हेमंत शर्मा की इतवारी कथा : सालिगरामवॉं
हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से... वह देश के जाने वाले पत्रकार है एवं TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है.
मेरा जीवन दिलचस्प और अद्भुत किस्म की शख्सियतों से भरा पड़ा है। इन शख़्सियतों ने न सिर्फ़ मेरी समझ को परिष्कृत किया बल्कि मेरी दृष्टि भी व्यापक बनायी है।मुझे सिखाया, मांजा और समावेशी बनाया।इस क़ाबिल बनाया कि मैं हर इतवार आपको एक ऐसी ही शख़्सियत से मिलवाता रहूं।
ऐसे ही एक अद्धभुत चरित्र थे सालिगराम।सालिगराम पागल नहीं थे पर समाज उन्हें पागल समझता था। वह वक्त के मारे थे पर ज़माने को ठेंगे पर रखते थे।रहन सहन की बेतरतीबी और कुछ हिले हुए दिमाग़ी संतुलन से वह बनारस में हमेशा कौतूहल का केन्द्र रहे।उनके व्यक्तित्व में परोपकार के अद्धभुत गुण थे। वह कुष्ठ रोगियों के लिए मसीहा थे।निराकार ब्रह्म की तरह उन्हें समूचे शहर में कहीं भी देखा जा सकता था।कोई पच्चीस बरस तक सालिगराम बनारस के सबसे जाने पहचाने व्यक्तित्व थे। रोगियों और भिखारियों के इलाज के लिए वह गवर्नर तक को अंग्रेज़ी में चिट्ठी लिखते थे।सालिगराम के भीतर गजब का विरोधाभास था। वह भीख नही मांगते थे पर भिखारियों के साथ रहते थे।अधोवस्त्र के रूप में गमछा या टाट लपेटते थे। उनके बाल जटाओं की तरह थे और अपने गले में ढेर सारी मालाएं पहने सालिगराम शिव के बाराती लगते थे।अपनी धुन में मस्त, बेलौस,बेबाक़ सालिगराम एक दौर में तो बनारस की पहचान के अनिवार्य तत्व बन गए थे।मंदिरों से उतरी दर्जन भर मालाएं पहने और उतनी ही माला सिर पर लादे सालिगराम अक्सर ही कुछ अजीब और दिलचस्प कर गुजरते।मसलन वे कभी कभी ‘सालिगराम ज़िन्दाबाद’ के नारे भी खुद ही लगाने लगते। इन सालिगराम के सालिगरामवॉं बनने की कहानी बड़ी मार्मिक है।
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कोरोना महामारी ने मुझे बनारसी सालिगराम की कहानी बरबस याद दिला दी। 1940 के आस पास आई चेचक महामारी ने सालिगराम को सालिगरमवा बना दिया। सालिगराम बिंद बिरादरी के थे।यह समाज बनारस में तारकशी का काम करता था। उनका तीन बच्चों और पत्नी का भरापूरा परिवार था।चेचक की महामारी उस दौर में इस परिवार पर कहर बनकर टूटी। ये हँसता खेलता परिवार यकायक इस महामारी की चपेट में आ गया।एक मनहूस सुबह सालिगराम का एक बेटा चेचक से चल बसा। सालिगराम उसे कन्धे पर उठा घाट ले गए और अंतिम संस्कार किया।उस वक्त चेचक से मरे लोगों के शव को जलाते नहीं थे।गंगा में प्रवाहित करते थे।सालिगराम जब तक अंतिम संस्कार से लौटे, उनका दूसरा बेटा भी जाता रहा। उसे घाट पहुंचाया और फिर लौटे तो इस बीच तीसरा भी चल बसा। पत्नी इस सदमे को सह न सकी और वह भी चलती बनी। एक दिन में घर से चार लाश!! सालिगराम का दिमाग़ पत्थर हो गया। सुध बुध जाती रही, सपने टूट गए. जीवन बिखर गया।नीरज के शब्दों में,-
“स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से, लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे!”
सालिगराम की आंखों के सामने ही उनकी भरी पूरी जिंदगी का कारवां गुज़र गया। कभी लौटकर न आने के लिए।अब उनकी ज़िन्दगी में सिर्फ तकलीफ की धूल और दर्द का गुबार रह गया था !!
सालिगराम की जिंदगी के सारे उजले सपनों की अकाल मौत हो गयी। इस पारिवारिक हादसे से सालिगराम विक्षिप्तता की ओर चले गए।परिवार के एक एक कर जाने और कुछ न कर पाने की लाचारी ने सालिगराम का दिमाग़ी संतुलन बिगाड़ दिया। वे घर छोड़ कर कहीं चले गए।मुद्दत बाद जब लौटे तो जटा-जूट के साथ।साढ़े पांच फुट के सालिगराम घुटनों तक ढेर सारी माला पहने।कमर में गमछा लपेटे,हाथ में एक चार फुट लम्बा ताड़ का पंखा लिए।रामकृष्ण मिशन अस्पताल में रोगियों की सेवा करते देखे गए।अपनी इसी वेश भूषा में यह किरदार समूचे शहर में जाना जाने लगा।जहां भी कोई गरीब और अशक्त बीमार दिखता, वहीं सालिगराम पहुँच जाते। पहले उसे कन्धे पर टंगा पंखा झलते। ऐसा पंखा बनारस में रईसों के घर या बारात में इस्तेमाल होता था। यह पंखा सालिगराम की पहचान बन गया था।फिर वे बीमार को अस्पताल ले जाते।बाद में वे दशाश्वमेध घाट पर कुष्ठ रोगियों की सेवा करने लगे।उनकी मरहम पट्टी करते और अक्सर उन्हीं के बीच सो भी जाते।इन रोगियों के लिए वे मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक लिखा पढ़ी करते और अपना दस्तखत करते ‘पखंडी पगला सालिगराम’।यह तख़ल्लुस उनसे ताउम्र जुड़ा रहा।
समूचे शहर में सालिगराम का सम्मान था।कभी उन्हें कहीं से तिरस्कार नहीं मिला। बच्चे भी उन्हें परेशान नहीं करते थे।शहर में उनके कई अड्डे थे।वो जहॉं पहुंच जाते, बिना मांगे भोजन मिल जाता था।उनके जीवन का इकलौता मकसद था, भिखारियों और कुष्ठ रोगियों का इलाज।रामकृष्ण मिशन के स्वामी जी से लेकर बनारस के सिविल सर्जन, छुतहा (संक्रामक रोग) अस्पताल के डॉक्टर, सब उन्हें न सिर्फ़ जानते थे बल्कि उनके द्वारा लाए गए मरीज़ों का इलाज प्राथमिकता से करते थे। रामकृष्ण मिशन के स्वामी जी लोगों से उनकी बहुत बनती थी।वे लोग सालिगराम का आदर करते थे। मिशन अस्पताल के सामने डॉ. पीके बैनर्जी की क्लिनिक थी।डॉ बैनर्जी मिशन अस्पताल के प्रबन्धन से जुड़े थे। सालिगराम उन्हीं से मिशन अस्पताल में सिफारिशी चिट्ठी लिखवाते।डॉ पीके बैनर्जी बनारस के अद्भुत समाजसेवी थे। सालिगराम से उनकी बहुत बनती थी।डॉ बैनर्जी ने अपनी सारी सम्पत्ति आरएसएस को दान दे दी थी।सालिगराम व्यवस्था से नाराज़ थे पर इतिहास से गौरवान्वित थे। उनकी योजना थी कि वे युवकों का एक समूह बनाएंगे और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर सकेंगे।पर जब सब कुछ उजड़ गया तो उन्होंने अपने जीवन में अनंत एकाकीपन ओढ़ लिया।
ज्ञानवापी पर सैमसन्स और लक्सा पर भारतीय भोग, ये दो ऐसे ठिकाने थे, जहॉं उनके भोजन का इन्तजाम रहता था।एक जगह कारोबारी उमरावचंद्र जैन तो दूसरी जगह पूर्व सांसद देवेंद्र द्विवेदी के जिम्मे यह इंतज़ाम रहता।उनके रहने की जगह बनारस के पूर्व मेयर पं सरयू प्रसाद द्विवेदी (मेरे श्वसुर ) के घर का गलियारा थी।द्विवेदी जी का ये गलियारा दो घरों के बीच पड़ता था।सालिगराम टिन, कनस्तर और दूसरे कबाड़ इकट्ठा कर वहीं रहते थे। मंदिरों की माला इकट्ठा करना, उसे पहनना और उसी पर सो जाना।ये उनका शग़ल था। जब यहां रहते तो खाना भी दोनों वक्त इसी परिवार से मिलता था।वरना उनका जीवन रमता योगी, बहता पानी जैसा ही था।कुछ दिनों तक उनका ठिकाना लक्सा के अयाचक आश्रम के पास सड़क पर भी था। फिर मैंने उन्हें लक्सा तिराहे के आइलैण्ड पर क़ब्ज़ा जमाए भी देखा।शहर के कई मानिंद लोगों के यहां सालिगराम हफ्ते-दस रोज में जाते थे। बृजपालदासजी, पं कमलापति त्रिपाठी, पं सत्यनारायण शास्त्री, महन्त वीरभद्रजी, राधा रमनजी या ज्योति भूषण जी जैसे कई लोग उन्हें पैसे भी देते थे।पर सालिगराम ने कभी पैसे अपने ऊपर नहीं खर्चे ।पैसे वे हमेशा गरीब बच्चों और भिखारियों को दे देते।
वीणा ( मेरी पत्नी) बताती हैं कि सालिगराम बहुत समझदारी की बात करते थे। कालमार्क्स से शुरू हो चर्चिल तक उनकी चर्चा के विषय होते थे। डॉ लोहिया, गांधी ,नेहरू ,जिन्ना के बारे में वे तफ़सील से बातें करते।लाल बहादुर शास्त्री और राजेन्द्र बाबू के बारे में समान भाव से व्याख्यान देते। राजनीति के अलावा क्रिकेट में भी उनका दखल था।उनकी व्याप्ति बहुत थी। बनारस का हर बड़ा आदमी उन्हें जानता था।व्यवस्था के प्रति अपना असंतोष वे रोज़ द्विवेदी जी को लिख कर देते थे। पं कमलापति जी के पास भी वे अक्सर अपनी शिकायत लेकर जाते।जो भी नेता शहर में आता, वे उसे शहर की और देश की समस्याओं को अंग्रेज़ी में सिलसिलेवार लिख कर थमा देते।तब झिंगन साव बनारस के विधायक थे। एक रोज़ विधायक जी को लेकर सालिगराम बनारस के सिविल सर्जन के पास गए। इस बात की गांरन्टी के लिए कि उनके लाए मरीज़ों पर वो ध्यान दें।तब लीडर अख़बार का दफ़्तर द्विवेदी जी के घर के सामने ही लक्सा पर हुआ करता था।सालिगराम हर दूसरे तीसरे दिन सम्पादक के नाम पत्र लिख कर छपने को दे आते। न छपने पर नाराज़ होते पर हताश नहीं होते। लिखने का यह सिलसिला उनकी मृत्यु तक जारी रहा।
सालिगराम विक्षिप्त तो थे पर कभी किसी ने उन्हें उन्मादित या आक्रामक नहीं देखा।जब सपनों की हत्या होती है या वे बेवक्त टूटते हैं तो मनुष्य विक्षिप्तता की ओर जाने लगता है।शायद इसीलिए मशहूर कवि अवतार सिंह पाश लिख गए हैं कि –
“मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती/पुलिस की मार भी सबसे ख़तरनाक नहीं होती/ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती/सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना/ न होना तड़प का /सब कुछ सहन कर जाना/घर से निकलना काम पर/और काम से लौटकर घर आना/सबसे ख़तरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना।”
सालिगराम के सपने मर चुके थे उनके जीवन की सबसे खतरनाक बात यही थी।दिमागी संतुलन बिगड़ने के कई कारण होते हैं। इश्क़ की नाकामी, पारिवारिक हादसे, दुनिया बदलने की अदम्य आकांक्षा और कुछ न कर पाने की लाचारी, यही वजहें आदमी का दिमाग़ी संतुलन बिगाड़ देती हैं।सालिगराम की जिंदगी पारिवारिक हादसों के सिलसिले का जीता जागता सदमा थी। पागलपन का अपना चिकित्साशास्त्र होता है।हमारे दिमाग़ की अनेकानेक विसंगतियां हमें पागलपन की ओर ले जाती हैं।इसे आप सनक या मूढ़ता भी कह सकते हैं। इस स्थिति को ‘सिजोफ्रिनीया’ कहते हैं. मुझे लगता है सालिगराम सिजोफ्रिनीया के शिकार थे। इस गंभीर बीमारी का शिकार मरीज़ सच्चाई और भ्रम, सही और ग़लत, सच और झूठ जैसी चीज़ों का अंतर नहीं समझ पाता है।
सालिगराम जिस स्थिति से गुज़र रहे थे, वह जाने अनजाने कितने ही लोगों में पाई जाती है। दुनिया में चिकित्सा विज्ञान की मशहूर पत्रिका ‘द लांसेट’ की रिपोर्ट कहती है कि भारत का हर सातवॉं व्यक्ति ऐसे किसी मानसिक रोग का शिकार है।देश की आबादी का कोई 15 फीसदी हिस्सा यानी कोई 20 करोड़ लोग, किसी ना किसी तरह की मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं। इनमें 4.57 करोड़ लोग डिप्रेशन या अवसाद और करीब इतने ही लोग एंजाइटी यानी घबराहट के शिकार हैं। साल दर साल यह तादाद बढ़ती ही जा रही है। मानसिक उलझनों के इन चक्रव्यहू की एक नहीं बल्कि कई थ्योरी हैं। चोरी करना जब आदत में शुमार हो जाता है और अकसर जब आदमी अनायास ही चोरी करने लगे तो उसे मनोविज्ञानी ‘क्लपटोमीनिया’ कहते हैं। नशेबाजी की गहरी आदत ‘डिपसोमीनिया’ कहलाती है पदार्थों को नष्ट करने की अदम्य अभिलाषा ‘वायरोमीनिया’ कहलाती है।दूसरों को कष्ट पाते देखकर मजा लूटने का स्वभाव ‘म्यूटिलोमीनिया’ कहलाता है।यौन कुत्साएँ, जो बेतरह मन पर छाई रहती हैं, ‘निम्फोमेनिक‘ कहलाती हैं।इसी तरह दिमाग की स्लेट जब ख़ाली होने लगे तो उसे ‘डिमेनशिया’ कहते हैं।
सालिगराम शांत स्वभाव के थे। मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों की हालात एक सी नहीं होती।कुछ लोगों के मन में हमेशा उठक-पटक चलती रहती है। वे अक्सर बड़बड़ाते दिखते हैं।दूसरों के कामों में ज़बरन हस्तक्षेप करते हैं और लड़ने – मरने पर उतारू रहते हैं। आत्मप्रशंसा, दर्प – प्रदर्शन, धमकी, दूसरों का तिरस्कार जैसी हरकतों में लिप्त रहते हैं। यह बीमारी ‘हैब्रेफ्रेनिक’ कहलाती है।जब शारीरिक और मानसिक तनाव बढ़ा-चढ़ा रहे, चैन से न बैठने और न बैठने देने की स्थिति हो तो उस स्थिति को ‘कैटाटोनिक’ कहा जाएगा।किसी अदृश्य से हमेशा डरते रहना, तरह तरह की डरावनी आवाजें सुनना, पीड़ा – प्रताड़ना को सहने का आभास होना, इस पागलपन को ‘पैरेनोइया’ कहा जाता है। ऐसे भी लोग होते हैं जो अपनी कल्पनाएं जेहन में इतने दिन तक संजोये रहते हैं फिर उन्हे वह असलियत जैसी लगने लगती है इसे ‘कोर्साकोफ्स सायकोसिस’ कहा जाता है।सिद्ध योगियों के साथ बातचीत, देवी-देवताओं से संवाद और भूत-प्रेतों के चमत्कारों को आंखों देखी घटना की तरह बताने वाले इसी रोग के मरीज होते हैं। ‘एल्जाइमर’ एवं ‘लोप्रेशर हाइड्रोसेफल्स’ रोग में लोग प्रायः बुढ़ापे में याददाश्त खोने के साथ ही विक्षिप्तता की ओर बढ़ जाते हैं। ‘सठियाना’ इसी को कहते हैं.
चलिए वापस लौटते हैं सालिगराम की कहानी पर।अभी इस कहानी के कई बेहद दिलचस्प शेड्स बाकी हैं। एक दिन यकायक सालिगराम के जीवन में एक मोड़ आया।इस विक्षिप्त आदमी की ज़िन्दगी में एक महिला आ गयी।लोगों को आश्चर्य हुआ, वह महिला बंगाली थी और बड़ी बात यह कि किसी ने उन्हें कभी बोलते नहीं देखा था। वो भी किसी हादसे से पथराई सी लगती थीं।अब सालिगराम सड़कों पर जोड़े के साथ दिखने लगे। सालिगराम उसे अपने साथ चलने से मना करते तो भी वह नहीं मानती थी।साए की तरह उसके साथ चलती थी।सालिगराम का यह ‘सहजीवन’ शहर में चर्चा का विषय था। यह भी सालिगराम पर बाबा विश्वनाथ की कृपा ही थी कि सत्तर बरस की उम्र और इस दिमाग़ी अवस्था में उन्हें जीवन साथी मिला।आख़िरी समय जब सालिगराम बीमार पड़े तो फिर नहीं उठे। इस महिला ने उनकी बहुत सेवा की।ये महिला कौन थी? कहॉं से आई थी? और सालिगराम के जाने के बाद कहॉं चली गयी? यह आज भी बनारसियों के बीच रहस्य का विषय है।
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सालिगराम का एक सपना था। वे भिक्षुकों और कुष्ठ पीड़ितों के लिए बनारस के मणिकर्णिका घाट पर एक मरण शाला बनवाना चाहते थे।बार बार वह इस काम के लिए लोगों को ज्ञापन देते।जब बाबूजी मेयर बने तो उन्हें अक्सर वह इस के लिए याद दिलाते। बाद में कुछ साल सालिगराम काशी विश्वनाथ और अन्नपूर्णा जी के मंदिरों की सफ़ाई में भी लगे रहे।
फिर एक रोज विधाता को अपनी इस अद्भुत कृति की याद आ गई।उनकी विदाई का दिन आ गया।उस दिन सालिगराम बॉंसफाटक पर डॉ रजनीकांत दत्त के चबूतरे पर लेटे मौत से लड़ रहे थे।जटा जूट नाखून बढ़े हुए अचेत।जब द्विवेदी जी को पता चला तो उन्हें रामापुरा घर पर लाया गया।सालिगराम की उल्टी सॉसें चल रही थीं। मुंह में तुलसी और गंगाजल लेकर सालिगराम ने पं सरयू प्रसाद जी के चबूतरे पर अंतिम सॉंस ली। उनकी शवयात्रा किसी रईस और ओहदेदार से कम नहीं थी।कई मुहल्लों से बहुत सारे लोग उन्हें देखने और फूल चढ़ाने आये। बैण्डबाजे के साथ शवयात्रा निकली जिसमें सैकड़ों लोग शामिल थे।दूसरे रोज़ अख़बारों में भी सालिगराम के अवसान की फ़ोटो और खबर छपी।तब लोगों को पता चला सालिगराम की व्याप्ति और लोकप्रियता क्या थी। सालिगराम मेरी नज़र में जीवन की सार्थकता की जीती जागती प्रयोगशाला थे। परिस्थितियां कितनी भी विषम हों, संकट कितना भी विकट हो, जीवन के वाद्ययंत्र के समूचे तार क्यों न बिखर चुके हों,पर मनुष्य की जिजीविषा कभी ठहरती नही, रूकती नही, हार नही मानती. सालिगराम आदम जात की इसी अजेय जिजीविषा के जीवट बनारसी हस्ताक्षर थे।इंसान सफलता,सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य का चरम हासिल कर लेता है।बावजूद वह परमार्थ के रास्ते की ओर कभी आंख उठाकर नही देखता।जो पहला इंसानी मक़सद है। सालिगराम जीवन में सब कुछ खो चुके थे मगर इंसानियत का यह अमृत उनके पास था। इसी अमृतधारा के चलते ही वे हमारी स्मृतियों में ज़िंदा हैं।उन्हें प्रणाम।
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