बहराइच के घने जंगलों में मिली रियल लाइफ ‘मोगली’ वन दुर्गा
बहराइच के घने जंगलों में लगभग 8 साल की एक लड़की बिना कपड़ों के लहुलुहान हालत में पुलिस गश्ती दल को मिली। वह बंदरों से घिरी हुई थी। जब पुलिस ने उस बच्ची को बचाना चाहा तो उसको बंदरों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस प्रतिरोध में बच्ची भी बंदरों के साथ थी। किसी तरह से बच्ची को पुलिस दल ने बचाया। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया। शुरू में बच्ची नर्स व डॉक्टरों के पास आने पर बंदरों की तरह गुर्राती थी। कपड़े नहीं पहनती थी। घुटनों के बल चलती थी।
बच्ची का वास्तविक नाम अलीजा है
अब बच्ची अपने पैरों पर खड़ी होने लगी है। स्वंय कपड़े पहनना सीख गयी है। बहराइच के जिलाधिकारी अजय दीप सिंह ने उसका नाम ” वन दुर्गा ” रखा है। वन इसलिए कि वह जंगल में मिली। दुर्गा इसलिए कि वह नवरात्रि के आखिरी दिनों में मिली। बच्ची शारीरिक रुप से फिट , पर मानसिक रुप से अनफिट है। बहराइच में चूंकि बाल मनोचिकित्सक नहीं हैं। इसलिए बच्ची को बहराइच से लखनऊ शिफ्ट कर दिया गया है। पता चला है कि बच्ची का वास्तविक नाम अलीजा है।
वह जौनपुर के थाना बादशाहपुर के कमालपुर के रमजान मियां की पुत्री है, जो बचपन में गुम हो गयी थी। बच्ची के नाना और पिता उससे मिलने बहराइच आए थे। उनके पास बच्ची के बचपन का एक फोटो भी है। जब उन्हें पता चला कि बच्ची को लखनऊ भेज दिया गया है तो वे लखनऊ के लिए रवाना हो गये। वे न्यूज चैनलों पर जारी बच्ची की तस्वीर देख कर आये थे।
एक बच्चा खतरनाक भेड़ियों के झुण्ड में मिला था
इस तरह के बच्चे जो जंगलों से मिलते हैं , उन्हें फेरल चिल्ड्रेन (जंगली बच्चे ) कहा जाता है। जो बच्चा जिस जानवर के साथ मिला , उसे उस बच्चे के नाम पर हीं पुकारा जाने लगा। जैसे – भालू बालक , भेड़िया बालक , तेंदुआ बालक , कुत्ता बालक , बंदर बालक आदि। ये बच्चे सालों साल जानवरों के बीच सुरक्षित रहे। जानवरों के बीच वे पले बढ़े। ऐसे हीं एक बच्चा खतरनाक भेड़ियों के झुण्ड में मिला था । बाद के दिनों में इस घटना पर एक फिल्म भी बनी। फिल्म का नाम था – No one’s child . शिकारियों के एक दल ने उस बच्चे को बचाया था। भारत में जन्में ब्रिटिश कवि , लेखक व नोबल पुरुष्कार विजेता रुडयार्ड किपलिंग। उनकी लिखी The jungle book किताब कथा का हीरो मोगली भी मध्य प्रदेश के सिवनी जिले का बालक था , जो बचपन में अपने मां बाप से बिछुड़ गया था।
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वह भेड़ियों के द्वारा पाला जाता है। इस कहानी पर इसी नाम से 19 एमिनेटेड फिल्में बन चुकी हैं। एक टी वी धारावाहिक भी बन चुका है , जिसका शीर्षक गीत गुलजार ने लिखा था – जंगल जंगल पता चला है, चड्ढी पहनकर फूल खिला है। The jungle book में किपलिंग साहब ने वास्तविक कहानी पर कल्पना का कुछ तड़का लगाया है। लेखिका मैरियाना चैम्प खुद इस तरह के यथार्थ को भुगती हुई हैं। वे जब चार साल की थीं तब उनका कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया। अपहरण कर्ताओं ने उसे जंगल में छोड़ दिया। वहां बंदरों ने उसे पाला। इस मंकी गर्ल की खोज बीन हुई।
लालन पालन खतरनाक भेड़िये करते हैं
मिलने पर घर वाले” मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाय , पलक बंद कर लूं कहीं छलक हीं न जाय” कि तर्ज पर बहुत बहुत खुश हुए। मैरियाना चैम्प के साथ प्लस प्वाइंट यह था कि उसे बोलना आता था। चार साल का बच्चा पूरी तरह से बात कर सकता है। घर वापसी के बाद मैरियाना की विधिवत पढ़ाई हुई। बड़ी होकर मैरियाना चैम्प ने अपनी इस आप बीती को जगबीती बना दिया। उसने 2014 में एक किताब लिखा – The girl with no name . वैसे हीं वर्ष 2014 में हीं एक फिल्म आई थी – No one’s child . इस फिल्म में कहानी 1988 की है , जिसमें एक बच्चे का लालन पालन खतरनाक भेड़िये करते हैं। शिकारियों के एक दल द्वारा इस बच्चे का उद्धार किया गया।
उसे खाने के लिए कच्चा मांस दिया
ऐसी हीं एक कहानी है leopard boy की । यह बच्चा उत्तराखंड का था , जिसे तेंदुआ उस समय उठाकर ले गया था , जब उसकी मां खेतों में काम कर रही थी। कहते हैं कि मादा तेंदुआ ने यह काम बदले के तहत किया था। लोगों ने उसके शावक को मार दिया था। लेकिन मादा तेंदुआ ने इस बालक को जान से नहीं मारा , बल्कि अपने साथ रखा। उसे खाने के लिए कच्चा मांस दिया। बाद में जब शिकारियों ने इस मादा तेंदुआ का काम तमाम किया तब इस बच्चे का उद्धार सम्भव हुआ।
दो लड़कियों का उद्धार भेड़ियों के मांद से किया था
यह बच्चा जब गायब हुआ था तब घुटनों के बल चलता था। तीन साल बाद जब यह मिला तब भी घुटनों के बल हीं चलता था। वह तेंदुआ के साथ रह के चौपाया हीं हो गया था। उसकी घ्राण शक्ति तीब्र हो गयी थी। उसे कच्चा मांस बहुत पसंद था। बात 1920 की है ।अमृत लाल सिंह जो ईसाई धर्म अपना कर रेवरंड जोसेफ हो गये थे ने दो लड़कियों का उद्धार भेड़ियों के मांद से किया था। जोसेफ ने इनका नाम कमला व अमला रखा। कमला आठ साल की व अमला डेढ़ साल की थी। बंगाल के मिदिना पुर में पाईं गयीं ये बच्चियां गुस्से में बहुत भयंकर हो जाती थीं। एक साल बाद अमला की किडनी की बिमारी से मौत हो गयी। अमला की मौत पर कमला फूट फूट कर रोयी थी। आखिर वह थी तो इंसान। तिस पर दया माया वाली बेबी गर्ल। कमला बाद के दिनों में दो पैरों पर चलना सीख गयी थी। कुछ शब्द बोलना भी सीख गयी थी। वह कच्चे के बदले पका मांस खाने लगी थी।
बात 1972 की है। उत्तर प्रदेश के सुल्तान पुर का एक गांव। गांव का नाम था नारायणपुर। इस गांव के किसान नरसिंह यादव जंगल के बीच से गुजर रहे थे। उन्होंने एक आदमी का बच्चा भेड़ियों के बीच भागते हुए देखा। नरसिंह यादव ने उस बच्चे को पकड़ा। वह कुत्ते की माफिक गुर्रा रहा था। नरसिंह उस बच्चे को घर लाये। नाम रखा श्यामदेव। बच्चे को कच्चा मांस बहुत प्रिय था। बाद में उसे मदर टेरेसा के चैरिटी होम ” प्रेम निवास ” भेज दिया गया। इसी प्रकार रोचम पिंगिंग कम्बोडिया की थी।
बच्चे असमय हीं काल कवलित हो जाते हैं..
वह शिकारियों को जंगल में मिली थी। वह हाथ पैरों के सहारे चल रही थी। गांव वालों ने उसे पकड़ा। उसे गांव का माहौल रास नहीं आया। कई बार उसने जंगल में भागने की कोशिश की, पर हर बार वह पकड़ी गयी। फेरल बच्चों की जिंदगी कम होती है। कई अपवादों को छोड़कर ये बच्चे असमय हीं काल कवलित हो जाते हैं.. इस तरह के बच्चे किसी से भावनात्मक सम्बंध कायम नहीं रख पाते। उनकी जंगल की यादें ताजिंदगी पीछा नहीं छोड़तीं। ये बच्चे भूख से व्याकुल हो नगर की तरफ कभी रुख तो करते हैं, पर नगर की सभ्यता उन्हें अवसाद ग्रसित कर देती है। ये फिर अपनी उसी जिंदगी में चले जाना चाहते हैं , पर नगर के लोग उन्हें जाने नहीं देते। ऐसा बहुतों के साथ हो चुका है।
रात सुबह की खोज में ,कितने दीप जलाकर निकले थे,कितने तारे लौट के आए हैंकाले बीरानों से .(फेसबुक वाल से)
एस डी ओझाा
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