DJ की आवाज से परेशान हुए उद्धव, सील हुआ रिजॉर्ट
पाकिस्तान में भी बनी थी ग़ालिब पर फिल्म सन् 1961 में पाकिस्तान में भी मिर्जा ग़ालिब पर इसी नाम से एक फिल्म बनी। इस फिल्म को एम.एम. बिल्लू मेहरा ने बनाया था। इस फिल्म में पाकिस्तानी फिल्म सुपरस्टार सुधीर ने ग़ालिब का रोल निभाया था और नूरजहां उनकी प्रेमिका बनी थीं। ये फिल्म 24 नवंबर 1961 को रिलीज हुई थी। बॉक्स ऑफिस पर इसे औसत सफलता भी मिली थी।
गुलजार का ग़ालिब
गुलजार ने भी मिर्जा ग़ालिब पर सन् 1988 में एक सीरियल बनाया था। ये शो डीडी नेशनल पर आता था और काफी पसंद भी किया गया। नसीरुद्दीन शाह ने इसमें ग़ालिब का रोल निभाया था। इस शो के लिए ग़जलें जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने गाई थीं। टीवी शो और सिनेमा ही नहीं ग़ालिब की जिंदगी को न जाने कितनी बार रंगमंच पर सजाया गया। पारसी थियेटर से शुरू करते हुए हिंदुस्तानी थियेटर के दिनों तक मेहदी साहब के लिखे नाटकों में न जाने कितनी बार मोहम्मद अयूब ने ग़ालिब का रोल निभाया।
शायर से रूबरू होने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं
वो ग़ालिब के पर्याय बन गए थे कि लोग उन्हें उनके नाम की बजाय ग़ालिब कहकर ही बुलाने लगे थे। यही काम बाद में टॉम अल्टर ने किया। टॉम ने गॉलिब नाम के नाटक में केंद्रीय भूमिका निभाई। ये नाटक बरसों हिट रहाइसके बाद काफी मशहूर हुआ सुरेंद्र वर्मा का लिखा प्ले कैद-ए-हयात। ये प्ले मिर्जा ग़ालिब की निजी जिंदगी पर आधारित था। इसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने परफॉर्म किया था। साल दर साल इसे कई रंगकर्मियों ने निर्देशित किया। दानिश इकबाल का नाटक मैं गया वक्त नहीं हूं और सईद आलम का गालिब के खुतूत जैसे नाटक आज भी दुनिया भर में परफॉर्म किए जा रहे हैं और लोग अपने अज़ीमोकरीम इस शायर से रूबरू होने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
(साभार-न्यूज18)