प्रसंगवश : वाराणसी कचहरी में हिंदी कविता की चुस्की ‘कचहरी न जाना..’

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आशीष बागची

कभी-कभी कोई घटना या दिन आपके लिए यादगार बन जाता है जो, काफी दिनों तक आपकी जेहन में बना रहता है। ऐसा ही एक वाकया विगत 8 फरवरी, 2018 को वाराणसी में हम तीन तिलंगों के साथ हुआ। ये तीन तिलंगे हैं-मैं खुद यानी आशीष बागची, मूर्धन्‍य पत्रकार और विश्‍वनाथ गली स्थित मां विशालाक्षी देवी मंदिर के महंत राजनाथ तिवारी व वरिष्‍ठ पत्रकार तथा राघव राम वर्मा बालिका इंटर कालेज के प्रबंधक विनोद बागी।

25 साल पुराना मामला

25 साल पुराने एक मामले में हम तीनों के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी हुआ था। अब क्‍या कहा जाये कि हम लोगों के घरों में कभी कचहरी से सम्‍मन आया ही नहीं और सीधे गिरफ्तारी का परवाना लिये दारोगा एक दिन आ धमका। हालांकि, मैं उस समय लखनऊ में था, इसलिए दारोगा पहले बागी के शिवपुर स्थित आवास पर गया और उन्‍हें थाने चलने को कहा। बागी के पूछने पर पता चला कि आज से पचीस साल पहले वाराणसी के चेतगंज थाने में एक मुकदमा लिखाया गया था, उसमें वे और राजनाथ गवाह थे और मैं यानी आशीष बागची वादी थे। हम सभी अदालत में हाजिरी नहीं दे रहे थे। इसलिए अब एनबीडब्‍लू जारी किया गया था।

हमें फौरन अपनी जमानत करानी थी

दारोगा ने ताकीद की कि हमें फौरन से पेश्‍तर से भी पहले अपनी जमानत करानी होगी। खैर, मरता क्‍या न करता। तीनों पचीस साल पुराने इस मामले में जमानत कराने कचहरी आनंद कुमार पाठक की चौकी पर जमा हुए। दरअसल हुआ यह था कि जिस घटना की वजह से हमारे खिलाफ एनबीडब्‍लू जारी हुआ था, उसमें एक विधायक जी से दफ्तर में कामकाज के दौरान वाद-विवाद हो गया था जो काफी लंबा खिंच गया था। मामला एफआईआर तक जा पहुंचा था। उन दिनों हम सभी दैनिक जागरण, बनारस से जुड़े थे और मैं चूंकि मुख्‍य संवाददाता था लिहाजा एफआईआर मैंने ही लिखवायी थी जिसमें राजनाथ, बागी और स्‍व. शंभूनाथ सिंह गवाह थे। खैर, शंभू तो ईश्‍वर के पास चले गये हैं। बचे, हम तीन लोग जमानत करवाने पीठासीन अधिकारी एसीजेएम 9 रवि प्रकाश साहू की अदालत में पहुंचे।

‘देखने’ व ‘विदा’ करानेवालों की भीड़

कचहरी में हम पुरनियों को ‘देखने’ व ‘विदा’ कराने के लिए भी अच्‍छी खासी भीड़ लगी थी। केंद्रीय ब्राह्मण महासभा के अध्‍यक्ष  सतीश मिश्र, बिजली कर्मचारी नेता देवव्रत शर्मा हमें सी-आफ करने पहुंचे थे। काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्‍यक्ष योगेश गुप्‍त पप्‍पू हैदराबाद से, भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के वरिष्‍ठ वैज्ञानिक तुहिन मिश्र ट्राम्‍वे मुंबई से हमारी हौसला आफजाई के लिए पहुंचे थे, ताकि जेल हो जाने की स्थिति में अंगूर, सेव, केला पहुंचा सकें। अदालत के अंदर वरिष्‍ठ पत्रकार रमेश श्रीवास्‍तव व काशी पत्रकार संघ के कोषाध्‍यक्ष दीनबंधु राय भी नमकीन-दाना लेकर पहुंचे थे, हमारा बल बढ़ाने के लिए। इसके अलावा असंख्‍य और लोग थे।

एक दर्जन वकील पहुंचे थे हमारे लिए

एक दर्जन वकील हमें घेरे थे ताकि हमारा मामला कहीं से कमजोर न पड़े। हमारी तरफ से वैसे भी एडवोकेट आनंद कुमार पाठक, एडवोकेट सी बी गिरी, एडवोकेट ए के चौरसिया तो कागजात तैयार कर ही रहे थे, दूसरे अन्‍य एडवोकेट भी मौजूद थे, जो लगातार राय दे रहे थे।

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दूसरे पक्ष से एडवोकेट व कवि हृदय ऋषि देव मिश्र थे। वे भी मदद कर रहे थे।

जब कविता पढ़ी गयी

जैसे ही हमारा मामला एडवोकेट आनंद कुमार पाठक ने प्रोड्यूस किया, पीठासीन अधिकारी महोदय ने उसे हाथोंहाथ ले लिया। मुझसे पूछा-‘काफी देर कर दी, क्‍या आप लोगों के दिमाग में भी चल रहा था-कचहरी न जाना, कचहरी न जाना।’

इसे जैसे ऋषि देव ने लपक लिया, छूटते ही कैलाश गौतम की इसी कविता की ये दो लाइनें उन्‍होंने और सुना दीं। पारिवारिक वाद सहित तमाम मामले उस समय न्‍यायालय में चल रहे थे। उस समय काफी गहमागहमी थी। कुछ तलाक के मामलों में गर्मी भी रह-रह कर आ रही थी। मगर, थोड़े समय के लिए माहौल बदल जरूर गया। फिर, जमानत की प्रक्रिया हुई। पीठासीन अधिकारी महोदय ने तमाम लोगों की ड्यूटी लगा दी थी। इस तरह तीनों लोग अदालत से बाहर आ गये पर कैलाश गौतम की वह कविता जरूर लोगों की जेहन में गूंज रही थी। सोचा, आप मित्रों व फेसबुक पर पीछा करनेवाले सुधी जनों के लिए उस कविता को सबके सामने पूरा का पूरा रख दूं, ताकि विद्वान पीठासीन अधिकारी का वह हंसमुख चेहरा, उनका कविता बोध लंबे समय तक लोगों की यादों में बना रहे।

कचहरी में भी ऐसे काव्‍यप्रेमी हैं

ऐसा होना भी चाहिये। कचहरी में भी ऐसे काव्‍यप्रेमी हैं जिनमें मानवीय संवेदनाएं भरी हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि कल्पना कभी-कभी भाव से भी अपनी शक्ति को सशक्त बनाकर स्वतंत्र रूप में प्रदर्शन करने लगती है। अब सोचता हूं कि शायद उस दिन हम तीनों के साथ ऐसा ही हुआ होगा।

कैलाश गौतम लिखित वह पूरी कविता इस प्रकार है-

‘भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना

‘कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है

‘कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

‘कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं

‘कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

‘कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे

‘लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है

‘कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुंह घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

‘मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है

‘मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया
वकीलों ने हाकिम से सटकर दिखाया

‘धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमे का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा

‘कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हें लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना

‘कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फंसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||’’

चित्र परिचय दाहिने से-काले कोट में एडवोकेट आनंद कुमार त्रिपाठी, नीले जैकेट और लाल शर्ट में राजनाथ तिवारी, गेरुआ स्‍वेटर में विनोद बागी, बादामी जैकेट में आशीष बागची व नीले हाफ स्‍वेटर में सतीश मिश्र।

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