Holi: जानें किस शहर में खेली जाती है जूतों की होली और क्यों ?

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Holi: भारत को विभिन्नताओं का देश कहा गया है. यहां पर पग-पग पर संस्कृति और परंपराएं बदल जाती है और अगर बात हो अगर उत्तर प्रदेश की तो, इसे परंपराओं और संस्कृति का गढ़ ही माना जाता है. ऐसे में जब मौसम रंगों के त्यौहार होली का हो तो उत्तर प्रदेश परंपराओं के रंग में चारों तरफ रंगीन नजर आता है. बता दें कि प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में अलग – अलग प्रकार से होली खेले जाने की परंपरा है, फिर वो पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश. बुंदेलखंड हो या अवध या फिर बृज मंडल हर जगह अलग प्रकार से होली खेली जाती है. सभी प्रकार की होली का अपना अलग ही महत्व माना गया है.

प्रदेश में पुरानी परंपराएं आज भी होली पर्व की तरह जीवित हैं, जैसे एक धागे में अलग-अलग मोतियों को पिरोया जाता है. जब इन मोतियों की माला बनाई जाती है, तो वह किसी व्यक्ति को अधिक सुंदर बना देती है. वैसे ही हर साल होली पर अलग-अलग स्थानों पर मनाई जाने वाली होली, पूर्वी उत्तर प्रदेश को एक सूत्र में पिरोकर रखती है. वहीं उत्तर प्रदेश में एक ऐसी भी जगह है जहां पर रंगों के बजाय जूतों की होली खेली जाती है. यह सुनने में बहुत अजीब है लेकिन यह सच है तो आइए जानते हैं कि, यूपी का कौन सा वह शहर है जहां जूतों की होली खेले जाने की परंपरा है….

यहां खेली जाती है जूतों की होली

वह शहर कोई और नहीं बल्कि यूपी का जिला शाहजहांपुर है जहां जूतामार होली खेले जाने की परंपरा है. बताते है कि, यह परंपरा 18वीं सदी से चली आ रही है. यह परंपरा शाहजहांपुर में नवाब का जुलूस निकालकर होली मनाने की प्रथा हुई थी जो समय के साथ साल 1947 के पश्चात यह जूता मार होली में बदल गयी. जूतामार होली के साथ – साथ शाहजहांपुर में लाल- साहब का जुलूस भी निकाला जाता है.

कैसे शुरू हुई जूतामार होली की परंपरा

शाहजहांपुर शहर को नवाब बहादुर खान ने बसाया था. इसको लेकर विशेष कहते हैं कि, वे इस वंश के अंतिम नवाब अब्दुल्ला खान थे जो आपसी झगड़े की वजह से फर्रूखाबाद चले गए थे. बताया जाता है कि, वे दोनों ही धर्म के लिए काफी लोकप्रिय हुआ करते थे. साल 1729 में वे वापस शाहजहांपुर लौटकर आए थे, उस समय उनकी आयु 21 वर्ष थी. उनकी वापसी के बाद दोनों समुदायों के लोग महल के बाहर उनसे मिलने के लिए खड़े हो गए. जब नवाब बाहर आए, लोगों ने होली खेली. तब से ही शाहजहांपुर में होली पर नवाब को ऊंट पर बिठाकर शहर घुमाए जाने की परंपरा की शुरूआत हुई है.

साल 1858 में बरेली के सैन्य शासक खान बहादुर खान के सैन्य कमांडर मरदान अली खान ने हिंदुओं पर हमला करके शहर में सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दिया. हमले में अंग्रेज भी शामिल थे. अंग्रेजों के प्रति लोगों का गुस्सा इतना था कि देश की आजादी के बाद लोगों ने नवाब साहब का नाम बदलकर “लाट साहब” कर दिया और जुलूस ऊंट की जगह भैंसा गाड़ी निकाली जाने लगी. लाट साहब को जूता मारने की परंपरा तभी से शुरू हुई जो अंग्रेजों के प्रति गुस्सा व्यक्त करती थी.

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होली पर निकाला जाता है लाट साहब का जुलूस

शाहजहांपुर में न सिर्फ जूतों की होली खेली जाती है बल्कि लाट साहब का जुलूस भी निकाला जाता है. इस जुलूस में एक व्यक्ति लाट साहब बनाकर भैंस पर बिठाया जाता है. इसके बाद उसे लोग जूते से मारते हैं. वहीं कुछ लोग जूते के साथ-साथ चप्पल और झाडू का इस्तेमाल करके उसकी पिटाई करते हैं. ऐसे ही मथुरा के बछगांव में भी होली के दिन चप्पल मारकर होली खेली जाती है. यह परंपरा वर्षों से चलती आ रही है और इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं.

 

 

 

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